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बिहार में सूखे की घोषणा सिर्फ कागजी दिखावा क्यों लगती है? ग्राउंड रिपोर्ट

खरीफ की बुआई के समय जुलाई में 16 जिलों में 64% कम और अगस्त महीने में 21 जिलों में 43% तक कम बरसात हुई.

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साल 1956 में बिहार में भयंकर अकाल और सूखा पड़ा था. तब 28 नवंबर 1957 को बिहार विधानसभा में प्रख्यात साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा, "अगर हथिया (नक्षत्र) ही सब कुछ है तो इतने बड़े-बड़े हाथी (सिंचाई परियोजनाएं) जो हम लोगों ने पाल रखे हैं वो क्यों हैं?"

67 साल बीत गए. तब से अब तक बिहार के अंदर बहुत कुछ बदल गया. लेकिन बेनीपुरी जी का सवाल आज भी मौजूं है क्योंकि प्रदेश इस साल फिर से सूखे की चपेट में है.

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हालांकि, इस बार हथिया नक्षत्र में तो भरपूर बारिश हुई मगर उसके पहले के सूखे ने सरकार के उन बड़े-बड़े हाथियों (सिंचाई परियोजनाओं) की अकर्मण्यता और नकारेपन को उजागर कर दिया और यह बता दिया कि इन हाथियों के सूंड जाम हैं फिर भी सरकारों ने इन्हें पाल रखा है ताकि इनके नाम पर बिल फाड़ा जा सके.

अब बिल फाड़ने का वक्त भी आ गया है क्योंकि सरकार ने राज्य के 11 जिलों के 96 प्रखंडों के 7841 गांवों में सूखे का प्रभाव पड़ने की घोषणा कर दी है. इस घोषणा में कहा गया है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग से प्राप्त आंकड़ों और कृषि विभाग से प्राप्त प्रतिवेदन के अनुसार जहां वर्षापात में 30 फीसदी से अधिक की कमी और फसल अच्छादन 70 प्रतिशत से कम है, वे इलाके सूखाग्रस्त हैं.

इन इलाकों में फसलों को बचाने, डीजल अनुदान, वैकल्पिक कृषि कार्य की व्यवस्था और दूसरे सहायक कार्यों की व्यवस्था की स्वीकृति का प्रस्ताव पास हो चुका है. सूखा प्रभावित परिवारों को विशेष सहायता के रूप में प्रति परिवार 3500 रुपए की राशि भी सरकार देगी.

आंकड़ों पर सवाल?

इस बात में कोई दो राय नहीं कि बिहार में इस साल के मॉनसून सीजन में सामान्य से काफी कम वर्षा हुई और खरीफ की फसल इससे बुरी तरह प्रभावित है. लेकिन, सवाल उन आंकड़ों पर उठ रहे हैं जिनके आधार पर सरकार ने राज्य में सूखे की घोषणा की है.

एक ओर सरकार कहती है कि इस साल के मॉनसून सीजन में 11 जिले यथा- जहानाबाद, शेखपुरा, नालंदा, मुंगेर, लखीसराय, भागलपुर, बांका, जमुई, औरंगाबाद, गया और नवादा में ही वर्षापात में सामान्य से 30 फीसदी से अधिक की कमी दर्ज की गई. जबकि, दूसरी ओर भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़े कहते हैं कि इस साल के मॉनसून की समाप्ति (30 सिंतबर) तक बिहार के 38 में से 33 जिले ऐसे रहे जहां वर्षापात में सामान्य से 20 फीसद से अधिक की कमी दर्ज गई है.

अब आपके जेहन में सवाल होगा कि अगर मेट का डेटा कहता है कि 33 ऐसे जिले हैं जहां 20% से ज्यादा की कमी दर्ज की गई तो फिर ऐसा हो सकता है कि सिर्फ 11 जिलों में 30% से ज्यादा की कमी देखी गई. तो फिर ये दोनों अंतरविरोधी कैसे हैं?

