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कामराज प्लान, जिसे मुश्किल वक्त में कांग्रेस ने बनाया था ‘हथियार’

जानिए कितना सफल रहा था कामराज प्लान?

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13 जनवरी 1966 की रात. दिल्ली के 4, जंतर मंतर रोड बंगले पर सिंडिकेट के नेताओं की बैठक चल रही थी. सिंडिकेट गैर-हिंदी भाषी कांग्रेसी नेताओं का ग्रुप था, जो इस बैठक में एक नेता पर प्रधानमंत्री बनने के लिए दबाव बना रहा था. उस नेता का नाम था- कुमारस्वामी कामराज.

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बैठक के दौरान कामराज ने कहा, ''नो हिंदी, नो इंग्लिश, हाउ?'' दरअसल कामराज महज तमिल भाषा को लेकर ही सहज थे. ऐसे में उन्होंने भारत का प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया. तीन बार मद्रास के मुख्यमंत्री रहे कामराज को इस किस्से के अलावा एक और चीज के लिए सबसे ज्यादा याद किया है, वो है- कामराज प्लान.

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किसे कहते हैं कामराज प्लान?

1962 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को लगातार तीसरी बार जीत मिली. जवाहर लाल नेहरू लगातार चौथी बार देश के प्रधानमंत्री बने. इसके कुछ ही महीनों बाद चीन के साथ भारत का युद्ध हुआ. इस युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद नेहरू की विदेश नीति पर सवाल उठने लगे. उधर वित्त मंत्री मोरारजी देसाई ने देश की जनता पर भारी टैक्स का बोझ डाल दिया. ऐसे में जनता के बीच कांग्रेस को लेकर भरोसा डगमगाने लगा. इसकी झलक तब दिखी, जब 1963 में हुए 3 लोकसभा उपचुनावों में कांग्रेस हार गई.

कांग्रेस की आधिकारिक वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक, (संकट की इस घड़ी में) कामराज ने नेहरू को एक प्लान सुझाया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को सरकार में अपने पद छोड़कर पार्टी के लिए काम करना चाहिए.

इस प्लान को कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने मंजूरी दे दी और 2 महीने के अंदर ही यह लागू हो गया. खुद कामराज ने इसी प्लान के तहत 2 अक्टूबर 1963 को मद्रास के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

उस दौरान कामराज, बीजू पटनायक और एसके पाटिल सहित 6 मुख्यमंत्रियों और मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और लाल बहादुर शास्त्री सहित 6 मंत्रियों ने अपने पद छोड़े थे. इसके बाद ये सभी पार्टी के लिए काम करने में जुट गए. सरकार में पद छोड़कर पार्टी में काम करने के इसी प्लान को कामराज प्लान कहा जाता है.

कितना सफल रहा था कामराज प्लान?

60 के दशक में कामराज प्लान सफल रहा या नहीं, इसे दो पहलुओं के आधार पर देखा जाता है:

  • 1962 में कांग्रेस ने 488 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से उसे 361 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. जबकि 1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 516 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिनमें से उसे 283 सीटें ही मिलीं. इस तरह कांग्रेस के प्रदर्शन में गिरावट आई. इस पहलू को ध्यान में रखकर कामराज प्लान को सफल नहीं कहा जा सकता.
  • दूसरे पहलू के हिसाब से कामराज प्लान को वक्त की जरूरत के तौर पर देखा जाता है. दिवंगत पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा बियॉन्ड द लाइन्स में लिखा है- ''चीन पर अपनी नीति को लेकर नेहरू कई प्रमुख कैबिनेट मंत्रियों की कटु आलोचना से आहत महसूस कर रहे थे. तभी कामराज ने सुझाव दिया कि कैबिनेट के सदस्यों को संस्थागत काम करके पार्टी को मजबूत करना चाहिए. मेरी अपनी सूचना थी कि यह नेहरू का विचार था और कामराज इसे अभिव्यक्त कर रहे थे. दो प्रमुख आलोचकों मोरारजी देसाई और जगजीवन राम के साथ-साथ शास्त्री को भी कैबिनेट से हटाकर पार्टी के काम में लगा दिया गया.''
इसके अलावा कुलदीप नैयर ने कामराज प्लान को लेकर लिखा है- ‘’मैंने शास्त्री से पूछा कि नेहरू के प्रति इतने वफादार होने के बावजूद उन्हें क्यों निशाना बनाया गया था. उन्होंने जवाब दिया कि पंडितजी को मजबूरी में ऐसा करना पड़ा था, ताकि यह न लगे कि अपने आलोचकों से पीछा छुड़ाने के लिए ही उन्होंने कामराज प्लान रचा था.’’

कामराज प्लान लागू होने के बाद 9 अक्टूबर 1963 को कुमारस्वामी कामराज कांग्रेस के अध्यक्ष बना दिए गए. वहीं नेहरू ने शास्त्री को बिना विभाग का मंत्री बना दिया और शास्त्री उपप्रधानमंत्री की तरह काम करने लगे. पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी के मुताबिक, ऐसा करके नेहरू ने शास्त्री को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था. कुछ समय पहले तक जिस कांग्रेस में कलह के आसार दिख रह थे, उसमें बिना किसी टकराव के ये बदलाव हो जाना छोटी बात नहीं थी.

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