जो त्रिपुरा विधानसभा चुनाव (Tripura Assembly elections) बीजेपी के लिए जीता हुआ मुकाबला लग रहा था, उसने अब आलाकमान की घबराहट बढ़ा दी है. अगले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली को सफल बनाने के लिए पार्टी हर संभव प्रयास कर रही है. बीजेपी के सूत्रों के अनुसार, केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की रैलियां "उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी" और पार्टी चिंता में है.
सूत्रों का कहना है कि पीएम की रैली के लिए पंचायत सचिवों को टारगेट दिया गया है. बड़ी संख्या में भीड़ सुनिश्चित करने के लिए, उन्हें स्पष्ट रूप से सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों को जुटाने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा गया है.
बीजेपी के खेमे में घबराहट क्यों है?
इसके दो पहलू हैं - टिपरा मोथा का उदय और वामपंथियों और कांग्रेस का एक साथ आना.
इससे पहले हमने अपने आर्टिकल में देखा कि कैसे तिपराहा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन (Tipraha Indigenous Progressive Regional Alliance) या टिपरा मोथा (TIPRA Motha) और ग्रेटर टिपरालैंड का वादा त्रिपुरा में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन के लिए एक चुनौती बन गया है.
इस आर्टिकल में हम , हम कांग्रेस पर करीब से नजर डालेंगे.
कांग्रेस के लिए क्यों अहम है ये गठबंधन?
राष्ट्रीय दृष्टिकोण से, त्रिपुरा ऐसा सातवां राज्य या केंद्र शासित प्रदेश है जहां पिछले कुछ सालों में कांग्रेस और वाम दलों ने चुनाव के पहले गठबंधन कर सहयोगियों के रूप में चुनाव लड़ा है. हाल के दिनों में ऐसे अन्य छह राज्य हैं:
पश्चिम बंगाल: 2016 और 2021
बिहार: 2020
असम: 2021
तमिलनाडु: 2021
पुडुचेरी: 2021
तेलंगाना: 2018 (केवल सीपीआई)
वामपंथी पार्टियों ने महाराष्ट्र और जम्मू और कश्मीर जैसे कई स्थानों पर कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा का समर्थन भी किया. हालांकि उन्होंने केरल में इसका समर्थन नहीं किया - जहां दोनों कट्टर प्रतिद्वंद्वी हैं.
त्रिपुरा में गठबंधन दोनों के बीच बढ़ते घनिष्ठ संबंधों का एक और सबूत है.
कांग्रेस और वाम दलों में कई लोगों के लिए, यह न केवल बीजेपी का विरोध है बल्कि तृणमूल कांग्रेस (TMC) भी है जो दोनों पार्टियों को एक साथ लाती है.
वाम दलों के विपरीत, जो कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती नहीं दे रहे हैं, TMC ने अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को साफ कर दिया है - 2022 में गोवा चुनाव में उसका कैंपेन और अब मेघालय और त्रिपुरा में कांग्रेस की जगह लेने का प्रयास दिख रहा है. दो पूर्व कांग्रेसी नेता दो पूर्वोत्तर राज्यों- मेघालय में मुकुल संगमा और त्रिपुरा में सुष्मिता देब- में TMC के लिए महत्वपूर्ण चेहरे हैं.
टीएमसी का गोवा वाला सपना पहले ही विफल हो चुका है और मेघालय में पार्टी लगभग पूरी तरह से मुकुल संगमा पर निर्भर है. इसलिए यह सुनिश्चित करना कि TMC को त्रिपुरा में कोई बढ़त न मिले, कांग्रेस के लिए TMC की राष्ट्रीय चुनौती को शुरू में ही खत्म करना महत्वपूर्ण है. इसलिए लेफ्ट के साथ उसका गठबंधन अहम हो जाता है.
क्या कांग्रेस ने कुछ ज्यादा हामी भर दी है?
सीट बंटवारे के तहत, कांग्रेस 13 सीटों पर, CPI-M 43, और CPI, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक एक-एक सीट पर चुनाव लड़ रही है. साथ ही रामनगर सीट पर यह गठबंधन निर्दलीय उम्मीदवार पुरुषोत्तम रॉय बर्मन का समर्थन कर रहा है.
सीटें कांग्रेस को कम मिली हैं या वाम पार्टियों को? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कोई 2018 के विधानसभा चुनाव को आधार मानता है या 2019 के लोकसभा चुनाव को.