तो जवाब है कि हां, यह सही है कि ये दोनों आंकड़े परस्पर अंतरविरोधी नहीं हैं. लेकिन, सरकार ने जो आंकड़ा पेश किया है वह झूठा लगता है, क्योंकि बाकी आंकड़े दूसरी कहानी बयान करते हैं. इसलिए नीचे कुछ और आंकड़े पेश किए गए हैं जिन्हें देखकर कोई भी अंदाजा लगा लेगा कि सूखे के सरकारी आंकड़े गलत हैं.

इन आकंड़ों में सबसे गौर करने वाली बात ये है कि खरीफ की बुआई के समय यानी जुलाई में 16 जिलों में 64 फीसद कम और अगस्त महीने में 21 जिले ऐसे रहे जहां 43 फीसद तक कम बरसात हुई.

भारतीय मौसम विभाग के आंकड़े तो ये भी कहते हैं कि जिन जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया गया है उनमें नालंदा, नवादा, औरंगाबाद और बांका ऐसे जिले हैं जहां 30 सितंबर तक वर्षापात में सामान्य से 30 फीसदी से अधिक की कमी दर्ज ही नहीं की गई फिर भी इन जिलों को सरकार ने सूखा प्रभावित घोषित कर दिया. जबकि इसके उलट सीतामढ़ी, खगड़िया, सारण, कटिहार, सहरसा, शिवहर ऐसे जिले रहे जहां वर्षापात में सामान्य से 40 फीसदी से अधिक की कमी दर्ज की गई, बावजूद इन जिलों को सूखाग्रस्त जिलों की श्रेणी में नहीं रखा गया है.

बिहार सरकार ने सूखे की घोषणा में खरीफ की मुख्य फसल धान की रोपनी के भी जिन आंकडों को आधार बनाया है, उनपर भी प्रश्नचिन्ह हैं. सरकार की घोषणा में उल्लिखित है कि कम वर्षा के कारण फसल आच्छादन में भी 70 फीसदी की कमी आयी है और इसी आधार पर 11 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया गया है.

लेकिन, बिहार सरकार के कृषि विभाग की वेबसाइट पर इस साल के खरीफ सीजन के दौरान फसल आच्छादन का विवरण कहता है कि खरीफ की मुख्य फसल धान की खेती लक्ष्य का सिर्फ 45 फीसदी हो पायी.

कृषि विभाग की वेबसाइट पर दिए गए 28 जुलाई तक आंकड़ों के मुताबिक केवल 11 जिलों में ही नहीं बल्कि 28 जिले ऐसे हैं जहां धान की फसल का आच्छादन 70 फीसदी से कम रहा.

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पूर्व कृषि मंत्री के आरोप क्या सही थे?

बिहार में इस साल के सूखे और वर्षापात के आंकड़ों पर सबसे पहला सवाल पूर्व कृषि मंत्री सुधाकर सिंह ने उठाया जब उन्होंने द क्विंट से सितंबर महीने में हुई बातचीत में कहा था, “कृषि विभाग और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़े फर्जी लगते हैं क्योंकि जमीनी सच्चाई इससे अलग है. इसलिए मैंने इन आंकड़ों की जांच के आदेश दिए थे.”

हमने सुधाकर सिंह से फिर से बातचीत की और जानना चाहा कि क्या जिन आंकड़ों को आधार बनाकर सूखा घोषित किया गया है, वे आंकड़े उन्हें संतुष्ट करते हैं? पूर्व कृषि मंत्री कहते हैं ,

“नहीं, मैं बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हूं और मैंने जिन आंकड़ों में हेराफेरी की बात कही थी, उसपर अब भी कायम हूं. ऐसा कैसे हो सकता है कि मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़े बिहार सरकार के कृषि विभाग के आंकड़ों से अलग हो जाए! इसका सीधा मतलब है कि या तो मौसम विभाग के आंकड़े गलत हैं या नहीं तो फिर सरकार ने अपनी ओर से कुछ भी आंकड़ा पेश कर दिया है.”

सुधाकर सिंह इस बात से भी खासे नाराज लगे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में जो सवाल उठाए थे, सरकार उसके प्रति बिल्कुल भी गंभीर नजर नहीं आती.

