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यूपी चुनाव: त्रिशंकु विधानसभा हुई तो क्या होगी नई सरकार की सूरत?

अगर किसी एक पार्टी को बहुमत न मिला तो क्या होगा? कौन से नए समीकरण बनेंगे? कौन से पुराने रिश्ते टूटेंगे?

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2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजों की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. स्टॉक मार्केट से फिश मार्केट तक और सट्टा बाजार से हाट बाजार तक, हर जगह कयास लग रहे हैं कि लॉटरी आखिर किस पार्टी की लगेगी. यूं तो तमाम पार्टियां बंपर बहुमत का दावा कर रही हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि अगर किसी एक पार्टी को बहुमत न मिला तो क्या होगा?

कौन से नए समीकरण बनेंगे? कौन से पुराने रिश्ते टूटेंगे?

साहब, राजनीति संभावनाओं का खेल है. तो आइए, संभावनाओं के इस समंदर में हम भी गोता लगाते हैं और समझते हैं कि उत्तर प्रदेश में कौन सा ‘मैजिक फिगर’ अल्पमत के बावजूद थोड़े-बहुत ‘जुगाड़’ से सत्ता तक पहुंचा ही देगा?

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सीन-1

भारतीय जनता पार्टी, अपना दल और भारतीय समाज पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ी है. ध्रुवीकरण, नोटबंदी, टिकट बंटवारे पर घमासान जैसे स्पीड ब्रेकरों से निकलकर अगर बीजेपी नंबर एक पार्टी बन भी गई तो इसके सामने विकल्प थोड़े कम हैं. समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन तो नदी का दूसरा किनारा है ही. मायावती भी लगातार घोषणा करती रही हैं कि वो बीजेपी से किसी हाल में हाथ नहीं मिलाने वालीं.

छोटे दल और निर्दलियों का साथ

ऐसी सूरत में सरकार बनाने के लिए बीजेपी को सहयोगियों के साथ कम से कम 165 सीटें जीतनी पड़ेंगी. इसके बाद अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल, निषाद पार्टी (अगर कोई सीट जीती तो) जैसी छोटी पार्टियां और निर्दलियों का साथ बीजेपी को 203 के मैजिक फिगर के थोड़ा नजदीक पहुंचा सकता है.

विधायकों की खरीद-फरोख्त

इसके बाद जरूरत पड़ने पर दूसरी पार्टियों में तोड़फोड़ की कोशिश भी बीजेपी की तरफ से जरूर होगी. हालांकि दल-बदल कानून के तहत दो तिहाई विधायकों को तोड़ना बेहद मुश्किल है लेकिन पैसे और रसूख के दम पर बीजेपी, बीएसपी के गैर-मुस्लिम विधायकों में सेंध लगा भी दे तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. इसमें ये देखना अहम होगा कि बीएसपी के 97 मुस्लिम उम्मीदवारों में से कितने जीतते हैं.

सीन-2

अगर बीएसपी नंबर एक पार्टी बनी तो सरकार में शामिल होने के लिए निर्दलीय और आरएलडी तो साथ आ ही जाएंगे. इसके अलावा 38 सीटों पर लड़ रही असदुद्दीन औवेसी की पार्टी (AIMIM) के हाथ कोई सीट लगी तो वो भी मायावती का साथ देने में गुरेज नहीं करेंगे.

कांग्रेस का हाथ, हाथी के साथ?

कांग्रेस चुनाव से पहले भले ही समाजवादी पार्टी के साथ हो लेकिन याद कीजिए कि अखिलेश के साथ पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी ने मायावती की तारीफ ही की थी. पूरे चुनाव प्रचार के दौरान भी राहुल और मायावती ने एक-दूसरे पर तीखे हमले नहीं किए. ये सीधा इशारा है कि दोनों पार्टियों ने चुनाव के बाद हाथ मिलाने के दरवाजे खुले रखे हुए हैं.

तीसरी बार, बीजेपी-बीएसपी सरकार?

अल्पमत की सूरत में भी बीएसपी और बीजेपी के मिलने के आसार बेहद कम हैं. न तो मायावती जूनियर पार्टनर बनना चाहेंगीं और न ही बीजेपी. वैसे साल 1997 और साल 2002 में बीएसपी और बीजेपी साथ सरकार बना चुके हैं लेकिन दोनों ही तजुर्बे बेहद खराब रहे थे और सरकारें ज्यादा नहीं चल पाईं थीं.

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सीन-3

बहुमत न मिलने के बावजूद अगर सपा-कांग्रेस गठबंधन को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं तो दिलचस्प समीकरण सामने आ सकते हैं. हालांकि चुनावों से पहले आरएलडी सपा-कांग्रेस गठबंधन में नहीं घुस पाई लेकिन जरूरत पड़ने पर चुनावों के बाद का साथ मुश्किल नहीं होगा. इसके अलावा निषाद पार्टी, पीस पार्टी (अगर कोई सीट जीती तो) और निर्दलीय तो हैं हीं.

मोहब्बत और सियासत में सब जायज

यूं तो पिछले 22 साल से समाजवादी पार्टी और बीएसपी एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं. लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं. जानकारों का मानना है कि सांप्रदायिक ताकतों को दूर रखने के नाम पर सपा-कांग्रेस गठबंधन और बीएसपी जैसे धुर विरोधी भी हाथ मिला सकते हैं. हालांकि इसमें मुश्किल ये है कि कम सीटों के बावजूद मायावती जूनियर पार्टनर बनने को तैयार नहीं होंगी. ऐसे में मायावती सरकार को बाहर से समर्थन देने जैसा कोई फॉर्मूला निकाला जा सकता है. यानी जो महागठबंधन चुनाव से पहले नहीं बन पाया वो नतीजों के बाद बन सकता है.

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किंगमेकर कांग्रेस?

इन बिखरे हुए समीकरणों के बीच हर किसी की नजर कांग्रेस पार्टी पर भी है. यूपी में 105 सीटों पर लड़ रही कांग्रेस अगर 30 या उससे ज्यादा सीटें लाने में कामयाब हो गई तो किंगमेकर की भूमिका में आ जाएगी.

30 से ज्यादा सीटों के साथ कांग्रेस गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री और अहम मंत्री पदों की मांग कर सकती है. वहीं दूसरी तरफ मायावती के साथ भी कांग्रेस की सौदेबाजी की ताकत बढ़ जाएगी.

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