उत्तर प्रदेश चुनाव में छठे और सातवें फेज के मतदान में बीजेपी को कुछ नुकसान हो सकता है. इन दोनों चरणों में पूर्वी यूपी की 111 विधानसभा सीट आती हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट गोरखपुर सदर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट वाराणसी की 5 विधानसभा सीट इसी में शामिल हैं.
द क्विंट ने नवंबर में लिखा था कि बीजेपी को पश्चिम यूपी, रोहिलखंड और पूर्वांचल में अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है. अवध, बुंदेलखंड और मध्य यूपी के अन्य हिस्सों में बेहतर प्रदर्शन कर सकती है. अब तक चुनाव मोटे तौर पर इसी दिशा में गया है.
ऐसा लगता है कि अखिलेश यादव के गठबंधन ने पहले, दूसरे और पांचवें चरण में सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है, जबकि बीजेपी तीसरे और चौथे चरणों में इस नुकसान को कुछ कम करने में कामयाब रही है.
तो सवाल कि क्या एसपी छठे और सातवें चरण में अपने ट्रेंड को जारी रख सकती है या बीजेपी अपनी पकड़ बनाए रखेगी? क्या एसपी की बढ़त 2017 में बीजेपी को 325 सीट से नीचे लाने में सफल होगी?
ऐसा लगता है कि छठा और सातवां चरण बीजेपी के लिए ज्यादा कमजोर साबित हो सकता है. इन दो चरणों के मतदान के छह फैक्ट्स देखते हैं.
1. पूर्वी यूपी में बीजेपी का मार्जिन कम
छठे और सातवें चरण में जिन 111 सीटों पर मतदान हैं, उन पर 2017 में बीजेपी के लिए बढ़त का मार्जिन कम था. एनडीए ने यूपी की 403 सीटों में से 55% सीटों पर 10% से अधिक के वोट अंतर के साथ जीत हासिल की. हालांकि, पूर्वांचल के 19 जिलों में पिछले दो चरणों में हुए मतदान में एनडीए ने 10% से अधिक अंकों के अंतर से 44% सीटों पर जीत हासिल की.
दूसरी ओर, इन जिलों में 31% सीटें बीजेपी ने 10% से कम के अंतर से जीती थीं, जबकि प्रदेश स्तर पर यह मार्जिन 26% था. इसका मतलब यह है कि बीजेपी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में सीटों को खो सकती है. जब मार्जिन कम होता है, तो मामूली उतार-चढ़ाव सभी परिणाम बदल देते हैं.
प्रदेश में अन्य इलाकों की तुलना में इन 19 जिलों में विपक्ष की स्थिति भी बेहतर है. 2017 में एनडीए को यूपी की सभी सीटों में से 19% का नुकसान हुआ था, लेकिन इन जिलों में उसे सभी सीटों में से 24% का नुकसान हुआ था.
ऐसा लगता है कि महाराजगंज, वाराणसी, मिर्जापुर और कुछ हद तक सोनभद्र, गोरखपुर, कुशीनगर और सिद्धार्थनगर जैसे जिलों में बीजेपी अभी भी बढ़त में है. दूसरी ओर, अंबेडकर नगर, आजमगढ़, संत कबीर नगर, गाजीपुर, जौनपुर, मऊ और भदोही में एसपी के नेतृत्व वाले गठबंधन को बढ़त मिल सकती है.
2. दलबदल और बदलते गठबंधन
इस क्षेत्र में प्रमुख जाति समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं ने बीजेपी को छोड़ दिया. बीएसपी से स्वामी प्रसाद मौर्य बीजेपी में आए. वे मौर्य-कुशवाहा-शाक्य समुदाय के नेता माने जाते हैं. अब वे बीजेपी को छोड़कर एसपी में आ चुके हैं.
2017 के चुनाव से बीजेपी की सहयोगी ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी अब एसपी के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा है. राजभर बीजेपी के गैर-यादव ओबीसी वोटर को लुभाने में सहायक माने जा रहे हैं. 2017 के चुनाव से पहले बीएसपी से बीजेपी में शामिल हुए नोनिया जाति के एक अन्य ओबीसी चेहरे दारा सिंह चौहान अब एसपी के साथ हैं और मऊ जिले के घोसी से चुनाव लड़ रहे हैं.