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नए कृषि मंत्री ने कहा- “आंकड़ों की जांच कराई गई”

जैसा कि पूर्व कृषि मंत्री सुधाकर सिंह का कहना है कि बिहार सरकार और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों में बड़ी हेराफेरी की गई है. हमने यह सवाल नए कृषि मंत्री कुमार सर्वजीत से पूछा. कुमार सर्वजीत कहते हैं,

“जी हां, आंकड़ों की तीन स्तरों पर जांच की गई है. जिन आंकड़ों के आधार पर सूखे की घोषणा हुई है, उन्हें संबंधित जिला कृषि पदाधिकारियों ने पास किया है फिर उसकी जांच राज्य स्तर पर टीमें भेजकर कराई गयी. “

लेकिन सरकार के आंशिक सूखे की घोषणा के कारण शाहाबाद और मिथिलांचल के किसानों में रोष है. उनका कहना है कि जिन जिलों में धान की खेती ज्यादा होती है और जहां फसल बुरी तरह प्रभावित है, सरकार ने उन्हें सूखाग्रस्त क्यों नहीं घोषित किया?

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कुमार सर्वजीत किसानों के इस सवाल पर कहते हैं, “जिन जगहों के किसानों को लगता है कि वे भी सूखे से प्रभावित हैं और उनकी फसल नष्ट हुई है, वे विभाग को अथवा जिला कृषि कोषांग को सूचित करें, जांच के बाद यदि उनकी शिकायतें सही पायी जाती हैं तो उन्हें भी सूखा प्रभावित माना जाएगा."

आंकड़ों पर यकीन करना मुश्किल पर यही सच है- सचिव

बिहार में सूखे की घोषणा आपदा प्रबंधन विभाग ने की है. हमने इसपर उठ रहे सवालों के जवाब जानने के लिए बात की इस विभाग के प्रधान सचिव संजय अग्रवाल से. आपदा प्रबंधन के प्रधान सचिव संजय अग्रवाल कहते हैं, “शुरुआत में इन आंकड़ों पर यकीन करना हमें भी मुश्किल लग रहा था, लेकिन जब हमने मैपिंग के जरिए सर्वे कराया तो यही सच सामने निकलकर आया.”

संजय अग्रवाल कहते हैं,

“तीन लक्षणों के आधार पर सूखे की घोषणा हुई है. उनमें सबसे प्रमुख है वर्षापात में असामान्य कमी. दूसरा है कम वर्षा के कारण रोपनी पर पड़ा प्रभाव और तीसरा कि जो फसल बची है उसकी स्थिति की समीक्षा.”

प्रधान सचिव के मुताबिक, “कम वर्षा के बावजूद भी राज्य में धान की खेती ठीक-ठीक हुई है क्योंकि किसानों ने सिंचाई के लिए दूसरे माध्यमों का सहारा भी लिया. उन्हें उसके लिए भी अनुदान दिया जा रहा है."

फिर कृषि विभाग अपनी वेबसाइट पर यह क्यों लिख रहा है कि इस साल धान की खेती लक्ष्य का सिर्फ 45 फीसद ही हो पायी है.

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प्रधान सचिव कहते हैं, “ये आंकड़े कम वर्षा के कारण हुए नुकसान के अनुमान के आधार पर लिए गए होंगे. हमने टोला और गांव के स्तर पर जांच कराई तो ऐसा हर जगह नहीं मिला. इन आंकड़ों को फिर से देखे जाने की जरूरत है."

विपक्ष ने कहा- “पक्षपाती है सरकार की घोषणा”

बिहार सरकार के सूखे की आंशिक घोषणा का विरोध विपक्ष ने भी करना शुरू कर दिया है. BJP ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय महामंत्री एवं बिहार बीजेपी प्रवक्ता डॉक्टर निखिल आनंद ने द क्विंट से कहा,

“नीतीश कुमार ने सुखाड़ प्रभावित जिलों के चयन में पक्षपात किया है. क्या खुद को मौसम वैज्ञानिकों से भी ज्यादा ज्ञानी समझते हैं नीतीश कुमार?"

