दोनों ने समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया को अपना राजनीतिक गुरु माना और उनकी 100 में से 60 के फॉर्मूले को अपनाकर खूब तरक्की की. 100 में 60 का मतलब यह है कि पिछड़ों का संसाधनों पर कम से कम 60 फीसदी का हक हो. दोनों को राजनीति के ‘मंडलीकरण’ का खूब फायदा मिला. दोनों की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी और दोनों ही मंजिल के करीब आकर फिसल गए. 1990 के दशक में इन करिश्माई नेताओं की बादशाहत रही और अब दोनों ही समाजवाद से अलग परिवारवाद के लिए ज्यादा जाने जाते हैं.
एक जैसी शुरुआत, लेकिन रास्ते अलग
हम बात कर रहे हैं मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की. जहां पहले ने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दिशा बदली, तो दूसरे ने बिहार को ही बदल डाला. जहां मुलायम के परिवार के एक दर्जन से ज्यादा सदस्य सक्रिय राजनीति में हैं, वहीं लालू का परिवार इस मामले में थोड़ा पीछे है, लेकिन तेजी से लालू इस दूरी को मिटाने वाले हैं. दोनों ही परिवार पिछले कुछ दिनों से खबरों में है. खबरें अच्छी नहीं हैं.
मुलायम के परिवार में कलह इतनी बढ़ जाएगी, किसी को उम्मीद नहीं थी. हालात ऐसे हो गए हैं कि लगता है कि उनकी पार्टी को इस कलह की कीमत आने वाले विधानसभा चुनाव में चुकानी पड़ सकती है. दूसरी तरफ लालू के परिवार पर आरोप लगा कि वो शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली नेता पर सॉफ्ट थे और अब भी हैं.
मुलायम अपने ही बेटे का नुकसान करते दिख रहे हैं
लेकिन दोनों परिवारों के मुखियाओं के एप्रोच में एक बुनियादी फर्क है. जहां लालू ने अपनी ही गलतियों से सीखने की कोशिश की है, वहीं मुलायम बदलते हालात के साथ बदलने में नाकामयाब रहे हैं. अब ताजा उदाहरण ही ले लीजिए.
मुलायम के पुत्र उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने हाल के दिनों में कई बड़े फैसले लिए. मुख्तार अंसारी जैसे बाहुबली की पार्टी का उनकी समाजवादी पार्टी में विलय को रोकना हो या फिर दागी मंत्रियों को कैबिनेट से बाहर करने का हो. अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की इमेज चमकाने के लिए ये फैसले लिए.
दरअसल अखिलेश शुरू से ही अपनी पार्टी को विकासोन्मुख एजेंडा देने में लगे हैं. लेकिन उनके हर फैसले पर मुलायम अड़ंगा लगाते रहे हैं. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव से ठीक पहले जिस अखिलेश को आगे कर सपा अपनी नैया पार कराने की सोच रही थी, उनकी ही छवि धूमिल पड़ रही है. वो कमजोर दिख रहे हैं और बहुत हद तक लाचार भी.
दूसरी ओर लालू का एप्रोच इससे ठीक अलग है. शहाबुद्दीन के मामले में उनका बयान संतुलित रहा है. उन्होंने अपने बेटे के बयान का भी समर्थन किया, जिसमें बीती-बातों को भुलाकर आगे बढ़ने की बात कही गई थी. कुल मिलाकर लालू यह संकेत देना चाहते हैं कि बदलते बिहार की कहानी में वो विकास के एजेंडे के साथ हैं.
क्या बिहार और यूपी की विकास यात्रा इसीलिए अलग-अलग है?
इन दोनों नेताओं के एप्रोच में यह फर्क नया नहीं है. हर मसले पर लालू अपने वादों और वसूलों के पक्के दिखे हैं. उन्होंने दोस्ती निभाई है, सहयोगी पार्टियों का बखूबी साथ निभाया है.
धर्मनिरपेक्षता के अपने वादों पर पक्के रहे हैं. यही वजह है कि राजनीति में उनके उदय के बाद से बिहार में बड़े सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए हैं. साथ ही केंद्र में रेल मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने के बाद उनकी राजनीति में नयापन आया ,जो दिखा भी है.
दूसरी ओर मुलायम ने उन्हीं उसूलों से अपनी राजनीतिक पारी शुरू की. लेकिन हर मोड़ पर उसमें से कुछ को तिलांजलि देते रहे. अब जबकि उन्हें राजनीतिक बैटन अखिलेश को सौंप कर रिटायर होने की तैयारी करनी थी, उनकी सारी कोशिश अपने ही विरासत को कमजोर करने की है.
क्या यही वजह नहीं है कि जहां बिहार छोटे-छोटे कदमों से ही सही, आगे बढ़ने का रास्ता तलाशता दिख रहा है, वहीं उत्तर प्रदेश अपनी अपार संभावनाओं के बावजूद एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे चला जाता है?
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