राजे-रजवाड़े और राजपूताना ताव के लिए पहचानी जाने वाली धरती राजस्थान में जमीन भले ही खुश्क हो लेकिन यहां की राजनीति कभी शुष्क नहीं रहती. आज राजस्थान कांग्रेस (Rajasthan Congress Crisis) में जो आप होता देख रहे हैं वो राजस्थान में पहली बार नहीं हो रहा है. लगभग यही स्थिति 2012 में बीजेपी (BJP) के लिए भी थी. और थोड़ा पीछे जाएंगे तो आजादी के तुरंत बाद राजस्थान के दो विधायकों जय नारायण व्यास और माणिक्य लाल ने पंडित नेहरू और सरदार पटेल के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका था.
लेकिन फिलहाल राजस्थान की राजनीति में दो ऐसे नेता हैं जो हैं तो अलग पार्टी में लेकिन तेवर उनके एक जैसे हैं. और जयपुर में बैठकर दोनों दिल्ली को गाहे-बगाहे ललकारते रहते हैं.
अशोक गहलोत की तरह वसुंधरा ने भी आलाकमान को आंखे दिखाई थी
बात 2012 की है, राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने वाले थे और बीजेपी सत्ता में वापसी की उम्मीद लिए चुनाव में उतरने जा रही थी. लेकिन सवाल था कि राज्य में सीएम चेहरा कौन होगा. इसी खींचतान के बीच बीजेपी के वरिष्ठ नेता गुलाबचंद कटारिया ने सूबे में ‘लोक जागरण यात्रा’ निकालने का ऐलान कर दिया. इस यात्रा पर वसुंधरा राजे सिंधिया और उनके खेमे के विधायकों ने आपत्ति जताई थी.
राजस्थान में सीएम पद को लेकर चुनाव से पहले ही खींचतान इतनी बढ़ी कि, बीजेपी के 79 में से 63 विधायकों ने वसुंधरा राजे सिंधिया के समर्थन में इस्तीफा दे दिया. ये स्थिति कमोबेश वैसी ही थी जैसी फिलहाल राजस्थान कांग्रेस में है. सिंधिया के उस वक्त तेवर ऐसे थे कि उनके खेमे के विधायकों ने ही नहीं बल्कि चार पूर्व सांसदों और दर्जनभर से ज्यादा पूर्व विधायकों ने भी पार्टी को इस्तीफा सौंप दिया था.
राजस्थान की राजनीति पर करीब से नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी कुमार ने क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहा कि,
राजस्थान में वसुंधरा के आने से पहले कभी बीजेपी पूरे नंबरों के साथ सरकार में नहीं आई. भले ही भैरो सिंह शेखावत ने कितनी ही कोशिश की. साल 2000 के वक्त राज्य में भैरो सिंह शेखावत और सेंटर में जसवंत सिंह हुआ करते थे. ये दोनों नेता ही अपनी उत्तराधिकारी के रूप में वसुंधरा को लेकर आये और वसुंधरा ने आते ही पहले इन दोनों नेताओं को ही किनारे लगाया.
उन्होंने आगे कहा कि, एक तरीके से 1998 से लेकर अब तक वसुंधरा राजे सिंधिया और अशोक गहलोत राज्य में पावर सेंटर रहे हैं. एक बार गहलोत और एक बार वसुंधरा राजस्थान की गद्दी पर बैठते रहे. लेकिन कभी भी दिल्ली वहां पावर सेंटर नहीं बन पाई. 2012 में भी यही हुआ था जब बीजेपी वसुंधरा से अलग सोच रही थी. तब उन्होंने दिखाया कि नंबर अभी उन्हीं के फेवर में हैं. उस वक्त नितिन गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे. उन्होंने लाल कृषण आडवाणी के साथ मिलकर जैसे-तैसे डैमेज कंट्रोल किया था. और वसुंधरा की लगभग हर बात मानी गई थी. और फिर से वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की मुख्यमंत्री बनी थीं.
उसके बाद भी जब से केंद्र में बेजेपी की सत्ता आई है और दिल्ली बीजेपी मोदीमय हो गई है. तब से भी कई बार वसुंधरा आंखे दिखा चुकी हैं. और खुलकर दिखा चुकी हैं. फिर वो चाहें हाल में हुए राज्यसभा चुनाव हों या फिर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर लड़ाई. हर बार वसुंधरा ने बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को ये दिखाने की कोशिश की है कि राजस्थान में बिना उनके सत्ता में पाना और बनाए रख पाना आसान नहीं होगा.
