उनकी लंबी होती परछाई उनका पीछा कर रही है, जैसे किसी कहानी की परतें खुल रही हों. वह जाट हैं और उनकी कार में बैठकर हमने मुजफ्फरनगर जिले के बुढ़ाना विधानसभा क्षेत्र के मुनभर गांव की पतली गलियों की यात्रा की है. चेहरे पर परेशानी का भाव लिए यह शख्स एक लड़की की रखवाली कर रहे हैं.
पश्चिम यूपी के इस इलाके में यह कोई अनोखी घटना नहीं है, जहां बेटियों पर इसलिए पहरा बिठाया जाता है, ताकि वे ‘गुमराह’ न हों और न ही दूसरे समुदाय के ‘लड़कों’ का शिकार बनें, खासतौर पर दूसरे धर्म के लड़कों की.
हालांकि वह किसी आम लड़की की निगरानी नहीं कर रहे हैं. उनकी बेटी की उम्र 20 साल से कुछ अधिक है. एक मुस्लिम लड़के ने उनकी बेटी पर भद्दे कमेंट किए थे, जिससे 2013 में पश्चिम यूपी के कई जिलों और मुजफ्फरनगर में अप्रत्याशित सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था.
जाटों का समर्थन बरकरार नहीं रख सकी बीजेपी
इस लड़की के पिता मुजफ्फरनगर शहर से गांव आए थे, जहां हमारी उनसे मुलाकात हुई. शहर में एक किराये के घर में उनका परिवार रहता है. वह असुरक्षित महसूस करते हैं और उन्हें बेटे गौरव और भतीजे सचिन की यादें सताती रहती हैं. 2013 तक यह परिवार मलिकपुरा में रहता था. यह केवल गांव का इलाका है, जहां गौरव और सचिन का शाहनवाज कुरैशी नाम के एक मुस्लिम लड़के से झगड़ा हुआ था. शाहनवाज की मौत हो चुकी है.
इस घटना से दंगे भड़के और पूरे राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ, जिससे लोकसभा चुनाव में बीजेपी को चौंकाने वाली जीत मिली. बीजेपी को पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 282 सीटें मिलीं, जिनमें से यूपी का योगदान हर चार में एक सीट का था. इस वजह से मौजूदा चुनाव को लेकर इस इलाके में राजनीतिक पंडितों की दिलचस्पी कुछ ज्यादा है.
लड़की को ‘इलेक्शन ड्यूटी’ पर इस गांव में आना पड़ा है. 2013 के हादसे के बाद सरकार ने मुआवजे के तौर पर एजुकेशन डिपार्टमेंट में उन्हें परमानेंट जॉब दी थी. इस वजह से इस चुनाव में उनकी ड्यूटी लगाई गई है. मैं उन्हें बूथ में बैठे देखता हूं, जहां वह वोटर स्लिप और आइडेंटिटी कार्ड्स की पड़ताल कर रही हैं. बूथ की सुरक्षा में कई पुलिसकर्मी तैनात हैं.
पिता को बेटी पर गर्व है. उन्होंने बताया कि वह अपना काम अच्छी तरह से करती है और उसे सीनियर्स से शाबाशी भी मिलती है. हालांकि तुरंत उनका स्वर बदलता है और वह कहते हैं कि जिस पार्टी (समाजवादी पार्टी) ने 2013 के बाद उनके परिवार के लिए कुछ किया, वह उसका समर्थन नहीं कर रहे और जिस पार्टी (बीजेपी) ने कुछ नहीं किया, उसके लिए वह वोट मांग रहे हैं. ऐसी नाराजगी जताने वाले वह अकेले इंसान नहीं हैं, पूरे जाट समुदाय का यही हाल है. 2014 में पूरी तरह जाटों का समर्थन हासिल करने वाली बीजेपी उसे बरकरार नहीं रख पाई.
हरियाणा में एक गैर-जाट को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला, मनोहर लाल खट्टर सरकार ने जिस तरह जाट आंदोलन को हैंडल किया और समुदाय से कम उम्मीदवार खड़े करने की वजह से जाट वोटर बीजेपी से दूर हो गए हैं. खासतौर पर बुजुर्गों में बीजेपी को लेकर काफी नाराजगी है. उन्होंने खुलकर कुछ नहीं कहा, लेकिन पिता चाहते थे कि उन जैसे लोगों को बीजेपी अपनी राजनीतिक पहचान बनाए.
हिंदुत्व का एजेंडा
अनदेखी की वजह से बीजेपी के प्रति नाराजगी के बावजूद यूपी में हाल ही में खत्म हुए पहले फेज के चुनाव में बड़ी संख्या में पार्टी का जाटों ने समर्थन किया.
आने वाले फेज में भी जाट ऐसा ही करेंगे, क्योंकि पहले फेज में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण सबसे बड़ा मुद्दा था. यह बात और है कि बीजेपी ने शुरू में कहा था कि वह सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के नाम पर वोट मांगेगी.
थाना भवन से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार सुधीप पंवार ने चुनाव के दिन कहा- यहां ‘संपूर्ण ध्रुवीकरण’ दिख रहा है.
चुनाव के दिन और पिछले कुछ हफ्तों में पश्चिम यूपी की यात्रा के दौरान यह बात स्पष्ट हो गई थी कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण यहां खत्म नहीं हुआ है. शुरू में कुछ और दावे करने के बाद बीजेपी ने हिंदुत्व केंद्रित घोषणापत्र जारी किया और अब ‘गोएबल्स’ के सैनिक यह दावा करने का कोई मौका नहीं चूक रहे कि बीएसपी और समाजवादी पार्टी ने आबादी के अनुपात की तुलना में कहीं ज्यादा मुसलमान उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा है.
