समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के 'रामचरितमानस' को लेकर दिए गये बयान पर विवाद (Swami Prasad Maurya Ramcharitmanas Row) थमने का नाम नहीं ले रहा. वाराणसी में रविवार, 12 फरवरी को स्वामी प्रसाद मौर्य की गाड़ी पर स्याही फेंक दी गयी. दूसरी तरफ ये मामला अब सियासी रंग लेता जा रहा है. जब अखिलेश यादव पर स्वामी को पार्टी से निकालने का दबाव बनाया जा रहा था, तब उन्होंने स्वामी प्रसाद मौर्य को प्रमोशन दे दिया. ऐसा लगता है कि समाजवादी पार्टी लोकसभा चुनावों 2024 से पहले सामाजिक न्याय के मुद्दे को राजनीति के केंद्र में लाना चाहती है.
स्वामी के कारण हमले, फिर क्यों बढ़ाया कद?
स्वामी ने हाल ही में रामचरितमानस के कुछ श्लोकों पर आपत्ति जताते हुए उन्हें "आदिवासियों, दलितों और पिछड़ी जातियों का अपमान" करार दिया था. जिसके से बाद दक्षिणपंथी स्वामी के विरुद्ध आक्रमक हैं.
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव पर स्वामी को पार्टी से निकाले का दबाव बनाया गया. लेकिन अखिलेश ने स्वामी को पार्टी से नहीं निकला बल्कि उनको पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाकर उनका कद और बढ़ा दिया. इतना ही नहीं समाजवादी पार्टी प्रमुख ने स्वामी से "जाति जनगणना" के लिए आंदोलन की तैयारियां करने को भी कहा है.
जाहिर है रामचरितमानस को लेकर दिए गए बयान पर खामोशी और स्वामी के कद बढ़ाने और जाति जनगणना का मुद्दा तैयार करने के पीछे, अखिलेश की मंशा लोकसभा चुनाव 2024 से पहले सामाजिक न्याय पर राजनीति करना है. क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सामाजिक न्याय का मुद्दा सफल होता है तो भारतीय जनता पार्टी का "हिन्दुत्व" कमजोर पड़ेगा.
अब केवल सामाजिक न्याय का मुद्दा ही समाजवादी पार्टी को बचा सकता है? अतीत से सीख
समाजवादी पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने 1993 विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) से हाथ मिलाकर बीजेपी के हिन्दुत्व को चुनौती दी थी. जिसमें वह सफल भी हुए. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिन्दुत्व की लहर के बाद भी बीजेपी सत्ता में वापिस नहीं लौट सकी थी.
पिछड़ी जातियों खासकर "यादवों" और मुसलमानों की एकजुटता से समाजवादी पार्टी 2012 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापिस आई थी. लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश के साथ पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी में चला गया.
इसके बाद समाजवादी पार्टी के सभी प्रयोग बीजेपी के हिन्दुत्व के सामने विफल होते चले गये. अखिलेश ने 2017 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से हाथ मिलाया लेकिन अपनी सरकार को बचा नहीं सके और 2019 लोकसभा चुनावों में कट्टर विरोधी बहुजन समाज पार्टी से समझौता किया लेकिन बीजेपी का विजय रथ रोकना संभव नहीं हुआ.
अखिलेश ने 2022 विधानसभा चुनावों में छोटी "जाति आधारित" पार्टियों के साथ पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने का प्रयास किया. वह सरकार तो नहीं बना सके लेकिन उनका ग्राफ 48 सीटों से 111 सीटों पर चला गया. बीजेपी का ग्राफ 312 सीटों से गिरकर 255 सीटों पर आ गया.
राजनीति के जानकार मानते हैं कि अब केवल सामाजिक न्याय का मुद्दा ही समाजवादी पार्टी को बचा सकता है. क्योंकि 2024 में अयोध्या में राम मंदिर बनने के बाद अगड़ी जातियों का पूर्ण समर्थन बीजेपी को मिलेगा. ऐसे में सिर्फ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण, उसके राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सामजिक न्याय ही ऐसे मुद्दे हैं जिन से बीजेपी के हिन्दुत्व की राजनीति में सेंध लगाई जा सकती है.
बीजेपी हमेशा सामजिक न्याय के मुद्दे पर कमजोर पड़ती है. क्योंकि इस पर पिछड़ी जातियों के समर्थन का अर्थ है, अपने परंपरागत अगड़ी जातियों ब्राह्मण ठाकुर आदि के वोटरों को नाराज करना. यही कारण है कि बीजेपी पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद करने के लिए "हिन्दुत्व" का सहारा लेती है.
इधर कुछ समय से देखा गया है कि ओबीसी में बीजेपी को लेकर नाराजगी है. इसके कई कारण हैं जैसे निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बताये गये अनिवार्य "ट्रिपल टेस्ट" को अनदेखा करने का प्रयास करना. ओबीसी के भारी समर्थन के बावजूद, बीजेपी द्वारा ठाकुर नेता को मुख्यमंत्री की गद्दी देना, आदि.
पिछड़ों में बीजेपी के खिलाफ नाराजगी का असर चुनावी राजनीति में भी देखने को मिला है. उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य विधानसभा चुनावों 2022 में हार गये. केशव बीजेपी का ओबीसी चेहरा माने जाते हैं. इसके अलावा उप-चुनावों में "जाट बाहुल्य" खतौली विधानसभा सीट पर भी बीजेपी उम्मीदवार राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार से हार गये.
संघ अगड़ों बनाम पिछड़ों के माहौल से डर गया है?
यही कारण है कि अगड़ों बनाम पिछड़ों का माहौल देखकर स्थिति सम्भालने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी सामने आना पड़ा है. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक है उनमें कोई जाति या वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई, वो गलत था.
भागवत के बयान से संघ के अंदर का डर तो सामने आ गया है. लेकिन अब देखना यह है कि अखिलेश सामाजिक न्याय के मुद्दे को कितना आगे तक ले जाते है. क्योंकि बीजेपी मंडल राजनीति के जवाब में कमंडल का कार्ड इस्तेमाल करेगी. जिसके के लिए उसके पास राम मंदिर निर्माण भी एक बड़ा हथियार होगा.
समाजवादी पार्टी को अपने राजनीतिक वजूद को बचाने के लिए आरक्षण और सामाजिक मुद्दों को लेकर सड़क पर उतरने के सिवा कोई विकल्प नहीं है. लेकिन साफ है कि इस समय ओबीसी की आवश्कता समाजवादी पार्टी और बीजेपी दोनों को है. यह भी स्पष्ट है कि अखिलेश का मंडल- संघ के कमंडल पर भारी पड़ता है तो राष्ट्रीय राजनीति की तस्वीर भी बदलेगी.
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