गोवा और मणिपुर में बीजेपी का समर्थन गेम
करन थापर ने गोवा और मणिपुर में कांग्रेस की ज्यादा सीटों के बावजूद वहां बीजेपी की सरकार बनने के सवाल पर टिप्पणी की है. हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने कॉलम में वह लिखते हैं- 1989 में त्रिशंकु लोकसभा बनी थी और उस वक्त राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने लोकसभा में प्रतिनिधित्व के आकार के हिसाब से पार्टियों के नेताओं को सरकार बनाने को बुलाया था.
सबसे बड़ी पार्टी के सरकार बनाने में नाकाम रहने के बाद इससे कम सीट पाने वाली पार्टी को बुलाया गया था. इसके बाद इससे छोटी पार्टी को. यह पूरी तरह से वेंकटरमन का फॉर्मूला था. संविधान में इसकी बुनियाद नहीं है. संविधान में तो राजनीतिक पार्टी का भी जिक्र नहीं है. इसमें कहा गया है कि जिस व्यक्ति के पास सदन में बहुमत है उसे सरकार बनाने के लिए बुलाया जाना चाहिए. जब कोई राजनीतिक पार्टी बहुमत हासिल करती है तो इसका नेता वह व्यक्ति समझा जाता है, जिसे सरकार बनाने के लिए बुलाया जाना चाहिए. ऐसी परिस्थिति में यही तार्किक है.
2002, 2005 और 2013 में क्रमश: कश्मीर, झारखंड और दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी को न बुला कर छोटी पार्टियों को सरकार बनाने के लिए बुलाया गया, क्योंकि ये बहुमत बना रही थीं. इस प्रक्रिया में वेंकटरमन फॉर्मूला को उलट दिया दिया था. उनके सिद्धांत पर सवालिया निशान लग गया था. गोवा और मणिपुर में यही हुआ और वहां गवर्नर ने उसे बुलाया, जो उनकी नजर में बहुमत के लिए समर्थन जुटाने वाली पार्टी थी.
यहां जीत, वहां सेंध
हिन्दी दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम ने लिखा है कि बीजेपी को यूपी और उत्तराखंड में जीत मिली लेकिन गोवा और मणिपुर में उसने सत्ता के लिए नापाक तरीके अपनाए. चिदंबरम लिखते हैं- जहां स्पष्ट बहुमत वाले नतीजे आए वहां विजेता दलों की सरकारें बननी ही थीं. लेकिन गोवा और मणिपुर में हारने वाली पार्टी ने सत्ता को चोरी से हड़प लिया.
त्रिशुंक विधानसभा की सूरत में सरकार के गठन को लेकर एक अलिखित नियम रहा है, जो बिल्कुल साफ है और पहले के उदाहरण भी इसकी पुष्टि करते हैं. जिस पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें मिली हों, सरकार के गठन के लिए उसे ही सबसे पहले आमंत्रित किया जाएगा. अगर चुनाव-पूर्व के किसी गठबंधन को सर्वाधिक सीटें मिली हों, तो सरकार बनाने का न्योता सबसे पहले उस गठबंधन को दिया जाएगा. इस नियम या परिपाटी के मुताबिक कांग्रेस को गोवा (17/40) और मणिपुर (28/60) में सरकार बनाने का न्योता दिया जाना चाहिए था.
बीजेपी ने लोक-लाज तज कर घोर ढिठाई का परिचय दिया. दोनों राज्यों के राज्यपाल भाजपा पर मेहरबानी लुटा कर खुश थे जहां पार्टी दूसरे नंबर (गोवा में 13/40 और मणिपुर में 21/60) पर आई. इसीलिए मैं कहता हूं कि इन दो राज्यों में चुनाव को चुरा लिया गया. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बीजेपी की जीत उसे वर्तमान भारत की सबसे प्रभावी पार्टी साबित करने के लिए पर्याप्त थी. गोवा और मणिपुर को बीजेपी के पाले में खींचने की कोई जरूरत नहीं थी. लेकिन चोरी से सत्ता हासिल करके बीजेपी ने लोकतंत्र के रूप में भारत की साख पर बट्टा लगाया है.
यूपी - पीएम की नई जंग
हिंदी अखबार दैनिक जनसत्ता में तवलीन सिंह ने यूपी में बीजेपी की जीत के बाद पीएम नरेंद्र मोदी की नई चुनौतियों का जिक्र किया है. वह लिखती हैं- उत्तर प्रदेश जीतने के बाद शुरू होती है नरेंद्र मोदी की असली परीक्षा. इस विशाल, बेहाल राज्य ने भारतीय जनता पार्टी को नहीं, मोदी को वोट दिया है. इस बात का अहसास उनको खुद है, सो परिणाम आने के बाद अपने पहले भाषण में मोदी ने एक नया भारत बनाने की बातें की. वे यह भी जानते होंगे कि नए भारत का निर्माण असंभव है, जब तक नया उत्तर प्रदेश नहीं बनता है. सो, नींव उनको ही रखनी होगी इस प्रदेश में, जिसने उन्हें ऐसा बहुमत दिया है, जिसने दुनिया को हैरान कर दिया.
उनको इस अति-पिछड़े प्रदेश में उस तरह का परिवर्तन लाकर दिखाना होगा, जो गुजरात के देहातों में उन्होंने दिखाया था मुख्यमंत्री बनने के बाद. कृषि की बिजली और घरेलू बिजली की लाइन को अलग करके दूर-दराज देहातों में बिजली उपलब्ध कराई थी. सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराया हजारों छोटे बांध बनवा कर. बाद में कांग्रेस के नेताओं ने साबित करने की बहुत कोशिश की कि ये सारे काम पहले से हो चुके थे गुजरात में, लेकिन मतदाता यथार्थ जानते थे, सो मोदी को गुजरात में नहीं हरा सके. क्या अब उत्तर प्रदेश को गुजरात बना सकेंगे प्रधानमंत्री? जीतने के बाद अब शुरू होती है प्रधानमंत्री के लिए असली जंग.
