योगी सरकार ने अचानक भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर रावण को रिहा करने का फैसला क्यों लिया? चंद्रशेखर तो उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार के खिलाफ जमकर अभियान चला रहे हैं फिर भी नरमी दिखने की वजह राजनीतिक और 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी से जुड़ी लगती है.
जानकारों के मुताबिक बीएसपी और एसपी के साथ आने के बाद बीजेपी को बड़ा दांव खेलना जरूरी था और मुमकिन है ये उसी स्ट्रैटेजी का हिस्सा है. चंद्रशेखर की गिरफ्तारी और रिहाई में बीजेपी का क्या दांव है और इसमें मायावती कैसे पिक्चर में आती हैं. इसकी कहानी बेहद दिलचस्प है बस आपको करीब एक साल पीछे जाना होगा.
तारीख 23 मई 2017. बीएसपी सुप्रीमो मायावती को दोपहर करीब दो बजे सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव पहुंचना था. इस गांव से उनका करीब 40 साल पुराना है. उस समय मायावती ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत ही की थी. उस दौर में उनकी कई रातें शब्बीरपुर की हरिजन बस्ती में गुजरी थीं. शायद यही वजह थी कि गांव के दलित अपनी ‘भेन जी’ से गहरा कनेक्ट महसूस करते थे.
चंद्रशेखर के इलाके में मायावती
मई 2017 में मायावती का यह दौरा पिछले दौरों से अलग था. 5 मई को महाराणा प्रताप जयंती के दौरान यह गांव ठाकुरों और दलितों के बीच जंग का मैदान बना था. दलित बिरादरी के लोगों पर हमले और उनके घरों में आगजनी के विरोध में स्थानीय दलित संगठन 'भीम आर्मी' ने 9 मई को सहारनपुर में प्रदर्शन किया था. इस प्रदर्शन से संगठन और इसके नेता चंदशेखर आजाद 'रावण' राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बन चुके थे. 21 मई 2017 को चंद्रशेखर आजाद रावण ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर भीम आर्मी के बैनर तले हजारों लोगों की रैली ने बड़ी सियासी हलचल पैदा कर दी थी. राजनीतिक विश्लेषक इसे उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति में बदलाव के बड़े संकेत के तौर पर पढ़ रहे थे.
मायावती चंद्रशेखर रावण की दिल्ली रैली के दो दिन बाद सहारनपुर पहुंची थीं. उनके पहुंचने से पहले ही गांव के ठाकुरों के कुछ घरों में आगजनी हुई थी. माहौल में तनाव था. चीजें तेजी से बदल रही थीं. उनके सभा में आने से पहले वहां जमा हुए लोग 'बहन मायावती जिंदाबाद' की जगह 'चंद्रशेखर रावण जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे. शब्बीरपुर गांव में दिए गए मायावती के भाषण का एक हिस्सा ऐसा था जिसके जरिए हम चंद्रशेखर रावण की हालिया रिहाई के राजनीतिक मायने समझ सकते हैं. मायावती ने बसपा की जरुरत पर बात करते हुए कहा-
“बहुत सारे छोटे-छोटे संगठन दलितों की भलाई के लिए काम कर रहे हैं. इन्हें पार्टी के बैनर तले आना चाहिए.”
मायावती का इशारा साफ तौर पर भीम आर्मी की तरफ था. भीम आर्मी जो दलित राजनीति के मैदान में उनके सामने खुली चुनौती के तौर पर खड़ी थी.
इतिहास का सबक
भारत में महाराष्ट्र दलित राजनीति गढ़ रहा है. बाबा साहेब अंबेडकर की मौत के कुछ ही महीनों बाद उनके अनुयायियों ने अक्टूबर 1957 में 'रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया' की स्थापना की थी. सत्तर का दशक आते-आते RPI अपनी राजनीतिक धार खोने लगी थी. कांग्रेस के साथ समझौता आम था.