डॉक्टर निखिल आनंद ने सरकार से पूछा, “बिहार के 11 जिलों को सूखा प्रभावित घोषित करने के पीछे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मनशा आखिर क्या है और उन्होंने किन मानकों के तहत इन सूखा प्रभावित जिलों का चयन किया है? सूखा प्रभावित इन जिलों की चयन प्रक्रिया समझ के परे है और ऐसा लगता है जैसे बिहार सरकार आंकड़ों के जरिए किसानों के भविष्य के साथ खेल रही है.”

निखिल आनंद ने सूखा प्रभावित जिलों के चयन में सरकार द्वारा स्थापित किए गए मानदंड को झूठ का पुलिंदा करार दिया. उन्होंने कहा,

“यह सच नहीं जान पड़ता क्योंकि मौसम विभाग और उनके विशेषज्ञ वैज्ञानिकों के आंकड़े इससे उलट कहानी बयान कर रहें हैं. नीती शकुमार जी को चाहिए था कि वे सूखे की स्थिति जानने के लिए नालंदा. नवादा और गया के आगे बढ़कर धान का कटोरा कहे जाने वाले रोहतास और मिथिलांचल के इलाकों में भी जाएं जहां के किसान त्राहिमाम कर रहे हैं. पर उन्हें केवल अपने इलाके लोगों को खुश करना था, जो उन्होंने किया भी है.”

किसान ने कहा- “हमारे प्रखंड में धान की एक इंच भी खेती दिखा दे सरकार”

एक ओर बिहार सरकार का कहना है कि राज्य में गांव और टोले के स्तर पर सर्वे कराए गए और उसके परिणाम के आधार पर सूखे की घोषणा हुई है. लेकिन, दूसरी ओर यहां के किसान इसे फर्जी सर्वे बता रहे हैं.

भभुआ जहां धान की खूब खेती होती है, वहां के किसान सुरेश सिंह द क्विंट से बातचीत में जो कहा वो आप नीचे पढ़िए.

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सुरेश सिंह के मुताबिक बिहार सरकार ने सूखे की घोषणा महज खानापूर्ति और दिखावे के लिए की है. उनके मुताबिक पूरे शाहाबाद प्रमंडल को इससे अछूता रखा गया क्योंकि पूर्व कृषि मंत्री सुधाकर सिंह इसी इलाके से आते हैं और उन्होंने यहीं सरकार के आंकड़ों पर सवाल उठाए थे. अब सरकार उनसे बदला ले रही है.

राज्य का पूर्णिया जिला जहां इस साल के मानसून सीजन में वर्षापात में सामान्य से 31 फीसदी से अधिक की कमी दर्ज की गई है वहां के किसान गिरिन्द्रनाथ झा कहते हैं, “फसल केवल उन्हीं की बच पायी है जिन्होंने सिंचाई के लिए दूसरे माध्यमों का सहारा लिया. और ऐसे किसान बहुत कम हैं जिनके पास सिंचाई के दूसरे साधनों की सुविधा भी प्राप्त हो. यहां अब भी अधिकांश खेती वर्षा के जल पर ही आश्रित है जो इस साल असंतुलित हुई तो खेती भी बुरी तरह प्रभावित हुई है. पूर्णिया का मौसम ऐसा कभी नहीं रहा फिर भी यह समझ के परे है कि सरकार ने इस जिले को सूखाग्रस्त की श्रेणी में नहीं रखा है."

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3500 रुपए प्रति परिवार की आर्थिक मदद क्या पर्याप्त है?

सवाल केवल सरकार के आंकड़ों पर ही नहीं हैं बल्कि इस घोषणा पर भी है कि सूखा प्रभावित प्रति परिवार को केवल 3500 रुपए कीआर्थिक मदद क्यों?

भोजपुर जिले के किसान अनिल राय कहते हैं,

“यहां अधिकांश किसानों छोटे और मझोले किसानों की श्रेणी में आते हैं. बंटाई पर जमीन लेकर खेती करते हैं. यदि अभी के बंटाईदारी रेट पर देखें तो एक हेक्टेयर का किराया प्रति साल 50 हजार रुपए के करीब होगा. अगर किसी किसान की एक फसल नष्ट हो गई तो समझिए कि उसे कम से कम 25 हजार रुपए का नुक़सान हुआ है. बीज, खाद, पानी, मजदूरी की कीमत इसके अलावा है."

