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झारखंड चुनाव का मूड देखकर अमित शाह ने हेमंत सोरेन को कैसे पुचकारा

झारखंड में एनडीए बिखरा हुआ है और हर पार्टी अलग-अलग चुनाव लड़ रही है

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भारतीय जनता पार्टी झारखंड में अब 65 या 75 पार की नहीं बल्कि सिर्फ 40 पार पहुंचने का टारेगट लेकर ही चल रही है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को झारखंड के अपने पहले चुनावी दौरे पर कठिनाइयों का आभास जरूर हो गया होगा. अगर ऐसा न होता तो अमित शाह हेमंत सोरेन को पुचकारने वाले अंदाज में संबोधित न करते. एनडीए बिखरा हुआ है और हर पार्टी अलग-अलग चुनाव लड़ रही है.

भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने के लिए जाने जाने वाले सरयू राय पार्टी से विद्रोह कर मुख्यमंत्री रघुबर दास के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं.

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2014 में AJSU के सहारे बहुमत हासिल करने वाली बीजेपी से इस बार सुदेश महतो की पटरी नहीं बैठी. रघुबर को लेकर राज्य और पार्टी में भी असंतोष है. राजस्थान की तर्ज पर यहां भी जहां-तहां सुनने को मिल रहा है कि ‘रघुबर तेरी खैर नहीं, मोदीजी से बैर नहीं’. ऐसे में अगर अमित शाह अपनी सभा में पंडाल भी भरा हुआ न पाएं तो माथे पर चिंता की लकीरें उभरना स्वाभाविक है. अमित शाह के चेहरे पर लोहरदगा की सभा में यह चिंता साफ झलक रही थी.

इन 5 प्वाइंट्स से चुनाव में बीजेपी की मौजूदा स्थिति को समझा जा सकता है-

1. रघुबर दास लोहरदगा में जेएमएम नेता हेमंत सोरेन पर हमलावर नहीं हुए. यही नहीं बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने हेमंत को पुचकारते हुए कहा - ‘‘मैं हेमंत भाई से कहना चाहूंगा कि किन लोगों के साथ खड़े हैं. उन लोगों के साथ जिन्होंने झारखंड राज्य बनाने के लिए संघर्ष करने वाले आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाईं.’’

अमित शाह की इस भाषा का मतलब साफ है कि 2009 जैसी स्थितियां हुईं तो हेमंत काम आ सकते हैं और इसलिए उनको पुचकारते रहने की जरूरत है. यानी अगर बीजेपी की सीटें बहुमत के आकड़े से काफी नीचे रहती हैं तो हेमंत काम आ सकते हैं.

इसके अलावा, गौरतलब यह भी है कि एजेएसयू सुप्रीमो सुदेश महतो के क्षेत्र सिल्ली से बीजेपी उम्मीदवार नहीं उतार रही है. संकेत साफ हैं, 2009 में बीजेपी को 18, जेएमएम को 18, कांग्रेस को 14, जेवीएम को 19 और एजेएसयू को 5, आरजेडी को 5 और जेडीयू को 2 सीटें मिली थीं. उस समय पहले बीजेपी-जेएमएम-एजेएसयू ने मिलकर शिबू सोरेन के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. यह सरकार 6 महीने भी न चल सकी.

बाद में इसी गठबंधन की बीजेपी के अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार बनी. दो साल पूरे होते-होते जेएमएम ने वादाखिलाफी के आरोप लगाकर सरकार गिरा दी. बाद में जेएमएम ने कांग्रेस और आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बनाई और हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री बने.

2. झारखंड में रघुबर सरकार के कामों की नहीं बल्कि राम मंदिर और कश्मीर के मुद्दों पर अमित शाह ने बात की. हालांकि मुख्यमंत्री रघुबर दास ने जरूर अलुमिनियम कारखाना और बाईपास निर्माण के मुद्दे पर खुला आश्वासन दिया लेकिन सभा के बाद बीजेपी के ही लोग कह रहे थे कि चंदवा में जो कारखाने तैयार हैं, उनको तो चलवा न पाई सरकार. उनको ही चलवा देते तो स्थानीय रोजगार और राज्य में बिजली की किल्लत दूर हो जाती.

अमित शाह ने अलुमिनियम का जिक्र किया लेकिन सिर्फ जंग न लगने वाले लोहे के रूप में और कहा जंग न लगने वाली बहुमत वाली सरकार बनवाइए.
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3. जमीन का मसला यहां का बड़ा मसला है. रघुबर सरकार ने सीएनटी को कमजोर करने की कोशिश की थी और उस समय जबरदस्त विरोध हुआ था. सीएनटी मतलब छोटा नागपुर टीनेंसी एक्ट जिसके तहत आदिवासियों और मूलवासियों की जमीन एक निर्धारित प्रशासनिक क्षेत्र के भीतर के आदिवासी और मूलवासी ही खरीद सकते हैं. इस एक्ट के दुरुपयोग को लेकर मुख्यमंत्री रघुबर दास हेमंत सोरेन और शिबू सोरेन पर आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन इसका कोई खास असर जमीन पर नहीं दिख रहा है और सीएनटी के संदर्भ में बीजेपी को लेकर आशंका का माहौल कमजोर होता नहीं दिखाई दिया है.

4. अमित शाह की लोहरदगा सभा में उपस्थिति बहुत ही कमजोर थी. इतना ही नहीं, जब अमित शाह राम मंदिर और कश्मीर की बात कर रहे थे, लोग उठकर जाने लगे. मनिका में उपस्थिति के बारे लोगों का कहना था कि हेलिकॉप्टर देखने के लिए लोग तो इकट्ठे हो ही जाते हैं.

5. जिस तरह दलबदल हुआ और टिकट कटे-बंटे, उससे भी स्थानीय स्तर में असंतोष है. मनिका में बीजेपी ने पिछली दो बार के विजेता को टिकट न देकर नया चेहरा उतारा और लोहरदगा में दलबदल कर बीजेपी में आए कांग्रेस विधायक सुखदेव भगत को टिकट दिया गया. ऐसी स्थिति कम से कम 10-12 उन सीटों पर है जिनपर बीजेपी ने पिछली बार जीत हासिल की थी.

2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सिर्फ 37 सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि बहुमत का आकड़ा 41 का है. एजेएसयू ने 5 सीटें जीती थीं और इनको मिलाकर गठबंधन का बहुमत था. बाद में बीजेपी ने बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के 8 में से 6 विधायक तोड़ लिए थे और इसके साथ बीजेपी का अपने दम पर बहुमत हो गया था. उस चुनाव में हेमंत सोरेन की जेएमएम को 19, बाबूलाल मरांडी की जेवीएम को 8 और कांग्रेस को सिर्फ 6 सीटें मिली थीं.

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