यह मैसेज समूचे आरएसएस नेटवर्क को मिल चुका है और पहला फेज ध्रुवीकरण के चलते बीजेपी के लिए अच्छा रहा है. इससे मुस्लिम वोटों में बंटवारा हुआ, जबकि ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया का परंपरागत वोट बैंक उसके साथ बना हुआ है.
पार्टी को गैर-जाटव दलितों और ओबीसी का भी समर्थन भी पहले फेज में मिला था. जाटों ने भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते आखिरकार बीजेपी को वोट किया. दरअसल, यह समुदाय पार्टी से साथ मोलभाव करने की पूरी शक्ति गंवा चुका है.
बीजेपी में अंदरूनी कलह
मुजफ्फरनगर जिले के प्रचार प्रमुख और चरथवाल विधानसभा क्षेत्र के प्रभारी ने बताया कि जाटों ने पार्टी का समर्थन किया है, लेकिन उन पर आगे संदेह बना रहेगा. अगर पार्टी यूपी में सत्ता में आती है, तभी उन्हें किसी तरह की सौगात की उम्मीद करनी चाहिए.
साफ है कि बीजेपी पहले उन जातियों का ख्याल रखेगी, जो जाटों से पहले उसके साथ आए. जाटों को सामाजिक रुतबा हासिल करने में कुछ वक्त लगेगा. क्या इससे केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान की अहमियत भी कम होगी, यह देखना बाकी है. हालांकि जाटों का भारी समर्थन हासिल नहीं कर पाने को लेकर उनसे सवाल जरूर पूछे जाएंगे.
टिकट बंटवारे के बाद बीजेपी की हालत अच्छी नहीं थी. चुनाव में कौन से मुद्दे चलेंगे, इसकी तस्वीर साफ नहीं थी. कैंडिडेट सेलेक्शन को लेकर कार्यकर्ताओं की नाराजगी के कारण आरएसएस नेटवर्क ने भी दूरी बना ली थी. स्वयंसेवकों ने बताया, ‘अगर उन्हें बिना सलाह के चुना गया है तो पार्टी को ही उन्हें जिताने का रास्ता तलाशने दीजिए. वे हमारे पास क्यों आ रहे हैं?’
अवतार सिंह भडाना को मुजफ्फरनगर की मीरपुर सीट से उतारने पर बीजेपी नेतृत्व की काफी आलोचना हुई. भडाना की पहचान दलबदलू नेता की है और वह हरियाणा से तीन बार कांग्रेस सांसद रह चुके हैं. उन्हें चमक-दमक वाली जीवनशैली की वजह से जाना जाता है. वह 2014 में बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री कृष्ण पाल गुर्जर से चुनाव हार गए थे और इसके बाद वह आईएनएलडी में चले गए थे.
डैमेज कंट्रोल मोड में आरएसएस
स्वयंसेवकों की नाराजगी देखते हुए आरएसएस नेतृत्व ने बीजेपी के लिए समर्थन जुटाने की पहल की. आरएसएस के जनरल सेक्रेटरी दत्तात्रेय होसबोले और कृष्ण गोपाल ने जनवरी के अंत में इसके लिए राज्यभर से महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की मीटिंग बुलाई. उनसे कहा गया कि भले ही उम्मीदवार उनकी पसंद के नहीं हैं, लेकिन आरएसएस कार्यकर्ताओं को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अगर यूपी की सत्ता बीजेपी को मिलती है, तो उससे संगठन को भी फायदा होगा.
उन्होंने कहा कि जिस तरह से 282 बीजेपी सांसदों की पहचान का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि केंद्र सरकार की कमान एक पूर्व प्रचारक के हाथ में है, उसी तरह से अगर पार्टी राज्य की सत्ता हासिल करती है, तो विधायकों की कोई अहमियत नहीं होगी. इस मीटिंग का असर हुआ और इसके बाद बीजेपी का चुनाव प्रचार कमजोर नहीं पड़ा. 2014 की तरह आरएसएस नेटवर्क राज्य भर में फैल गया और हर पदाधिकारी को अलग जिम्मेदारी दी गई.
पहले फेज के चुनाव के बाद यह साफ हो गया है कि यूपी में पहचान की राजनीति दूसरे मुद्दों पर हावी है. हालांकि बीजेपी के लिए 2014 की तरह यह चुनाव आसान नहीं है. इसके बावजूद यह मानना गलत होगा कि यूपी में बिहार जैसा जनादेश आएगा, क्योंकि यहां समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने हाथ मिला लिया है.
पहली बात तो यह है कि अखिलेश यादव, नीतीश कुमार नहीं हैं और न ही राहुल गांधी, लालू यादव. दूसरी बात यह है कि मायावती के रूप में मजबूत तीसरी ताकत मौजूद है, जो अभी भी हैरान करने की क्षमता और एंटी-बीजेपी वोटों को बांटने का दम रखती हैं.
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(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक और पत्रकार हैं. उनकी नई किताबें हैं: Sikhs: The Untold Agony of 1984 और Narendra Modi: The Man, The Times. उन्हें ट्विटर पर @NilanjanUdwin पर फॉलो किया जा सकता है. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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