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लोकल बाजार में दिख रहा है कर्नाटक के गोहत्या विरोधी कानून का असर

कर्नाटक के अलावा केरल और तमिलनाडु के लोगों के अहम मैसूर के वीकली बाजार की रौनक फीकी हो चुकी है.

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गुरुवार की सर्द सुबह- और चामराजनगर जिले (कर्नाटक) के गुंडलूपेट तालुक के वीकली तेराकनाम्बी बाजार में चहल पहल है. सब्जियां-फल सजे हैं. दालों और गुड़ की ढेरियां लगी हैं. इन्हें बेचने वाले किसान उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं. सुबह छह बजे से बाजार सजाए बैठे हैं.

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तेराकनाम्बी बाजार हर सोमवार और गुरुवार को लगता है. गुंडलूपेट शहर वहां से सिर्फ 12 किलोमीटर दूर है, और केरल और तमिलनाडु जैसे राज्य सिर्फ 20 किलोमीटर की दूरी पर हैं. इस लिहाज से तेराकनाम्बी बाजार की लोकेशन काफी महत्वपूर्ण है. यहां कर्नाटक के अलावा बाकी दोनों राज्यों के किसान भी मवेशियों की खरीद-फरोख्त के लिए पहुंचते हैं.

यहां देसी हल्लीकर बैलों के अलावा होलस्टीन फ्रेजन प्रजाति जैसी बढ़िया दुधारू गायों, जिन्हें जर्सी गाय भी कहा जाता है, की वाजिब कीमत पर खरीद बिक्री होती है.

हां, इन दिनों बाजार ठंडा और बेजार है.

एक तरफ दिल्ली की सीमाओं पर तीन खेती कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन करते किसानों की खबर है तो दूसरी तरफ कर्नाटक में गोहत्या विरोधी नए कानून की. इन दोनों के बीच किसान अपने भविष्य को लेकर परेशान हैं.

राज्य की बीजेपी सरकार ने 9 दिसंबर, 2020 को विधानसभा में कर्नाटक गोहत्या रोकथाम और मवेशी संरक्षण विधेयक 2020 पारित किया है. यह कानून 18 जनवरी 2021 से लागू हुआ है. इस कानून के तहत सभी प्रकार के मवेशियों की हत्या पर पाबंदी लगाई गई है और ऐसा करने पर लोगों को सख्त से सख्त सजा भुगतनी पड़ सकती है.

9 फरवरी को कर्नाटक विधान परिषद ने भी बिल को ध्वनिमत से पारित कर दिया है. हालांकि कांग्रेस बराबर इसका विरोध कर रही थी. इस विधेयक पर जनता दल सेक्यूलर चुप्पी साधे बैठी थी, जिसका मतलब यही लगाया गया है कि उसने ऊपरी सदन में इस विधेयक पर अपनी सहमति जताई है.

मवेशियों के स्टॉल्स खाली पड़े हैं

तेराकनाम्बी बाजार का वह हिस्सा जहां मवेशियों का व्यापार होता है, दो हिस्सों में बंटा है. एक हिस्सा उन खरीदारों के लिए है जो मवेशियों को मांस के लिए खरीद कर ले जाते हैं. यहां आने वाले ज्यादातर पड़ोसी राज्यों केरल और तमिलनाडु के होते हैं. अब यह हिस्सा पूरी तरह खाली है.

पुलिसवाले यहां सादे कपड़ों में घूम रहे हैं. किसी भी बाहरी शख्स को संदेह भरी नजरों से देखा जाता है. “आप लोग कौन हैं? आप लोग यहां क्यों आए हैं?’’ हमसे पूछा गया और कुछ नोट्स लिए गए.

किसान बताते हैं कि पड़ोसी राज्यों, जहां मांस की काफी ज्यादा खपत है, वहां के खरीदारों ने बाजार में आना बंद कर दिया है.

महेश ने 63,000 रुपए में दो बैल खरीदे हैं, वो हमसे सवाल करते हैं, “हमारे गांव में गाय को मारने का काम नहीं होता. हमारे यहां तो गाय मारने वाले हैं भी नहीं. हम पुराने मवेशियां का अब क्या करेंगे? अगर कोई गाय जख्मी हो जाती तो उसकी देखभाल कौन करेगा? अगर किसी इनसान के शरीर का कोई अंग टूट जाता है तो हम उसे अस्पताल ले जा सकते हैं और वह चंगा हो सकता है. लेकिन गाय का क्या?”

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इस नए विधेयक से पहले बीजेपी ने 2010 में भी ऐसा ही एक कानून बनाया था. 2013 में सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने इस कानून को रद्द किया और 1964 का कम सख्त कानून लागू रहने दिया, जिसका नाम है कर्नाटक गोवध प्रतिषेध तथा पशु संरक्षण अधिनियम, 1964.

हालांकि इस कानून में भी गाय या बछड़े या भैंस को मारने पर पाबंदी है लेकिन इसमें ऐसे बैल-सांड, नर या मादा भैंस को मारने की अनुमति है जिसे कोई संबंधित अथॉरिटी 12 साल से अधिक का सर्टिफाई कर दे, जो प्रजनन के लायक न हो या बीमार हो. नए कानून में ऐसी कोई छूट नहीं है.

नियम का उल्लंघन करने वाले को तीन से सात साल तक की सजा हो सकती है. पहली बार अपराध करने पर 50,000 रुपए से लेकर 5 लाख रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है. दूसरी बार और बार बार अपराध करने पर एक लाख रुपए से 10 लाख रुपए तक का जुर्माना भरने की नौबत आ सकती है.

