उत्तराखंड में एक बार फिर सियासी उठापटक देखने को मिली है. सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी आखिरकार चली गई है. रावत ने खुद मीडिया को इस बात की जानकारी दी कि वो इस्तीफा दे रहे हैं. सीएम रावत के खिलाफ विरोधी गुट के सुर लगातार तेज होते चले गए और इस बार पार्टी आलाकमान के कानों तक भी बात पहुंच गई, जिसके बाद खुद सीएम को दिल्ली तलब किया गया. दिल्ली में रावत को हटाए जाने के फैसले पर मुहर लगाई गई. भले ही इस नाटक का पर्दा अब जाकर गिरा हो, लेकिन इसकी स्क्रिप्ट काफी पहले से लिखी जा रही थी. जानिए उत्तराखंड बीजेपी में मचे इस सियासी घमासान की पूरी कहानी.
पुरानी नाराजगी, नई बगावत
मार्च 2017 में उत्तराखंड ने सत्ता परिवर्तन कर बीजेपी के हाथों में राज्य की कमान सौंप दी. 70 विधानसभा सीटों में से 56 सीटें जीतने के बाद मुख्यमंत्री को लेकर अटकलें शुरू हुईं. शुरुआत में सीएम पद के लिए जिन टॉप-5 नामों की चर्चा थी, उनमें त्रिवेंद्र सिंह रावत का नाम शामिल नहीं था. लेकिन पार्टी आलाकमान की तरफ से त्रिवेंद्र सिंह रावत को आगे किया गया और उनके नाम पर मुहर लगाई गई.
त्रिवेंद्र सिंह रावत को सीएम पद के लिए चुना जाना एक चौंकाने वाला फैसला था. इसका सबसे बड़ा कारण ये था कि त्रिवेंद्र सिंह रावत आरएसएस के काफी करीब थे. वो करीब दो दशक तक संघ के प्रचारक रहे. साथ ही उन्हें अमित शाह का भी करीबी बताया जाता है.
अब पार्टी आलाकमान के इस फैसले से ही उत्तराखंड बीजेपी नेताओं में नाराजगी शुरू हो गई. सबसे ज्यादा नाराज वो नेता दिखे, जो कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए थे. कद्दावर नेता हरक सिंह रावत और सतपाल महाराज जैसे नेताओं के समर्थक इस फैसले से नाराज दिखे.
क्यों खतरे में आई त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी?
उत्तराखंड बीजेपी में पिछले चुनावों में जीत के बाद से ही नेताओं के नाराज होने का सिलसिला शुरू हो चुका था. जिसके बाद सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की कार्यशैली ने इसे लगातार बढ़ाने का काम किया.
त्रिवेंद्र सिंह रावत के सीएम बनने के बाद उनके तमाम फैसलों से भी पार्टी के नेता नाराज चलने लगे. मंत्री और विधायकों ने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि रावत के नेतृत्व में उनकी बात नहीं सुनी जा रही है. साथ ही रावत के कामकाज के तरीके को लेकर भी विरोध के सुर उठने लगे. पार्टी में दो धड़े बनने की खबरें आने लगीं. हालांकि खुलकर किसी ने भी विरोध नहीं किया. लेकिन पिछले दिनों हुई कुछ घटनाओं ने त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ बने माहौल को और मजबूत किया, जिसके बाद नाराज विधायकों ने दिल्ली में डेरा डाल लिया. जानिए क्या थे वो बड़े कारण-
- सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत पर मंत्री और विधायक आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने कुछ खास अफसरों को खुली छूट दी है और पहाड़ के अफसरों की उपेक्षा करने का काम किया.
- मंत्रिमंडल में लंबे समय से खाली पड़े पदों को सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने नहीं भरा. इसकी मांग विधायक लगातार कर रहे थे, जिसे अनदेखा किया जा रहा था.
- हाल ही में सीएम रावत ने उत्तराखंड की अस्थाई राजधानी गैरसैण को मंडल बनाने का ऐलान किया. जिसका पार्टी के बड़े नेताओं ने विरोध किया और कहा कि बिना विचार-विमर्श के ही फैसला किया गया है.
- सड़क चौड़ी करने को लेकर करीब तीन महीने से प्रदर्शन कर रही महिलाओं पर गैरसैण में जमकर लाठीचार्ज किया गया, क्योंकि वो बजट सत्र के दौरान विधानसभा का घेराव करने आईं थीं.
- आम जनता के प्रति सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत का व्यवहार भी इस नाराजगी की बड़ी वजह बताया जा रहा है. इसे लेकर विपक्ष भी उनके कई ऐसे वीडियो वायरल करता आया है, जिनमें सीएम खुद जनता से भिड़ते हुए दिख रहे हैं.