अनिल राय कहते हैं, “क्या ये तथ्य सरकार को नहीं मालूम है? फिर भी सिर्फ 3500 रुपए की आर्थिक मदद से क्या होगा? जिस तरह से महंगाई बढ़ी है, इससे तो दूसरी फसल के आने तक का इंतजार भी नहीं हो पाएगा.”

जब हमने 3500 रुपए के आर्थिक मदद का सवाल कृषि मंत्री कुमार सर्वजीत पूछा तो वे कहते हैं,

"राज्य सरकार मदद करने के लिए जितना सक्षम है कर रही है. आप केंद्र से क्यों नहीं पूछते हैं कि वो क्यों मदद नहीं कर रही है. अगर केंद्र भी कुछ मदद करता तो हम किसानों को ज्यादा आर्थिक सहायता दे सकते थे. फिलहाल हम इस आर्थिक मदद के अलावा और भी काम कर रहे हैं जैसे डीजल अनुदान की राशि देना, सूखा प्रभावित किसानों के लिए दूसरे सहायक कामों की व्यवस्था करना आदि."

जिम्मेदारी जिसकी वो लेना नहीं चाहता

सूखे से निपटने का सबसे कारगर उपाय क्या हो सकता है. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक खेतों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराना सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी काम है. लेकिन, यदि हम बिहार में सिंचाई की सुविधाओं पर गौर करें तो पाएंगे कि यहां की अधिकांश खेती वर्षा के जल पर ही आश्रित है.

जल संसाधन विभाग बिहार की वेबसाइट पर सिंचाई परियोजनाओं से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि राज्य में अभी विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं के तहत लगभग 18 लाख 21 हजार हेक्टेयर भूमि में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. जबकि राज्य में कुल कृषि योग्य भूमिलगभग 79 लाख हेक्टेयर के करीब है. यह आंकड़े 10 अक्टूबर तक के हैं.

जाने माने सूखा विशेषज्ञ दिनेश मिश्र कहते हैं,

“बेनीपुरी जी ने जो बात 67 साल पहले कही थी, वह आज भी जस की तस कायम है. जिन सिंचाई परियोजनाओं में बीते कई दशकों में करोड़ों-अरबों रुपए पानी की तरह बहाए गए और बहाए जा रहे हैं, उन परियोजनाओं का क्या लाभ?”

दिनेश मिश्र आगे कहते हैं, “यह पहली बार तो नहीं है कि राज्य में सूखा पड़ा हो. इससे पहले भी कई दफे सूखे पड़े हैं और इससे भयंकर सूखे पड़े हैं. पर आप देखिएगा तो हर बार सरकारी घोषणाओं में कमोबेश वही बातें होती हैं जो इस बार का घोषणा में है.”

दिनेश आगे कहते हैं, “दरअसल, यहां कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता. विज्ञान और तकनीक के सहारे जब देश-दुनिया ने इतनी तरक्की कर ली है, फिर भी हमारे यहां बीते सात दशकों के दरमियान सरकार इतना भी नहीं कर सकी कि हर खेत तक सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध करा दे, तो यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि यहां कि सरकारें यह चाहती आयी हैं कि राज्य में सूखा हो और सूखे का प्रभाव पड़े.”

दिनेश मिश्र इसपर भी संदेह करते हैं कि सूखा प्रभावित परिवारों को घोषित 3500 रुपए की आर्थिक सहायता और अनुदान का लाभ मिल पाएगा. कहते हैं, “पहली बात तो ये कि यह मदद के नाम पर मजाक लगता है. सूखे से प्रभावित किसान के आधे साल का श्रम, समय, पूंजी सब चला गया और इस महंगाई में आप उसकी मदद के लिए साढ़े तीन हजार रुपए दे रहे हैं. इसमें तो वह खेत की बंटाईदारीकी रकम भी नहीं दे पाएगा. और दूसरी बात है सिस्टम में फैला भ्रष्टाचार जो संदेह कराता है कि यह मदद भी पूरी की पूरी पीड़ितों तक पहुंचेगी कि नहीं. सरकार के पहले के रिकार्ड इस शंका और पुख्ता करते हैं.”

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