पिछले हफ्ते, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख या सरसंघचालक मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) ने एक बयान दिया था जिससे पता चलता है कि वे जाति-आधारित आरक्षण के समर्थन में हैं.
भागवत ने नागपुर स्थित अग्रसेन छात्रावास में कहा, "जब उनका (उत्पीड़ित जाति के लोगों का) जीवन जानवरों जैसा था तो हमें कोई चिंता नहीं थी... लोगों को (प्रतिशोध के रूप में) 200 वर्षों तक पीड़ा सहने के लिए तैयार रहना चाहिए." उन्होंने आगे कहा कि जाति व्यवस्था का इतिहास 2000 साल पुराना है.
यह महत्वपूर्ण क्यों है?
यह दो मायनों में आरएसएस के पहले के रुख के खिलाफ जाता है.
आरक्षण पर भागवत का 2015 में जो बयान था वो हाल के बयान से बिल्कुल अलग है. सरसंघचालक ने कहा था कि, "हमारा मानना है कि देश हित के बारे में सोचने वाले और सामाजिक समानता के लिए प्रतिबद्ध लोगों की एक समिति बनानी चाहिए, जिसमें समाज के कुछ प्रतिनिधि भी शामिल हों, उन्हें यह तय करना चाहिए कि किन श्रेणियों को आरक्षण की आवश्यकता है और कितने समय के लिए."
हालांकि, भागवत की टिप्पणी उस समय गुजरात में चल रहे पाटीदार आरक्षण आंदोलन के संदर्भ में की गई थी, लेकिन इस बयान ने 2015 के बिहार चुनावों में बीजेपी को नुकसान पहुंचाया. सामाजिक न्याय की राजनीति की पृष्ठभूमि वाले दो नेताओं - नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के हाथों पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा.
उन्होंने तर्क दिया था कि सामाजिक पिछड़ेपन पर आधारित आरक्षण की जो नीति अब बढ़ाई जा रही है, वह भारतीय संविधान के निर्माताओं की सोच के अनुरूप नहीं है.
फिर 2017 में, आरएसएस प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इसी तरह की टिप्पणी की.
"बीआर अंबेडकर ने कहा है कि आरक्षण का हमेशा के लिए जारी रहना ठीक नहीं है. इसकी एक समय सीमा होनी चाहिए."मनमोहन वैद्य, आरएसएस प्रचार प्रमुख
दूसरा बदलाव जाति व्यवस्था को लेकर है.
2014 में, बीजेपी नेता बिजय सोनकर शास्त्री ने विभिन्न दलित समुदायों पर तीन पुस्तकें प्रकाशित कीं. किताब में आरएसएस के तत्कालीन दूसरे नंबर के नेता सुरेश 'भैयाजी' जोशी ने कहा था कि जातिगत शोषण 'मुस्लिम आक्रमणों' के कारण शुरू हुआ.
"आक्रमणकारी चंद्रवंशी क्षत्रियों को अपमानित करना चाहते थे इसलिए उन्होंने उनसे गाय कटवाई और ऐसे काम दिए जिसमें जानवरों के शव शामिल थे. इसी कारण कुछ जातियों का निर्माण हुआ."
आरएसएस नेता सुरेश सोनी इन्हीं किताबों में लिखते हैं कि दलित मुगल काल में अस्तित्व में आए.
अब यह कहकर कि जाति व्यवस्था 2000 साल पुरानी है, भागवत अपने पुराने दिए गए बयानों से हट रहे हैं और स्वीकार कर रहे हैं कि जातिगत असमानताओं की उत्पत्ति बहुत पुरानी है.
ये बदलाव क्या बताता है?
हालांकि, चुनावों के संदर्भ में आरएसएस के रुख में बदलाव देखा जाएगा, लेकिन संघ के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि इसका राजनीतिक गणनाओं से कोई लेना-देना नहीं है.
कर्नाटक में आरएसएस के एक पदाधिकारी के अनुसार, "शिकायतों का फायदा उठाकर जाति युद्ध पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है. उस युद्ध को रोकने के लिए, हमें इन शिकायतों को दूर करने की जरूरत है."