सीएम रावत का एक वीडियो सबसे ज्यादा वायरल हुआ, जिसमें वो एक महिला सरकारी टीचर को सस्पेंड करने के आदेश देते हुए दिख रहे हैं और पुलिस से उसे बाहर निकालने और हिरासत में लेने को कहते दिख रहे हैं. इस वीडियो को लेकर सीएम की जमकर आलोचना भी हुई थी.
कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया कोई बीजेपी सीएम
भले ही त्रिवेंद्र सिंह रावत के कामकाज को लेकर शुरुआत से ही सवाल खड़े हो रहे हों, लेकिन हर बार उठे विरोध के सुरों को रावत ने केंद्र तक सीधी पहुंच के चलते दबा दिया. रावत को लेकर कहा जा रहा था कि वो इतिहास रचने जा रहे हैं. क्योंकि अगर वो इस्तीफा नहीं देते तो वो पहले ऐसे बीजेपी मुख्यमंत्री बनते जिसने अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया हो. बता दें कि इस छोटे राज्य ने 20 साल में 9 मुख्यमंत्री देखे हैं.
इसका कारण ये रहा है कि बीजेपी में हर सीएम के खिलाफ विरोध के सुर उठते आए हैं. साल 2000 में उत्तराखंड की स्थापना के साथ ही बीजेपी ने सरकार बनाई, नित्यानंद स्वामी ने सीएम पद की शपथ ली, लेकिन वो सीएम की कुर्सी पर अपना एक साल भी पूरा नहीं कर पाए. बीजेपी नेताओं के विरोध के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इसके बाद अक्टूबर 2001 में भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना गया. क्योंकि ये अंतरिम सरकार थी, इसीलिए 2002 में विधानसभा चुनाव हुए और बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस सत्ता में आई और नारायण दत्त तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने. तिवारी उत्तराखंड में अब तक के पहले ऐसे सीएम हैं जिन्होंने अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया.
अब 2007 में फिर चुनाव हुए और जनता ने सत्ता परिवर्तन कर बीजेपी को पूर्ण बहुमत दिया. लेकिन इस पांच साल के कार्यकाल में बीजेपी ने तीन बार मुख्यमंत्री बदले. 2007 में सबसे पहले भुवन चंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन जून 2009 में बीजेपी ने उन्हें हटाकर रमेश पोखरियाल निशंक को सीएम की कुर्सी दे दी. करीब तीन साल तक निशंक मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उन पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे. 2012 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी ने सितंबर 2011 में निशंक को हटाकर एक बार फिर ईमानदार छवि वाले खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया. खंडूरी के नाम से पार्टी चुनाव में जाना चाहती थी, लेकिन ये पैंतरा काम नहीं आया और बीजेपी की करारी हार हुई.
2012 विधानसभा चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस ने विजय बहुगणा को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन करीब 2 साल बाद 2014 में उन्हें हटाकर हरीश रावत को सीएम की कुर्सी दे दी गई. हरीश रावत कार्यकाल काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. पार्टी के विधायकों ने ही बगावत छेड़ दी, जिसके चलते कुछ समय के लिए 2016 में राष्ट्रपति शासन भी लगाया गया. लेकिन हाईकोर्ट ने इस फैसले को रद्द कर दिया, जिसके बाद अगले चुनाव तक हरीश रावत ने ही सत्ता संभाली.
साल 2017 में बीजेपी फिर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई और त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया. सीएम रावत अपना 4 साल का कार्यकाल पूरा कर चुके हैं, जो किसी भी बीजेपी सीएम का सबसे ज्यादा कार्यकाल है.
क्या कुर्सी बचा पाएंगे सीएम रावत?
सीएम रावत के खिलाफ उठने वाले सुर पहले तो राज्य स्तर पर ही दबा दिए जाते थे, लेकिन इस बार बात दिल्ली तक पहुंच गई. पार्टी के करीब आधे विधायक दिल्ली पहुंचे, जहां उन्होंने रावत के खिलाफ आलाकमान को शिकायत की. इस शिकायत पर बीजेपी आलाकमान ने संज्ञान भी लिया और पर्यवेक्षक के रूप में छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह और उत्तराखंड के प्रभारी महासचिव दुष्यंत गौतम को भेजा गया. दोनों ने तमाम विधायकों और मंत्रियों से बातचीत कर दिल्ली में अपनी रिपोर्ट दी.