इस बीच महराष्ट्र में दलितों की पहली खेप कॉलेज तक पहुंच पाने में कामयाब रही थी. पढ़ाई के दौरान ये युवा मार्क्सवाद से लेकर ब्लैक पैंथर्स मूवमेंट के बारे में पढ़कर समता और सामाजिक न्याय के विचारों से आक्रामक तेवर में आ चुके थे.
दलितों ने कलम पकड़ी उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ था. महाराष्ट्र के सबसे बेहतरीन दलित कवि इसी दौर में पैदा हुए. राजे ढाले, नामदेव ढसाल,अविनाश महतेकर और जेवी पंवार जैसे कवि शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ कलम से मोर्चा खोले हुए थे. इस बैचेन युवाओं में RPI लीडरशिप के खिलाफ गजब का गुस्सा था.
1972 में भी 2017 जैसा हुआ था
साल 1972 दलित राजनीति के लिहाज से काफी हलचल भरा था. राजा ढाले अपनी विद्रोही कलम की वजह से दलित युवाओं में काफी लोकप्रिय हो चुके थे. पुलिस ने उन्हें वर्ली की एक सभा में भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद हजारों दलित सड़कों पर आ गए. पुलिस की गोलीबारी में 15 दलित युवकों की मौत हो गई. इसके बाद यह संगठन महाराष्ट्र के कोने-कोने में फैल गया. हालांकि बाद में इसके नेताओं ने अपने लिए अलग राजनीतिक राह चुन ली.
बीएसपी के लिए क्यों है खतरा
पिछले तीन चुनाव बीएसपी के लिए अच्छे नहीं रहे हैं. 2012 और 2017 के विधानसभा में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो उसका खाता भी नहीं खुला. ऐसे राज्य के दलितों को लगता है कि वो दो दशक में पहली बार हाशिए पर खड़े हैं. अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी उपाध्यक्ष बनाने की वजह से मायावती की दलितों के बीच विश्वसनीयता को भी धक्का लगा. शायद इसी वजह से कुमार को बाद में पद से हटा दिया गया.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश वो जगह रही है जिसने राज्य की दलित राजनीति को शुरूआती जमीन मुहैय्या करवाई. वहां से भीम आर्मी जैसे संगठन का खड़ा होना बसपा के लिए फिक्र का विषय हो सकता है. हालांकि कैराना उप-चुनाव के दौरान चंद्रशेखर रावण ने जेल से एसपी -बीएसपी गठबंधन की उम्मीदवार तबस्सुम हसन को समर्थन करने की अपील की थी, लेकिन इससे बीएसपी के खिलाफ उनकी चुनौती को खत्म मान लेना जल्दबाजी होगी.
चंद्रशेखर को आजाद करने में बीजेपी को क्या फायदा?
2014 के बाद से ही दलित वोट बीजेपी के एजेंडे में टॉप पर हैं. नरेंद्र मोदी ने कुछ ही महीनों पहले 200 करोड़ की लागत से बने अंबेडकर स्मारक का उद्घाटन किया है. नए एससी एसटी एक्ट को भी इसी कड़ी में जोड़कर देखा जा सकता है. चंद्रशेखर आजाद को जून 2017 में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था. इसके तहत उनको ज्यादा से ज्यादा 1 नवंबर तक गिरफ्तार रखा जा सकता था. यह मियाद पूरी होने के कुछ महीने पहले रावण को छोड़कर बीजेपी दलितों के बीच अपनी छवि बेहतर करने की कोशिश करेगी.
कैराना, फूलपुर और गोरखपुर के चुनाव में बीजेपी को करारी मात झेलनी पड़ी है. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश से 72 सीटें हासिल हुई थीं जिसने उसके लिए दिल्ली की सत्ता का दरवाजा खोल दिया था. अगर अगले लोकसभा चुनाव में एसपी और बीएसपी में गठबंधन होता है तो बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली हैं. चंद्रशेखर रावण और उनका संगठन अगर चुनाव का रास्ता चुनते हैं तो यह सीधे तौर पर बीएसपी की वोट बैंक में सेंध साबित होगा. ऐसे में चंद्रशेखर रावण का उभार बीजेपी के फायदे का सौदा साबित हो सकता है.
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