हालांकि, निषाद पार्टी जिसने 2017 में अलग से चुनाव लड़ा था और ज्ञानपुर सीट जीती थी, वह अब बीजेपी के साथ है. आजमगढ़ के सगड़ी से बीएसपी विधायक वंदना सिंह और कुशीनगर जिले से कांग्रेस के कुर्मी नेता आरपीएन सिंह जैसे नेता भी बीजेपी में शामिल हुए हैं.
एनडीए खेमे से एसपी को सिर्फ ओबीसी से फायदा नहीं हो रहा है. इसने बीएसपी के प्रमुख नेताओं को भी अपने साथ ले लिया है. इसका एक उदाहरण अंबेडकर नगर है जो पूर्वांचल में एसपी के लिए सबसे अधिक फायदा देने वाले जिलों में से एक हो सकता है. पिछली बार बीएसपी ने यहां की 5 में से 3 सीटें जीती थीं. जिले के कई प्रमुख बीएसपी नेता एसपी में शामिल हो गए हैं.
इसमें अकबरपुर विधायक और बीएसपी के पूर्व ओबीसी चेहरे राम अचल राजभर और कटेहरी से विधायक लालजी वर्मा हैं. साथ ही बीएसपी से एसपी में शामिल होने के बाद दलित नेता त्रिभुवन दत्त अलापुर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं.
अंबेडकर नगर से बीएसपी सांसद रितेश पांडे के पिता राकेश पांडे भी एसपी में शामिल हो गए हैं और जलालपुर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. गोरखपुर जिले में हरि शंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी बीएसपी से एसपी में चले गए हैं और चिल्लूपार से चुनाव लड़ रहे हैं. मऊ का प्रभावशाली अंसारी परिवार भी बीएसपी से एसपी में शिफ्ट हो गया है.
आजमगढ़ जिले की दीदारगंज सीट से बीएसपी के दिवंगत विधायक सुखदेव राजभर के बेटे कमल कांत राजभर अब एसपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.
मुंगड़ा बादशाहपुर से बीएसपी विधायक सुषमा पटेल भी अब एसपी में हैं और जौनपुर जिले की मड़ियाहूं सीट से चुनाव लड़ रही हैं.
3. क्या राजभर और मौर्य, गैर-यादव ओबीसी को एसपी की ओर ट्रांसफर कर सकते हैं?
जैसा कि पहले बताया गया है कि एसपी में शामिल होने वाले कई नेता अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव वोटर से अलग अपने समुदाय के वोट दिला सकते हैं.
अखिलेश यादव की सोशल इंजीनियरिंग की असल परीक्षा इन्हीं दो चरणों में है. क्या स्वामी प्रसाद मौर्य, गठबंधन के लिए कुशवाहा वोट दिलवा सकते हैं?
क्या राजभर, मौर्य, दारा सिंह चौहान और कृष्णा पटेल अपने-अपने समुदायों से वैसे ही वोट दिला सकते हैं जैसा कि जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोक दल ने पश्चिम यूपी के जाटों के बीच किया है?
यह आसान नहीं होगा. कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन से बीजेपी विरोधी माहौल के साथ-साथ गन्ना किसानों के भुगतान के कारण जो गुस्सा था, उससे आरएलडी को फायदा हुआ. पूर्वी यूपी के गैर-यादव ओबीसी के लिए ये स्थितियां नहीं हैं, हालांकि बढ़ती कीमतों और नौकरियों की कमी के कारण वोटर में एक निराशा है.
तो क्या ऐसी परिस्थितियों में राजभर वोट गठबंधन में शिफ्ट हो जाएगा?
इसे फूलपुर पवई सीट से समझते हैं, जहां एसपी ने विवादास्पद यादव नेता रमाकांत यादव को मैदान में उतारा है. वह बीजेपी के राजभर उम्मीदवार और बीएसपी और कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों के खिलाफ हैं.
फिर गाजीपुर जिले की जंगीपुर सीट पर एसपी के मौजूदा विधायक वीरेंद्र यादव बीजेपी के कुशवाहा उम्मीदवार और कांग्रेस के राजभर उम्मीदवार के खिलाफ हैं.