पर्यवेक्षकों की इस रिपोर्ट को लेकर दिल्ली में गृहमंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष ने बैठक की. पार्टी नेतृत्व से मिलने की चाह में दिल्ली पहुंचे सीएम रावत को पहले तो मिलने का वक्त नहीं मिला, लेकिन देर रात जेपी नड्डा ने उनसे मुलाकात की.
सीएम और नड्डा की मुलाकात के बाद प्रदेश बीजेपी प्रवक्ताओं ने मोर्चा संभाला और कहा कि सब ठीक ठाक है. लेकिन किसी के भी बयान में वो विश्वास नजर नहीं आया, यानी अब तक ये साफ नहीं है कि रावत अपनी कुर्सी बचा पाए हैं या फिर वो खुद इस्तीफा देने वाले हैं. फिलहाल सीएम रावत दिल्ली से देहरादून पहुंचे हैं और अब जल्द ही स्थिति साफ होने की उम्मीद है.
सीएम की रेस में कौन आगे?
अब अगर उत्तराखंड के सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी जाने के बाद सबसे बड़ा सवाल ये है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा? इसके लिए सबसे बड़ा नाम राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी का सामने आ रहा है. बलूनी की केंद्र से लेकर उत्तराखंड तक काफी मजबूत पकड़ है. साथ ही वो युवाओं में भी काफी पसंद किए जाते हैं. बताया गया है कि बलूनी की पार्टी आलाकमान से भी मुलाकात हुई है, जिसके बाद सीएम की रेस में सबसे आगे उनका ही नाम सामने आ रहा है.
बलूनी के अलावा इस रेस में दूसरा सबसे बड़ा नाम प्रदेश के शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत का सामने आ रहा है. वहीं नैनीताल से सांसद अजय भट्ट और कांग्रेस से बीजेपी में शामिल हुए सतपाल महाराज भी रेस में बने हुए हैं.
हालांकि बीजेपी ने तमाम नफा नुकसान को देखते हुए ही सीएम बदलने का फैसला लिया. क्योंकि अगले साल की शुरुआत में ही उत्तराखंड में चुनाव होंगे, ऐसे में सीएम बदलने से पार्टी को नुकसान की खबरें तो थीं, लेकिन अगर त्रिवेंद्र सिंह रावत के रहने से पार्टी में फूट पड़ती और बड़े नेता टूटते तो ये और भी बड़ा नुकसान होता. इसीलिए अब उत्तराखंड की राजनीति ने एक बार फिर अपना पुराना इतिहास दोहराया है.
बीजेपी में हलचल का AAP फैक्टर
अब आप सोच रहे होंगे कि बीजेपी में चल रही इस उठापटक में आम आदमी पार्टी कहां से आ गई? तो आपको बता दें कि इस तमाम सियासी घमासान में AAP का एक बड़ा रोल है. आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड में चुनाव लड़ने के ऐलान के साथ ही तेजी से जनता तक पहुंचना शुरू कर दिया. AAP ने सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ भी मुहिम छेड़ दी. जहां उत्तराखंड के सियासी अखाड़े में सिर्फ दो पार्टियां राज करती आई थीं, वहीं अब AAP की एंट्री से दंगल और दिलचस्प हो चुका है. कांग्रेस के कई कद्दावर नेताओं ने पिछले चुनाव से पहले बीजेपी का दामन थामा था, लेकिन आज तक उन्हें पार्टी में वो जगह नहीं मिल पाई, जो वो चाहते थे. जिसके बाद कांग्रेस में वापसी का एक विकल्प उनके सामने था, लेकिन बगावत कर वापस जाने से वहां भी जगह बनाने में वक्त लगता.
लेकिन आम आदमी पार्टी के आने से इन नेताओं की बार्गेनिंग पावर और ज्यादा बढ़ गई. कई नेताओं के AAP में शामिल होने की अफवाहें उड़ाई गईं, जिससे बीजेपी में हलचल शुरू हो गई. क्योंकि आम आदमी पार्टी में अब तक उत्तराखंड का कोई बड़ा नेता शामिल नहीं है, इसीलिए अगर बीजेपी के ये बड़े नेता इस नई पार्टी में शामिल होते हैं तो उन्हें वो जगह मिल सकती है, जिसका वो लंबे समय से इंतजार कर रहे हैं. अगर ऐसा हुआ तो ये बीजेपी के लिए एक बड़ा झटका साबित होगा. इससे बीजेपी उत्तराखंड में सबसे बड़े वोट बैंक ठाकुर वोट को गंवा सकती है. इसीलिए उत्तराखंड का ये सियासी खेल अब वाकई दिलचस्प हो चुका है.
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