जाति व्यवस्था के कारण सनातन धर्म की आलोचना करने वाले डीएमके नेता और अभिनेता उदयनिधि स्टालिन के हालिया बयान का जिक्र करते हुए पदाधिकारी ने कहा कि ये ध्रुवीकरण के प्रयास हैं और इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए.
उन्होंने आगे कहा कि, "सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अतिवादी बयान दिया है, इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी इस पर विश्वास नहीं करेगा. अगर ऐसे लोग हैं जो इसके झांसे में आ सकते हैं, तो हमें उनकी पहचान करनी चाहिए और उन तक पहुंचना चाहिए."
आरएसएस के एक वर्ग के बीच यह धारणा है कि स्टालिन का बयान कोई अलग मामला या गलत बयानी नहीं है और इसे समाजवादी पार्टी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और जाति जनगणना की विपक्षी दलों की मांग जैसे अन्य बयानों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
संघ खेमे में यह धारणा है कि विपक्ष 'मंडल 2.0' के लिए जमीन तैयार कर रहा है. एक सच यह भी है कि सभी समस्याओं को हिंदू एकता के नाम पर छुपाया नहीं जा सकता, उन्हें संबोधित करने की जरूरत होगी.
आरएसएस से जुड़े एक शिक्षाविद् ने द क्विंट को बताया कि, "हम समुदायों की आकांक्षाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकते. हम यह भी नजरअंदाज नहीं कर सकते कि वास्तविक शिकायतें हो सकती हैं. हमें एक ऐसा रास्ता खोजने की जरूरत है जिससे किसी के हितों से समझौता न हो."
ऐसा प्रतीत होता है कि आरएसएस आरक्षण को स्वीकार करने के बारे में सोच रहा है, लेकिन इसे इस तरह से संशोधित करे कि जाति आधारित लामबंदी को रोका जा सके.
इस साल फरवरी में, मोहन भागवत ने यह कहकर विवाद खड़ा कर दिया था कि नाम, योग्यता और सम्मान की परवाह किए बिना सभी लोगों को समान बनाया गया था, लेकिन "पंडितों ने जाति बनाई थी, और पंडितों ने शास्त्रों के आधार पर जो कहा था वो झूठ था.”
उन्होंने यह टिप्पणी मुंबई में गुरु रविदास जयंती समारोह में की. इससे ब्राह्मण संगठनों में आरएसएस के खिलाफ थोड़ी नाराजगी फैल गई और उन्होंने कुछ जगहों पर भागवत के खिलाफ पोस्टर भी लगाए थे.
पुरी के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती ने भी भागवत की टिप्पणी की आलोचना की और कहा कि 'आरएसएस के पास अपना कोई ज्ञान नहीं है.'
इस नुकसान को मैनेज करने के लिए मजबूर होकर आरएसएस ने कहा कि भागवत का बयान गलत तरीके से पढ़ा जा रहा है, जब उन्होंने "पंडित" कहा तो उनका मतलब "बुद्धिजीवियों" से था, न कि ब्राह्मणों से.
हालांकि, आरएसएस को ऐसे वर्गों से कुछ सीमित आलोचना का सामना करना पड़ा, लेकिन यह वास्तव में एक गंभीर खतरा नहीं है क्योंकि ये वर्ग अभी भी मोटे तौर पर बीजेपी और हिंदुत्व के समर्थक हैं, भले ही उनके आरएसएस के साथ कुछ सामरिक मतभेद हो.
भागवत जाति पर अपने सार्वजनिक रुख में सामाजिक न्याय शब्दावली के कम से कम कुछ तत्वों को लाने की कोशिश कर रहे हैं. बेशक, यह देखना बाकी है कि क्या इससे सामाजिक न्याय पर आरएसएस की सोच में बड़ा बदलाव आएगा या संगठन में शीर्ष पदों पर उत्पीड़ित समुदायों के अधिक प्रतिनिधित्व के संदर्भ में बदलाव आएगा.
मोहन भागवत के बयान को उन लोगों को आश्वस्त करने के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए जो आरएसएस को लगता है कि अत्याचार, भेदभाव के मामलों के साथ-साथ जाति जनगणना जैसे विपक्ष के वादों के कारण सामाजिक न्याय की राजनीति की ओर प्रभावित हो सकते हैं.
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