“राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है”. नब्बे के दशक में ये नारा पूरे देश भर में गूंज रहा था. इस नारे ने राजीव गांधी सरकार की चूलें तक हिलाकर रख दी थी. नतीजा 9वीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा और वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी. नतीजतन आंतरिक और बाहरी संकट से जूझ रहे हिंदुस्तान को वीपी सिंह के रूप में नया विकल्प मिला. वीपी सिंह ने कांग्रेस छोड़कर जनता दल में शामिल हुए जम्मू-कश्मीर के बड़े नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृह मंत्रालय का जिम्मा सौंपा. सईद को गृह मंत्री बनाकर वीपी सिंह शायद कश्मीरियों को एक सकारात्मक संदेश देना चाह रहे थे, लेकिन सईद के शपथ लेने के चार दिन बाद ही एक ऐसी घटना घटी जिसने कश्मीर के इतिहास के संभवतः सबसे भयानक दौर को जन्म दिया.
दिसंबर का महीना था और जम्मू-कश्मीर में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. MBBS की पढ़ाई पूरी करने के बाद तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की मंझली बेटी श्रीनगर के अस्पताल ललदद्द में इंटर्नशिप कर रही थीं. 8 दिसंबर 1989 को भी वो घर से इंटर्नशिप के लिए ललदद्द अस्पताल पहुंची. हर रोज की तरह ड्यूटी पूरी करने के बाद वो शाम करीब 4 बजे के आस पास अस्पताल से बाहर निकलीं, तभी एक मिनी बस आकर रूकी, जो उनके गांव नौगाम की तरफ जा रही थी. वो भी उसमें बैठ गईं. जैसे-जैस बस आगे बढ़ रही थी वैसे-वैसे यात्री कम होते जा रहे थे. तभी अचानक पांच नौजवान खड़े हुए और ड्राइवर के सर पर बंदूक ताने बस को नातीपोरा ले जाने के लिए कहने लगे. ड्राइवर ने बस को नातीपोरा की तरफ मोड़ दिया. रुबैया सईद का चेहरा लाल पड़ गया. जब तक वो कुछ समझ पातीं तब तक उन्हें बस से उतारकर जबरदस्ती एक नीली कार में बैठा दिया गया और उस कार को सोपोर में राज्य सरकार के जूनियर इंजीनयर जावेद इकबाल मीर के घर ले जाया गया.
पत्रकार मनोज जोशी अपनी किताब 'द लॉस्ट रेबेलियन, कश्मीर इन द नाइनटीज' में लिखते हैं कि रुबैया के साथ JKLF के नेता यासीन मलिक, अश्फाक माजिद वानी और गुलाम हसन भी मौजूद थे. कार चलाने वाला शख्स अली मोहम्मद मीर भी राज्य सरकार की कंपनी स्टेट इंडस्ट्रियल डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन में टेक्निकल ऑफिसर के पद पर काम कर रहा था. उसी शाम JKLF के प्रवक्ता ने दैनिक अखबार 'कश्मीर टाइम्स' को फोन करके कहा कि उसके मुजाहिदों ने डॉक्टर रुबैया सईद का अपहरण कर लिया है, क्योंकि वे अपने साथी हामिद शेख को रिहा करवाना चाहते हैं. हामिद शेख के अलावा उन्होंने अपने चार दूसरे साथियों. शेर खां, जावेद अहमद जरगर, नूर मोहम्मद कलवल और मोहम्मद अल्ताफ बट की भी रिहाई की मांग की.
उस समय जम्मू-कश्मीर में फारुख अब्दुल्लाह की सरकार थी और अब्दुला मुख्यमंत्री थे, लेकिन वो जम्मू-कश्मीर में न होकर इलाज के लिए लंदन गए हुए थे. जैसे ही ये खबर दिल्ली पहुंची तो वीपी सिंह सरकार के पैरों तले जमीन खिसक गई. फौरन राज्य के पुलिस प्रमुख को केंद्र सरकार की तरफ से निर्देश दिया गया कि वो कोई ऐसा कदम न उठाएं जिससे आतंकियों को रुबैया सईद को मारने का बहाना मिल जाए.
भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख AS दुलत अपनी किताब 'कश्मीर, द वाजपेयी इयर्स' में लिखते हैं कि JKLF ने सबसे पहले फारुक अब्दुल्ला की सबसे बड़ी बेटी सफिया अब्दुल्ला को अगवा करने की योजना बनाई थी. लेकिन ऐसा कर पाना इसलिए मुश्किल था क्योंकि उनके निवास गुपकर रोड की सुरक्षा व्यवस्था बहुत मजबूत थी और दूसरा कारण था कि उन दिनों सफिया बहुत बाहर भी नहीं निकला करती थीं. इसके बाद JKLF ने तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया के अपहरण की साजिश रचनी शुरू कर दी. पता लगाया गया कि वो कितने बजे अस्पताल में इंटर्नशिप की ट्रेनिंग के लिए जाती हैं और कितने बजे वहां से वापस आती हैं. सारी जानकारी इकट्ठा करने के बाद उनके अपहरण की साजिश को अंतिम रूप दिया गया.
रुबैया के अपहरण के बाद दिल्ली से श्रीनगर तक पुलिस से लेकर इंटेलिजेंस की बैठकों का दौर शुरू हो गया. आतंकियों ने रूबैया को छोड़ने के बदले में 5 आतंकियों की रिहाई की मांग की. मध्यस्ता के लिए कई माध्यम खोले गए. इस पूरी कवायद में 5 दिन बीत गए और 8 दिसंबर से 13 दिसंबर की तारीख आ चुकी थी. उधर, खबर सुनने के बाद 11 दिसंबर 1989 को फारुक अब्दुल्ला भी लंदन से कश्मीर लौट आए थे. 13 दिसंबर 1989 की सुबह दिल्ली से दो केंद्रीय मंत्री इंद्र कुमार गुजराल और नागरिक उड्डयन मंत्री आरिफ मोहम्मद खान श्रीनगर पहुंचे. उनके साथ तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार MK नाराणयन भी थे. तीनों फारूक अब्दुल्ला से मिलने पहुंचे थे. फारूक अब्दुल्ला और दोनों केंद्रीय मंत्रियों के बीच बातचीत शुरू हुई.
फारूक अब्दुल्ला आतंकियों को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे. क्योंकि, फारुक अब्दुल्ला को इस बात का अंदाजा था कि अगर रुबैया सईद की जगह एक भी आतंकी को रिहा किया गया तो इसके परिणाम बहुत भयानक होंगे, लेकिन दिल्ली से आतंकियों के साथ समझौता करने का बहुत दबाव था. फारुक अब्दुल्ला, केंद्र की हर बात को मानने के लिए तैयार थे, लेकिन आतंकियों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. जब जज मोती लाल कौल फारुक के पास मुफ्ती मोहम्मद सईद का संदेश लेकर पहुंचे कि सभी पांच आतंकियों को छोड़ा जाना है, तो उनके सब्र का बांध टूट गया. उन्होंने गुस्से में कांपते हुए कहा कि अगर वो मेरी बेटी का भी अपहरण कर लेते तब भी मैं उनको रिहा नहीं करता.
दुलत लिखते हैं कि फारुक अब्दुल्ला ने मेरे सामने मुफ्ती मोहम्मद सईद को फोन मिलाकर कहा कि हम अपना पूरा जोर लगा रहे हैं. मैं आपको आश्वासन देता हूं कि मैं कुछ भी गड़बड़ नहीं होने दूंगा. मुफ्ती साहब मैं आपकी बेटी के लिए वो सब कुछ कर रहा हूं जो मैं अपनी खुद की बेटी के लिए करता. लेकिन 13 दिसंबर की सुबह प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने फारुक अब्दुल्ला को फोन करके पांचों आतंकियों को रिहा करने का अनुरोध किया.
आखिरकार, फारुक अब्दुल्लाह को झुकना पड़ा और उसी दिन दोपहर 3 बजे पांचों आतंकियों को अवामी एक्शन कमेटी के मुख्यालय मीरवाइज मंजिल के पास राजौरी कदल में रिहा कर दिया गया. इसके कुछ घंटे बाद ही करीब शाम 7 बजे रूबैया को सोनवर स्थित जस्टिस मोतीलाल भट्ट के घर सुरक्षित पहुंचाया गया. रूबिया को उसी रात विशेष विमान से दिल्ली लाया गया. एयरपोर्ट पर मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी दूसरी बेटी महबूबा मुफ्ती मौजूद थे.
उन्होंने रुबैया को गले से लगा लिया. इस दौरान मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था कि एक पिता के रूप में मैं खुश हूं, लेकिन एक नेता के रूप में यही कहना चाहूंगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए था. लेकिन, इस घटना ने कश्मीर घाटी में अतंकियों के लिए हिंसा के दरवाजे खोल दिए और किडनैपिंग की झड़ी सी लग गई. कहा जाता है कि उस समय बहुत से कश्मीरियों को लगने लगा था कि वो आजादी पाने की कगार पर हैं और अपनी घड़ियों के समय को पीछे करके पाकिस्तानी समय से मिला लिया था.
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