क्या शहरी इलाकों में बीजेपी की चमक फीकी पड़ रही है? इस सवाल को देखकर कई लोगों की भौंहें चढ़ सकती हैं, खासकर पिछले दो दिनों की सुर्खियां देखते हुए. लेकिन इस सवाल के पीछे एक कारण है जिसकी समीक्षा जरूरी है.
उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव नतीजों को देखते हुए हमें इस बात का थोड़ा अंदाजा तो मिला है कि शहरी वोटरों ने कैसे वोट डाले हैं. पूरे राज्य के करीब 20 फीसदी यानी करीब 3.4 करोड़ वोटरों को तीन स्तरीय शहरी निकायों के 652 प्रमुख चुनने थे. भारतीय जनता पार्टी ने इनमें से 184 पर जीत हासिल की, यानी जीत का प्रतिशत है 28. क्या इसे भारी बहुमत से जीत कहा जाना चाहिए जैसा दावा किया गया?
2012 में बीजेपी का प्रदर्शन निराशाजनक था
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि ये चुनाव स्थानीय मुद्दों और उम्मीदवारों की छवि पर ज्यादा लड़े जाते हैं, किसी पार्टी के साथ उनके जुड़ाव पर कम. चूंकि मतदान का प्रतिशत भी सिर्फ 52 था, हम मान सकते हैं कि लोगों के मन में इस चुनाव को लेकर कोई ज्यादा उत्साह भी नहीं था.
2012 के शहरी निकाय चुनावों में बीजेपी ने 629 सीटों में से 88 पर जीत हासिल की थी यानी सिर्फ 14 फीसदी. लेकिन वो अलग दौर था और अखिलेश यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी ने कुछ महीने पहले के विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल की थी. बीजेपी का प्रदर्शन विधानसभा के साथ-साथ शहरी निकाय चुनावों में भी निराशाजनक था.
विधानसभा चुनाव से तुलना करने पर क्या नजर आता है?
इसलिए इस बार के चुनावी नतीजों की तुलना थोड़े समय पहले विधानसभा चुनावों के नतीजों से करना बेहतर होगा. उत्तर प्रदेश में मार्च में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी की जीत का प्रतिशत था 77. इसे देखते हुए बीजेपी को सभी शहरी सीटों का करीब 80 फीसदी जीत लेना चाहिए था. जीत प्रतिशत के 80 से 28 पर आने को क्या भारी बहुमत कहना चाहिए?
अलग-अलग शहर, अलग-अलग नतीजे
इस बात में कोई शक नहीं है कि बीजेपी बड़े शहरों में सबसे लोकप्रिय पार्टी है. पार्टी ने मेयर के 16 में से 14 सीटें जीती हैं. पांच साल पहले बीजेपी के लिए ये आंकड़ा था 12 सीटों में 10 पर जीत. हालांकि, बड़े शहरों में भी, पार्षदों के चुनाव में जीत का प्रतिशत घटकर 45 रह गया है.
हालात छोटे शहरों में बिलकुल अलग थे. नगरपालिकाओं वाले शहरों में, बीजेपी ने कुल 198 अध्यक्ष पदों में से 70 पर जीत हासिल की. इसका मतलब है कि 35.5 प्रतिशत जीत. समाजवादी पार्टी ने 23 प्रतिशत के साथ 45 सीटों पर जीत हासिल की. तीसरा सबसे ताकतवर दल है निर्दलीयों का जिन्होंने 22 प्रतिशत सीटों पर जीत हासिल की.
और आगे बढ़ें, नगर पंचायत प्रमुखों के पद के लिए, बीजेपी 438 सीटों में से सिर्फ 100 सीटें जीत सकी यानी सिर्फ 23 प्रतिशत. इनमें निर्दलीयों ने 42 प्रतिशत सीटें जीतीं और समाजवादी पार्टी ने 19 प्रतिशत.
इन नतीजों में कोई संदेश है?
तो क्या इन नतीजों में कोई संदेश है? क्या इसका मतलब है कि जहां बड़े शहरों के निवासियों ने नोटबंदी और जीएसटी के दर्द को आसानी से झेल लिया, वहीं छोटे शहरों और कस्बों के लोग इतने खुशकिस्मत नहीं रहे? हालांकि इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि शहरी निकाय चुनावी नतीजों का मुख्य संदेश एक समान नहीं है.
सभी पार्टियों के लिए संदेश
कांग्रेस की अपने गढ़ अमेठी में हार (मार्च विधानसभा चुनावों और पांच साल पहले निकाय चुनावों में भी पार्टी का प्रदर्शन खराब था) और बीजेपी के गोरखपुर और कौशांबी जैसे महत्वपूर्ण इलाकों में तुलनात्मक रूप से कमजोर प्रदर्शन पर तो ध्यान जाना ही चाहिए. नगरपालिकाओं और नगर पंचायतों में निर्दलीय उम्मीदवारों की बड़ी जीत सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के लिए एक तरह की चेतावनी है.
अभी वोट में हिस्सेदारी के आंकड़े नहीं आए हैं, इसलिए किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी. लेकिन एक संदेश साफ-साफ देखा जा सकता है: बीजेपी की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है जैसी आठ महीने पहले थी. और ये तब है, जब विपक्षी दलों की एकजुटता के दूर-दूर तक कोई संकेत नहीं हैं क्योंकि सभी दलों ने निकाय चुनाव अलग-अलग लड़ा है.
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