कांग्रेस में भी फिलहाल लगभग वही स्थिति
इस वक्त कांग्रेस में भी हालात लगभग वैसे ही हैं. अशोक गहलोत के पास नंबर हैं, वो खुलेआम आलाकमान को आंखें दिखा रहे हैं. सचिन पायलट दिल्ली के साथ होकर भी जयपुर में कुर्सी से दूर हैं. और 10 जनपथ सब जानते हुए भी कुछ कर नहीं रहा है क्यों गहलोत के पास नंबर हैं. उन्होंने ये साबित किया है कि अगर बात नहीं मानी गई तो सरकार का बचना मुश्किल है. वैसे भी राजस्थान में सरकार किनारे पर ही चल रही है.
अब जरा स्थिति को कुछ ऐसे समझिये कि अभी तक वही हुआ है जो अशोक गहलोत चाहते थे. गांधी परिवार के बाद गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सबसे मुफीद और 10 जनपथ के करीब माने जा रहे थे लेकिन वो दिल्ली आने में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं रखते थे तो वो दिल्ली नहीं आये और राजस्थान में वो सचिन पायलट को सीएम बनते नहीं देखना चाहते थे तो वो भी नहीं बने.
दिल्ली के पाले में गेंद
अब एक बार फिर से अशोक गहलोत ने दिल्ली के पाले में ही गेंद डाल दी है कि फैसला आपको करना है. मेरे लिए 90 से ज्यादा विधायक इस्तीफा दे सकते हैं लेकिन फैसला सोनिया गांधी को ही करना है. ये ठीक वैसा ही है जैसे किसी की कनपटी पर बंदूक रखकर कहा जाये कि वैसे में ये चाहता हूं लेकिन फैसला आपको करना है.
यही वजह है कि 30 सितंबर को अशोक गहलोत ने दिल्ली में सोनिया गांधी से आखर माफी मांगी थी और उसी दिन कांग्रेस महासचिव वेणुगोपाल ने कहा था कि राजस्थान के मुख्यमंत्री पर सोनिया गांधी 1-2 दिन में फैसला लेंगी. लेकिन 4 सिंतबर आ गया है अभी तक कोई फैसला नहीं हुआ है.
गहलोत को जादूगर ऐसे ही नहीं कहा जाता, उनका ताजा बयान देखिए जो उन्होंने 3 सितंबर को दिया. अशोक गहलोत ने कहा कि, मैं कहीं भी रहूं लेकिन राजस्थान की सेवा करूंगा. उन्होंने कहा कि, राजनीति में जो होता है वो दिखता नहीं है और जो दिखता है वो होता नहीं है. गहलोत के बयान और उनके कदम साफ कर देते हैं कि वो राजस्थान में क्या चाहते हैं. ये भी लगभग साफ है कि राजस्थान में अशोक गहलोत के पास क्या है. इसलिए पंजाब जैसा कदम कांग्रेस राजस्थान में आसानी नहीं उठा पा रही है.
अशोक गहलोत ने एक बार फिर साबित किया है कि राजस्थान में पावर सेंटर वही हैं. अब फैसला 10 जनपथ को करना है.
पायलट से कहां चूक हुई?
पत्रकार अश्विनी कुमार कहते हैं कि सचिन पायलट गहलोत के मुकाबले जनता के बीच ज्यादा लोकप्रिय हैं. लेकिन 2018 में जो प्रदेश अध्यक्ष रहते उन्होंने गलती की थी उसका खामियाजा वो भुगत रहे हैं. दरअसल 2018 में सचिन पायलट प्रदेश अध्यक्ष होते हुए भी अपने लोगों को टिकट नहीं दे पाये और अशोक गहलोत ठहरे पुराने खिलाड़ी. उन्होंने अपने लोगों को टिकट दिलाया. जिन्हें नहीं दिला पाये उन्हें निर्दलीय लड़ाया, जैसे महादेव सिंह खंडेला और बाबूलाल नागर. अब ऐसे ही निर्दलीय विधायक अशोक गहलोत के लिए रीढ की हड्डी बने हैं.
इस बात को सचिन पायलट उस वक्त या तो समझ नहीं पाये या फिर कुछ कर नहीं पाये. उसके बाद 2020 में हुआ मानेसर एपिसोड भी उनके खिलाफ जा रहा है. जहां वो 20 विधायक जुटाने में भी कामयाब नहीं हो पाये थे.
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