गुजरात साहित्य अकादमी के प्रकाशन के जून संस्करण के संपादकीय में गुजराती कवि पारुल खाखर की एक कविता को लेकर आलोचना की है. पारुल ने उत्तर प्रदेश और बिहार के गंगा नदी में तैरते संदिग्ध लाशों को लेकर एक कविता लिखी थी. उनपर “अराजकता” फैलाने का आरोप लगा है. वहीं जिन लोगों ने इस कविता के बारे में चर्चा की उनको ‘साहित्यिक नक्सल’ तक कहा है.
अकादमी के अध्यक्ष विष्णु पंड्या ने संपादकीय लिखने की पुष्टि की, हालांकि इसमें विशेष रूप से शव वाहिनी गंगा का उल्लेख नहीं है, उन्होंने यह भी पुष्टि की कि उनका मतलब उस कविता से है, जिसकी बहुत प्रशंसा हुई है और कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है.
द वायर की खबर के मुुताबिक, मूल रूप से गुजराती में पारुल खाखर की लिखी गई कविता शव वाहिनी गंगा, नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना करती है और दूसरी कोरोना वायरस लहर के दौरान भारतीयों की पीड़ा के बारे में बात करती है, खाखर ने 11 मई को अपने फेसबुक पेज पर कविता पोस्ट की थी और तब से इसका हिंदी और अंग्रेजी सहित कम से कम छह भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है.
कविता में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान भारी संख्या में हुई मौतों के बारे में चर्चा की गई है, जिसमें श्मशान घाट पर शवों के दाह संस्कार के लिए लोड बढ़ गया था. 14-पंक्तियों वाला व्यंग्य देश को "राम राज्य" (देवता राम का राज्य) के रूप में संदर्भित करता है. यह उन हजारों शवों के संदर्भ में है, जो कोविड मामलों की दूसरी लहर के दौरान उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के जिलों में गंगा नदी के किनारे तैरते या दफन पाए गए थे.
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