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कोरोना से वीरान बनारस के श्मशान, ‘मोक्ष प्राप्ति’ को नहीं आ रहे शव

लॉकडाउन ने बिगाड़ा घाटों का अर्थशास्त्र

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‘राम नाम सत्य है’ की आवाज बनारस के मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट की तरफ जाने वाली गलियों में आजकल नहीं सुन रही. वजह है कोरोना वायरस का लॉकडाउन. देश भर में लॉकडाउन के चलते ‘मोेक्ष प्राप्ति’ के लिए इन महाश्‍मशानों में आने वाले शवों की तादाद में भारी कमी है. आम दिनों में इन घाटों पर शवों की लंबी वेटिंग लिस्ट रहती है.

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क्यों वीरान हैं बनारस के महाश्मशान?

कहते हैं कि मणिकर्णिका घाट पर चिताओं की आग कभी बुझती नहीं है. सिर्फ बनारस ही नहीं, पूरा पूर्वांचल यहां तक की बिहार सहित कई राज्यों से लोग यहां शव दहन के लिए आते हैं. इसका कारण गंगा तट पर स्थित मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट की पौराणिक महत्ता है.

काशी में अंतिम संस्कार होने पर मोक्ष की मान्यता है. मर्णिकर्णिका को स्वर्ग की सीढ़ी भी कहा जाता है. कहा जाता है कि यहां जिसका भी शवदाह हुआ उसे सीधे वैकुंठ प्राप्‍त होता है. स्‍वर्ग और मोक्ष का मोह यहां शवदाह के लिए लोगों को खींच लाता है. पर कोरोना का डर वर्तमान में मोक्ष की आस में रोड़ा बन रहा है.
  • कोरोना के असर से मणिकर्णिका घाट इन दिनों सुनसान

    (फोटो: क्विंट हिंदी)

लॉकडाउन की वजह से वाहनों के चलने पर भी रोक है. ऐसी में लोग काशी आने के बजाए आस-पास की नदियों के किनारे ही शवों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं. कोरोना संक्रमण की वजह से श्‍मशान तक शव को लेकर आने के लिए लोग भी नहीं हैं वरना गांव-देहात से आने वाले शवों के साथ शवयात्रियों का रेला रहता था.

80-90% की गिरावट

काशी के मणिकर्णिका और हरिश्‍चंद्र श्मशान में आमतौर पर शवदाह के लिए लाइन लगती है. कड़ाके की ठंड और ज्यादा गर्मी का मौसम शवों की संख्या में इजाफा कर देते हैं. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है.

लावारिस शवों के नि:शुल्क अंतिम संस्कार के लिए संस्था चलाने वाले डोम राजा परिवार के पवन चौधरी बताते हैं कि मणिकर्णिका घाट पर आम दिनों में तकरीबन के 100 के आसपास शवों का औसत है. जो आज घट कर 10 से 15 रह गया है. मई-जून में यह संख्‍या 200 तक चली जाती है.

लॉकडाउन ने बिगाड़ा घाटों का अर्थशास्त्र
डोम राजा परिवार के पवन चौधरी लावारिस शवों के नि:शुल्क संस्कार के लिए संस्था चलाते हैं
(फोटो: क्विंट हिंदी)

हरिश्चंद्र घाट पर भी सन्नाटा

हरिश्‍चंद्र घाट की बात करें तो यहां औसतन 45 से 50 शव हर रोज अंतिम क्रिया के लिए आते थे. इन दिनों इनकी संख्‍या पांच से सात रह गयी है.

  • वीरान पड़ा काशी का हरिश्‍चंद्र घाट

    (फोटो: क्विंट हिंदी)

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श्मशान का इकनॉमिक्स

अब आइये जरा श्मशान के अर्थशास्त्र को जानने की कोशिश करते है. यहां भी अर्थशास्‍त्र के डिमांड और सप्‍लाई का नियम लागू होता है. शवोंम की संख्‍या बढ़ती है तो लकड़ी आदि की खपत में भी इजाफा होता है. जिसको पूरा करने के लिए व्‍यापरी यहां अतिरिक्‍त लकड़ी की व्‍यवस्‍था पहले से कर लेते हैं. ऐसा इस बार भी हुआ है.

मणिकर्णिका घाट पर लकड़ी के व्यापारी अज्जू गुप्ता बताते हैं कि

आमतौर पर एक शव के जलाने में 5-7 मन (प्रति मन 40 किलो) लकड़ी का इस्तेमाल होता है. इन दिनों लकड़ी 400 से 450 रुपये मन के हिसाब में है. इसके साथ ही बांस और अफगान जैसी बहुत सारी छोटी छोटी चीजें लगती है जो अंतिम संस्कार में परम्परागत रूप से बेहद जरूरी है. कुल मिलाकर एक शव को जलाने में 7-12 हजार रुपये तक लग जाते हैं.

यही नहीं चिता के लिए आग डोम राजा परिवार से लेनी पड़ती है जिसके लिए अलग से पैसा देना पड़ता है. जो मरनेवाले के परिवार की हैसियत और मोल भाव पर निर्भर करता है. ये 500-10 हजार तक हो सकता है और यही डोम परिवार की सीधी कमाई है.

शवदाह कर्म से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तकरीबन दो हजार परिवार जुड़े हैं, यानी 10-12 जार लोग. सीधी कमाई से जुड़े डोम राजा परिवार की बात करें तो इनकी संख्या भी 100 के करीब है. इनमें पारी के हिसाब से हर दिन अलग व्यक्ति आग देने का टैक्स वसूलता है. कोरोना के लॉकडाउन ने इनकी पूरी अर्थव्‍यवस्‍था को भी लॉकडाउन कर दिया है.

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