राजस्थान (Rajasthan) के 6 जिलों में जिला परिषद और पंचायत समिति सदस्यों के लिए हुए चुनाव के नतीजे काफी दिलचस्प हैं. जहां पंचायत समिति सदस्यों के मामले में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने बाजी मारी, वहीं जब जिला परिषद के लिए जिला प्रमुख के चुनाव हुए तो इसमें बीजेपी ने पूरा गेम पलटकर रख दिया. जिसका सबसे बड़ा उदाहरण वीआईपी सीट जयपुर में देखने को मिला, जहां बीजेपी से दो वार्ड ज्यादा जीतने पर भी कांग्रेस अपना जिला प्रमुख नहीं बना पाई. क्योंकि कांग्रेस से जीतकर आईं उम्मीदवार को बीजेपी ने अपने पाले में शामिल कर उसे ही प्रमुख घोषित कर दिया.
आमतौर पर देखा जाता है कि जिला पंचायत या परिषद के चुनावों में जो पार्टी सत्ता में होती है, उसी का दबदबा रहता है. लेकिन बीजेपी ने पीछे रहते हुए भी जिला प्रमुख चुनाव में कांग्रेस की बराबरी कर डाली. जिला प्रमुख की 6 सीटों में से 3 बीजेपी के हाथ लगीं और 3 पर सत्तारूढ़ कांग्रेस को जीत मिली.
क्रॉस वोटिंग ने बदल दिया पूरा खेल
क्योंकि पंचायत समिति सदस्यों की जीत के चलते बीजेपी को सिर्फ 1 ही जगह प्रमुख पद के लिए बहुमत हासिल था, इसीलिए कांग्रेस नेता जश्न मना रहे थे. लेकिन वोटिंग से ठीक पहले कांग्रेस से जीतकर आए कुछ सदस्य बीजेपी में शामिल हो गए, क्रॉस वोटिंग हुई और बीजेपी को बाकी की दो सीटें भी मिल गईं. खास बात ये रही कि जयपुर जैसी वीआईपी सीट पर बीजेपी ने कांग्रेस की विजेता जिला परिषद सदस्य रमादेवी को चुनाव के दिन पार्टी में शामिल किया और जिला प्रमुख बनवा दिया.
रमादेवी चोपड़ा सचिन पायलट के खास समर्थक माने जाने वाले वेदप्रकाश सोलंकी के खेमे से आती हैं. लेकिन उनके पार्टी को ऐन वक्त पर धोखा देने के बाद क्रॉस वोटिंग के इस खेल में सोलंकी की भूमिका को भी पार्टी संदेह की नजर से देख रही है.
भरतपुर में बीजेपी ने लिया निर्दलीय उम्मीदवारों का सहारा
अब अगर दूसरे जिला परिषद की बात करें तो यहां बीजेपी ने निर्दलीय विजेता उम्मीदवारों के सहारे जीत की सीढ़ी चढ़ी. जरूरत पड़ने पर निर्दलीय उम्मीदवारों से समर्थन मांगा गया और कांग्रेस को यहां भी मात दे दी गई. जिला परिषद भरतपुर में पूर्व केंद्रीय विदेश मंत्री नटवर सिंह के पुत्र जगत सिंह जिला प्रमुख बनाए गए. जगत सिंह ने भी कुछ समय पहले ही बीजेपी का दामन थामा था.
इसके अलावा अन्य जिला परिषदों में सिरोही में बीजेपी और दौसा और सवाई माधोपुर जिला परिषद के चुनावी नतीजों में कांग्रेस को बहुमत मिला था. परिणाम भी वैसे ही आए. ऐसे में सिरोही में बीजेपी के अर्जुन पुरोहित और दौसा में कांग्रेस के हीरालाल सैनी प्रमुख बनाए गए, साथ ही सवाई माधोपुर में कांग्रेस की सुदामा मीणा जिला प्रमुख निर्वाचित हुई.
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के निर्वाचन क्षेत्र जोधपुर में मुकाबला दिलचस्प रहा. यहां कांग्रेस में बगावत होने के बाद पार्टी से जीतकर सदस्य बने तीन प्रत्याशियों ने नामांकन दाखिल कर बगावत का बिगुल बजा दिया, लेकिन भारी दबाव और जयपुर से दखल के बाद आखिर कांग्रेस प्रत्याशी लीला मदेरणा जोधपुर की जिला प्रमुख निर्वाचित हो गईं.
वहीं अगर प्रधानों के चुनाव की बात करें तो यहां कांग्रेस का ही दबदबा रहा. कांग्रेस को 49 और बीजेपी को 25 पंचायत समितियों में प्रधान बनाने में कामयाबी मिली. कांग्रेस का 26 पंचायत समितियों में और बीजेपी का 14 पंचायत समितियों में स्पष्ट बहुमत था. दोनों ने निर्दलीयों के सहयोग से जोड़-तोड़ के जरिए लगभग दोगुने प्रधान बना लिए. प्रधानों की इस जंग में दिग्गज नेता भी अपनी साख बचाते नजर आए. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया ने अपने निर्वाचन क्षेत्र आमेर में बहुमत से दूर होने के बावजूद भी पार्टी का प्रधान बनवाने में कामयाबी हासिल की. उप जिला प्रमुख और उप प्रधान के लिए अब मंगलवार 7 सितंबर को चुनाव होगा.
पिछली बार के मुकाबले कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन
इन 6 जिला परिषद सीटों पर पिछले चुनाव यानी 2015 में हुए चुनाव की बात करें तो चार सीटों पर बीजेपी का कब्जा था, जबकि सिर्फ दो सीटें कांग्रेस के खाते में थीं. लेकिन इस बार कांग्रेस का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा है, देखा जाए तो बीजेपी को सिर्फ एक जिला परिषद सीट पर प्रमुख के लिए बहुमत हासिल था, लेकिन नतीजों में 3-3 की बराबरी हुई.
पिछले चुनाव में जयपुर, जोधपुर, सिरोही और भरतपुर सीट पर बीजेपी ने अपना जिला प्रमुख बनाया था, वहीं दौसा और सवाई माधोपुर में कांग्रेस ने बाजी मारी थी. अगर पंचायत समितियों की बात करें तो इस बार 22 पंचायत समितियां ऐसी हैं, जिन्हें कांग्रेस ने बीजेपी से छीना है.
खरीद-फरोख्त के आरोप
हर पंचायत चुनाव की तरह इस बार भी बीजेपी और कांग्रेस पर जमकर खरीद-फरोख्त के आरोप लगे. कई उम्मीदवारों ने आरोप लगाए हैं कि चुनाव नतीजों के बाद करोड़ों रुपये सदस्यों पर उड़ाए गए. सदस्यों को वीआईपी ट्रीटमेंट देने में कोई कमी नहीं छोड़ी गई. बता दें कि हर पंचायत चुनाव के नतीजों के बाद हर दल के लिए क्रॉस वोटिंग एक बड़ी चुनौती होती है. जिसमें अचानक पार्टी के जीते हुए सदस्य पाला बदल लेते हैं.
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