2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस वोट शेयर के मामले में बीजेपी के बाद दूसरे नंबर की पार्टी थी. इसने इन नौ विधानसभा क्षेत्रों में लीड भी किया: सिमना, मंडईबाजार, तकरजला, बोक्सानगर, रामचंद्रघाट, आशारामबाड़ी, अम्पीनगर, कर्मचारा और कैलाशहर.
हालांकि जिन सात खंडों पर कांग्रेस आगे चल रही थी, वे एसटी आरक्षित सीटें हैं और कांग्रेस को शायद वहां की आदिवासी समुदाय के बीच नाराजगी का डिफॉल्ट लाभ मिला था. लेकिन वह वोट, काफी हद तक, अब टिपरा मोथा/ TIPRA Motha को ट्रांसफर हो गया है, इसलिए कांग्रेस इसे हल्के में नहीं ले सकती.
ऐसा लगता है कि कांग्रेस बॉक्सानगर में बीजेपी विरोधी वोट की डिफॉल्ट लाभार्थी रही है, जिसकी मुस्लिम आबादी अच्छी खासी है.
हालांकि दूसरी ओर, 2018 के विधानसभा चुनाव में, वाम मोर्चे के 44 प्रतिशत की तुलना में कांग्रेस के पास केवल 1.8 प्रतिशत वोट शेयर था.
कुछ लोग कहेंगे कि सीपीआई-एम कई सीटों पर कांग्रेस को मौका देकर उदार रही है - उदाहरण के लिए कैलाशहर में वामपंथी एक युवा मुस्लिम नेता मोबोशर अली की जगह कांग्रेस के दिग्गज बिरजीत सिन्हा को सीट देने के लिए सहमत हुए. इस सीट पर मोबोशर अली अब बीजेपी प्रत्याशी हैं.
कैलाशहर नौवीं सीट थी जहां कांग्रेस लोकसभा चुनाव में आगे चल रही थी. कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि बीजेपी को हराने और टीएमसी का सफाया सुनिश्चित करने के अपने बड़े उद्देश्य में कांग्रेस 13 सीटों से संतोष करके व्यावहारिक रास्ता अपना रही है.
क्या वोट ट्रांसफर होंगे?
यह बड़ा सवाल है.
वामपंथी और कांग्रेस त्रिपुरा में पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी हैं और राज्य के गैर-आदिवासी क्षेत्रों में 1972 और 2013 के बीच के चार दशकों तक दोनों के बीच ज्यादातर कांटे का कट्टर रहा है. 2016 में पश्चिम बंगाल में दोनों दलों के गठबंधन के बाद यह स्थिति बदली. शुरुआत में, कांग्रेस के कई नेता और कार्यकर्ता टीएमसी में चले गए. लेकिन 2018 तक, त्रिपुरा में पूरा वाम-विरोधी वोट पूरी तरह से बीजेपी में स्थानांतरित हो गया. वामपंथ को हराने के लिए कांग्रेस के कैडर, नेता और समर्थक काफी हद तक बीजेपी के साथ हो गए.
एक मजबूत वाम-विरोधी इतिहास को देखते हुए, यह देखना बाकी है कि कांग्रेस का वोट वामपंथियों को ट्रांसफर होता है या नहीं?
ग्राउंड रिपोर्ट मिली-जुली तस्वीर पेश करती है. अमरपुर, बेलोनिया और ऋषिमुख जैसे कुछ स्थानों पर वोटों का ट्रांसफर होता दिख रहा है. पार्टी की 13 सीटों में से अधिकांश पर वामपंथी वोट कांग्रेस की ओर जा रहे हैं क्योंकि वामपंथी समर्थकों में भारी हताशा है.
हालांकि, कुछ जगहों पर जहां कांग्रेस के लोकप्रिय पूर्व नेता बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, वहां कांग्रेस के पुराने वोटों में बंटवारा हुआ है.
यदि कांग्रेस और वाम दल विशेष रूप से बंगाली भाषी क्षेत्रों में विपक्ष के वोटों को मजबूत करते हैं और टिपरा मोथा आदिवासी क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन करता है, तो यह बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. केंद्र और राज्य दोनों में सत्ता में होने के साथ-साथ संसाधनों के मामले में बीजेपी के पास लाभ को देखते हुए विपक्ष के लिए यह अभी भी एक कठिन कार्य है.
लेकिन बीजेपी को ऐसे समय में त्रिपुरा में डराना जब वह पूर्वोत्तर में अपने प्रभुत्व के चरम पर है, कोई छोटी उपलब्धि नहीं होगी.
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