ईवीएम पर गलती थोपना गलत
टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने यूपी चुनाव नतीजों के बाद बीएसपी प्रमुख मायावती की ओर से ईवीएम में गड़बड़ी के आरोपों का मामला उठाया है. वह लिखते हैं- मायावती ने ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी का आरोप लगाया है. उनका मानना है कि इसी वजह से वह चुनाव हारीं. लेकिन चुनाव आयोग का कहना है ईवीएम में छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है. ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट की समीका रवि, शिशिर देवनाथ और मुदित कपूर की रिसर्च ने इसकी पुष्टि की है.
इसमें कहा गया है कि ईवीएम की वजह से बड़े पैमाने पर होने वाली बूथ लूट और अपराध कम हुए हैं. साथ ही इसने समाज के कमजोर वर्ग में मतदान की भागीदारी बढ़ाई है. हालांकि एक आशंका यह है कि हैकर ईवीएम सिस्टम में गड़बड़ी कर सकते हैं लेकिन अभी तक भारत या दूसरी जगहों पर ईवीएम में ऐसी गड़बड़ी नहीं हुई. ईवीएम की तारीफ होनी चाहिए कि इसने वोटिंग के दौरान होने वाली धांधलियों को रोक दिया. इसने अल्पसंख्यकों की वोटिंग में हिस्सेदारी बढ़ाई है. अगर ईवीएम नहीं होती तो मायावती की पार्टी को जितने वोट मिले हैं, उससे भी कम मिलते.
राजनीति छोड़ कर कांग्रेस का भला करेंगे राहुल
इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई ने राहुल गांधी को राजनीति छोड़ने की सलाह दी है. वह लिखते हैं- 2004 में जब आपने (राहुल गांधी) राजनीति में प्रवेश किया था तो कई लोगों के साथ मैं भी रोमांचित था. आपके इरादे नेक हैं. आप कांग्रेस में सुधार चाहते हैं. आपने कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने और उम्मीदवारों के चयन के लिए कुछ प्राइमरी (प्रारंभिक चुनाव) भी करवाए लेकिन पुरानी व्यवस्था को बदलने की कभी पर्याप्त कोशिश नहीं की.
2014 की हार ने आपको झिंझोड़ा और आपने एक-दो अच्छे वार किए. जैसे- सूटबूट की सरकार. लेकिन असलियत को स्वीकार करें. आपको राजनीति में रुचि नहीं है. चूंकि आपकी मां चाहती है इसलिए आप राजनीति में हैं. अगर आप कांग्रेस छोड़ देंगे तो इसका बेहद भला करेंगे. आप राजनीति छोड़ दीजिए. कांग्रेस की चिंता छोड़ दीजिये. आपकी गैर मौजूदगी में भी यह फलेगी-फूलेगी. कृपा करके जाइए.
रवि राय – निष्पक्षता, सादगी और ईमानदारी के प्रतीक
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष रवि राय का निधन हो गया. दैनिक अमर उजाला में लोकसभा के पूर्व अतिरिक्त सचिव देवेंद्र सिंह ने उन्हें याद करते हुए उन्हें निष्पक्षता, ईमानदारी और सादगी का प्रतीक कहा है. सिंह लिखते हैं- ओडिशा के पुरी में जन्मे नौवीं लोकसभा के अध्यक्ष थे और दसवीं लोकसभा के लिए चुने जाने के बावजूद उन्होंने महान स्पीकरों की परंपरा का पालन करते हुए खुद को दलगत राजनीति से अलग कर लिया.
लोकसभा अध्यक्ष रुप में रवि राय को तब सबसे कठिन फैसला लेना पड़ा था जब उन्हें दलबलदल पर फैसला करना पड़ा था. जिससे उसी सरकार के अस्तित्व पर असर पड़ सकता था जिसने उन्हें लोकसभा अध्यक्ष बनाया था. लेकिन उन्होंने ईमानदारी और निष्पक्षता से फैसला दिया, जिससे सरकार अल्पमत में आ गई. लेकिन इस निष्पक्ष निर्णय से एक स्वतंत्र न्यायसंगत लोकसभा अध्यक्ष के रूप में उनका कद काफी ऊंचा हो गया.
रवि राय पारदर्शिता कि हिमायती थे और उन्होंने संसद की कार्यवाही के सीधे प्रसारण की शुरुआत की. उनके कार्यकाल में पहली बार 20 दिसंबर 1989 को राष्ट्रपति के अभिभाषण का सीधा प्रसारण किया गया था. समकालीन राजनीति पर उनकी पैनी नजर थी और वह समाजवादी पार्टी के साप्ताहिक चौखंभा में आलेख लिखते थे.
उन्होंने लिखा था- आज की कांग्रेस पिछले दिनों की भाजपा जैसी हो गई है और इसका ठीक उल्टा हो गया है. आज जिस तरह से नेता पाला बदलते हैं उसमें जरा भी संदेह नहीं रह गया है कि विभिन्न राजनीतिक दलों में कोई सैद्धांतिक अंतर नहीं रह गया है. वह सक्रिय राजनीति से भले अलग हो गए लेकिन गरीबों और वंचितों के लिए उनका संघर्ष चलता रहा.
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