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नियुक्ति के बावजूद यूपी में क्यों खाली है डीजीपी की कुर्सी?

क्या यूपी में डीजीपी के पद पर नियुक्ति यूपी के राजनीतिक समीकरण में फंस गई है

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उत्तर प्रदेश में शायद पहली बार पुलिस सुप्रीमो का पद पिछले 17 दिनों से खाली है. नाम तय हो जाने के बाद भी नए डीजीपी की नियुक्ति नहीं हो सकी है. यूपी जैसे राज्य में जहां लॉ एंड ऑर्डर की समस्या सबसे अहम है, वहां अगर पुलिस चीफ का पद खाली है, तो जरूर कोई बड़ी वजह होगी. इसे लेकर लखनऊ में बेचैनी है तो दिल्ली में खामोशी है.

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यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार ने 1983 बैच के आईपीएस ओपी सिंह को यूपी का डीजीपी बनाया है. सिंह फिलहाल सीआईएसएफ के डीजीपी हैं. 31 दिसंबर को सुलखान सिंह के रिटायर होने के बाद ओपी सिंह को इस पद पर ज्वाइन करना था. लेकिन 17 जनवरी तक यह तय नहीं हो पाया है कि ओपी सिंह की ज्वाइनिंग कब होगी. अभी तक सीआईएसएफ ने उन्हें रिलीव नहीं किया है. लेकिन ये वजह किसी के गले नहीं उतर रही है. और उतरे भी कैसे, जब केंद्र और राज्य दोनों ही जगह बीजेपी की सरकार है.

दूसरी बड़ी बात यह है कि योगी देश के फायर ब्रांड मुख्यमंत्रियों में से एक हैं और बीजेपी के स्टार भी. फिर भला उनके निर्णय में कौन टांग अड़ा सकता है. सब जानते हैं कि ऐसा करने की विभागीय सिस्टम की तो हिम्मत नहीं है.

क्या योगी की पसंद हैं ओपी सिंह ?

दरअसल पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह के रिटायर होने से पहले ही नए डीजीपी की तलाश शुरू हो गई थी. चर्चा में कई नाम थे. जिनमें सबसे ऊपर 1982 बैच के राजनीकांत मिश्रा, प्रवीण कुमार सिंह और सूर्य कुमार शुक्ला थे.

माना जा रहा था कि प्रवीण कुमार सिंह डीजीपी बनेंगे, क्योंकि वो योगी की भी पहली पसंद थे. इसके साथ ही योगी के पसंदीदा होने के कारण भावेश सिंह का नाम भी था, लेकिन आखिर 1983 बैच के ओपी सिंह के नाम पर मुहर लगी. जबकि ओपी सिंह की इस रेस में कहीं चर्चा भी नहीं थी. क्योंकि वो सीनियरिटी की हाईरारिकी में पांचवें स्थान पर थे. ओपी सिंह अचानक कहां से आ गए, ये योगी के करीबी भी नहीं समझ पा रहे हैं. हालांकि ठाकुर होने के कारण ओपी सिंह को योगी की पसंद माना जा रहा है.

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ओपी सिंह का राजनाथ कनेक्शन!

चर्चा ये भी है कि ओपी सिंह गृह मंत्री राजनाथ सिंह के बेहद करीबी है, जिसकी वजह से उन्हें एनडीआरएफ के डीजी के बाद सीआईएसएफ का डीजी बनाया गया. इन्हीं नजदीकियों के कारण पार्टी संगठन की मदद से ओपी सिंह यूपी के पुलिस प्रमुख पद तक पहुंच गए.

योगी ने तो विरोध नहीं किया लेकिन संघ ने जाति के आधार पर सवाल जरूर खड़े किए. संघ को लगा कि लगातार दूसरी बार ठाकुर डीजीपी का क्या संदेश जाएगा. इस पूरे मामले की जानकारी पीएमओ तक पहुंच गई.

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केंद्र की हरी झंडी नहीं

चर्चा है कि केंद्र सरकार ओपी सिंह के नाम पर सहमत नहीं है. इसलिए उन्हें रिलीव नहीं किया जा रहा है. सूत्र बताते हैं कि ओपी सिंह योगी की भी पसंद नहीं हैं, लेकिन संगठन के दबाव में नाम पर सहमति बनी थी. इस बीच जैसे ही ये मामला अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पहुंचा, इसे होल्ड पर डाल दिया गया.

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अमित शाह को यह बताया गया है कि ओपी सिंह की प्रदेश में दलित विरोधी छवि है. उनका नाम मायावती गेस्ट हाउस कांड से जुड़ा है. ऐसे में सरकार को डर है कि ओपी सिंह डीजीपी बनते हैं तो बीएसपी इसे मुद्दा बनाएगी और दलित वोट, जिसे बीजेपी जोड़ना चाहती है, उस पर इसका गलत असर होगा.
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अब सरकार ऐसा रास्ता तलाश रही है जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. जिसके लिए कानूनी अड़ंगा सबसे बेहतर रास्ता है. कानूनी पहलू पर ध्यान दें, तो किसी भी अधिकारी को सेंट्रल डेपुटेशन का कार्यकाल बिना पूरा किये होम कैडर में वापस जाने के लिये अप्वाइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट (एसीसी) से अप्रूवल लेना जरूरी होता है, जो अभी तक ओपी सिंह के मामले में नहीं हो पाया है.

लेकिन दूसरी तरफ अगर राज्य सरकार डीजीपी जैसे पदों के लिए अपने कैडर को वापस बुलाती है तो ये सारी प्रक्रियाएं सिर्फ औपचारिकता मात्र ही होती हैं. चाहे कोई भी सरकार हो. ऐसे बहुत से उदाहरण है, जब केंद्र ने राज्यों को उनके अधिकारी 48 घंटों में वापस किए हैं.

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दलित विरोधी छवि और मुलायम सिंह से नजदीकियां

1995 में ओपी सिंह लखनऊ के एसएसपी बने थे, इसी दौरान बीएसपी सुप्रीमो और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के साथ गेस्टहाउस में अभद्र व्यवहार हुआ था. इसको लेकर बीएसपी ने काफी हंगामा किया और अंत में चार दिन बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने ओपी सिंह को सस्पेंड कर दिया था. लेकिन इसके बाद वो मुलायम सिंह यादव के नजदीकी हो गए. समय-समय पर ओपी सिंह को इसका फायदा भी मिला.

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मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहते ओपी सिंह के लिए अलग पद क्रिएट किया गया था. नोएडा में ओपी सिंह को अपर पुलिस महानिदेशक बनाया गया था. लेकिन, मायावती की सरकार आते ही एक बार फिर से ओपी सिंह साइडलाइन कर दिए गए.
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यूपी में पुलिस प्रमुख का पद शुरू से ही सियासत की भेंट चढ़ता रहा है. जाति के आधार पर इस पर नियुक्ति आम बात रही है. पिछली सरकारों में सीनियरिटी इस पद के लिए सिर्फ नाम के ही आधार रहे हैं.

अखिलेश सरकार में पांच सालों में 8 डीजीपी रहे. मायावती ने सुपरसीड कर बृजलाल को डीपीपी बनाया था. लिहाजा बीजेपी ने अपने चुनावी वादों में इसे प्रमुखता से रखा था कि सीनियरिटी को तोड़ा नहीं जाएगा. लेकिन कारण जो भी हो, बीजेपी भी इससे बच नहीं पाई.

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