देखना होगा कि इन सीटों पर एसपी का नया गठबंधन काम करता है या नहीं. कुल मिलाकर, जमीनी रिपोर्टों से पता चलता है कि गैर-यादव ओबीसी का एसपी में ट्रांसफर बहुत ज्यादा नहीं, बल्कि कुछ हद तक हो सकता है.
4. बीएसपी से पलायन
बीएसपी के लिए आखिरी के दो चरण काफी महत्वपूर्ण हैं. 2017 के विधानसभा चुनावों में बीएसपी की 19 में से 11 सीटें इन्ही इलाकों से आई थी. हालांकि, दुर्भाग्य से बीएसपी के 11 में से 9 विधायक या तो खुद पार्टी से दूर चले गए हैं या उन्हें निकाल दिया गया. या उनके परिवार के सदस्य दूसरी पार्टियों में चले गए.
हम लालजी वर्मा, राम अचल राजभर, राकेश पांडे, त्रिभुवन दत्त, मुख्तार अंसारी, विनय शंकर तिवारी, सुषमा पटेल, वंदना सिंह और कमल कांत राजभर के बारे में बात कर चुके हैं.
इसके अलावा मुबारकपुर से विधायक शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली भी हैं, जिनका बीएसपी से मतभेद हो गया.
5. AIMIM और पीस पार्टी
कुछ समय के लिए ऐसा लग रहा था कि गुड्डू जमाली एसपी में शामिल हो जाएंगे, लेकिन बात नहीं बनी. वह अब ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं और उन्हें पार्टी के सबसे अच्छे उम्मीदवारों में से एक माना जा रहा है.
पार्टी के लिए एक अन्य जिताऊ उम्मीदवार उतरौला से डॉक्टर अब्दुल मन्नान हैं. मन्नान बलरामपुर जिले के एक सम्मानित डॉक्टर हैं. कम पैसों में गरीब मरीजों का इलाज करते हैं. वह पीस पार्टी से एआईएमआईएम में शामिल हुए. पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ अयूब भी संत कबीर नगर जिले के खलीलाबाद से चुनाव लड़ रहे हैं. उन्होंने 2012 में यह सीट जीती थी.
हालांकि, एआईएमआईएम और पीस पार्टी दोनों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. मुस्लिम मतदाताओं के एक बड़े वर्ग में एसपी के नेतृत्व वाले गठबंधन का समर्थन करने की भावना है.
6. वाराणसी में कांग्रेस की संभावनाएं और उसका मिशन
छठे और सातवें चरण में कांग्रेस के पास कुछ उम्मीदवार हैं, जो फाइट करते दिख रहे हैं, उनमें अजय कुमार लल्लू, कुशीनगर जिले के तमकुहीराज से मौजूदा विधायक हैं. कुछ अन्य उम्मीदवारों में रुद्रपुर से अखिलेश प्रताप सिंह, जौनपुर से नदीम जावेद, फरेंदा से वीरेंद्र चौधरी और टांडा से सैयद मिर्जा उद्दीन हैं.
हालांकि कांग्रेस के लिए सबसे दिलचस्प चुनाव प्रचार वाराणसी जिले में होता दिख रहा है. पार्टी जिस जिले में पीएम नरेंद्र मोदी की सीट पड़ती है, वहां सेंध लगाना चाहती है. प्रियंका गांधी वाड्रा इस जिले में खूब प्रचार कर रही हैं. पार्टी की उम्मीद दो प्रमुख सवर्ण चेहरों पर टिकी है, वाराणसी के पूर्व सांसद राजेश मिश्रा, जो वाराणसी छावनी से चुनाव लड़ रहे हैं और अजय राय.
छठे और सातवें चरण में 111 सीटों पर मतदान है. 84 एनडीए के पास, 13 एसपी के पास, 11 बीएसपी के पास है. कम मार्जिन और बदलते गठबंधनों की वजह से एनडीए 65 सीट बचा सकती है. दूसरी ओर एसपी गठबंधन इन चरणों में अधिक सीट गेन करने की कोशिश करेगा. एसपी गठबंधन 40 से अधिक सीटें हासिल करने की उम्मीद कर सकता है.
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