गाय बीमार हो जाए तो क्या करें

गर्मी, धूल और बाजार के शोरगुल के बीच जानवर चिड़चिड़े हो जाते हैं. हल्लीकर बैल को खरीदारों के सामने चलाया और दौड़ाया जाता है. उसकी शारीरिक ताकत और तंदुरुस्ती के दर्शन कराए जाते हैं. मुंह खोलकर दांत गिने जाते हैं. देखा जाता है कि वह जवान है या बुढ़ाया हुआ. वह जितना जवान होगा, खेतों में उसे जोतना उतना बेहतर होगा. दुधारू गाय को दुहा जाता है ताकि पता चल सके कि वह कितना स्वादिष्ट दूध देती है.

किसान जे डी शेट्टी अपनी गाय दिखाते हुए बताते हैं, “दुहने पर गाय के थन में मौजूद नसें तन जाती हैं. तीन से चार नसें दिखाई देने लगती हैं.” उनके दोस्त सिद्दा शेट्टी कहते हैं, “हम उसके दांत गिनते हैं. देखते हैं कि दांत चार हैं या छह. जब गाय के आगे के दो दांत होते हैं तब वह बछड़े को जन्म दे सकती है. अगर आगे के दांत टूटे फूटे हैं तो इसका मतलब यह है कि वह गाय बूढ़ी है.”

कुछ गायों के साथ उनके बछड़े भी हैं जो कुछ ही दिन के हैं. तंदुरुस्त जानवर को तो तुरंत खरीद लिया जाता है. रुपए थमाए जाते हैं और लोग खुली गाड़ियों में उन्हें चढ़ाकर ले जाते हैं.
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छोटे और मंझोले किसानों के लिए मवेशी एसेट की तरह होते हैं. कभी-कभी उन्हें बेचने से तुरंत पैसा कमाया जा सकता है, और अक्सर संकट की घड़ी में बहुत काम आते हैं. यहां आने वाले बहुत से किसान ऐसे पशु लेकर आते हैं, जो किसी काम के नहीं रहते. जो गाय दूध नहीं दे सकती, या जो सांड़ खेतों में नहीं जाते जा सकते. कुछ लोग ऐसे जानवर लेकर आते हैं जो बीमार होते हैं. चल या दौड़ न सकने वाले बैल किसानों पर लायबिलिटी, यानी बोझ की तरह होते हैं. पहले उन्हें बूचड़खानों में भेज दिया जाता था. पर अब ऐसा नहीं किया जा सकता.

नए कानून में ‘बीफ’ का मतलब है, किसी भी प्रकार के मवेशी का मांस, और ‘मवेशी (कैटल)’ में “गाय, गाय के बछड़े और सांड, बैल, नर या मादा भैंस” शामिल हैं “जिनकी उम्र 13 साल से कम है”.

किसान प्रकाश कहते हैं, “गाय या बैल को पालने का खर्चा हर महीने 10 हजार से 15 हजार के बीच है.” वह बताते हैं कि छोटे और मंझोले किसानों के लिए किसी ऐसी गाय या बैल को पालना बहुत मुश्किल है जोकि कोई फायदा नहीं पहुंचाते और उससे तंगहाली बढ़ती है.

यहां नागामलप्पा नाम के किसान काफी परेशान दिखते हैं. वह कहते हैं, “इससे हमें नुकसान ही नुकसान होगा! सोचिए कोई गाय जख्मी हो जाती है और मेरे पास दवा-इलाज के पैसे नहीं हैं. अगर गाय मर जाती है तो क्या मुझे पैसे मिलेंगे? अगर हम इन गायों को बेच सकें तो हमारे पास अपने इलाज के, घर चलाने के, पैसे आ जाएंगे. अगर मैंने आपसे पैसे उधार लिए हैं और मुझे आपको पैसे लौटने हैं तो मैं कम से कम गाय को बेचकर आपका पैसा लौटा सकता हूं. अगर गाय मर जाती है तो मैं आपको पैसे कैसे लौटा सकता हूं?”

कानून कोई रास्ता नहीं सुझाता

जो किसान अपने पशुओं की देखभाल नहीं कर सकते, उनका क्या किया जाए- कानून इस बारे में कुछ नहीं कहता. उसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि बीमार या कमजोर पशुओं वाले किसानों को कोई आर्थिक मदद दी जाएगी. अब वे लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि उनका कामकाज कैसे चलेगा. कर्नाटक में गायों के लिए प्रोटेक्शन शेल्टर्स हैं लेकिन उनमें इतनी जगह नहीं है कि उन पशुओं को रख सकें, जो नए कानून की वजह से अब बूचड़खानों में नहीं भेजे जा सकते.

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शिवम्मा किसान हैं, पास के कुंतकेरे गांव में चार एकड़ जमीन है. अपने खेतों में वह सब्जियां उगाती हैं. फिलहाल बाजार में वह अच्छे सौदे का इंतजार कर रही हैं. तीन-चार साल पहले वह एक सौदे में मात खा चुकी हैं. वह बताती हैं, “मैंने कुछ गाय खरीदी थीं, और मुझे बताया गया था कि एक गाय कम से कम चार से पांच लीटर दूध देगी. पर ऐसा नहीं हुआ. मुझे इस सौदे में चार से पांच हजार रुपए का नुकसान हुआ.”

वह कहती हैं कि खेती में कोई फायदा नहीं है. चूंकि उनके गांव में पानी की कमी है. जब हम रिपोर्टिंग करके तेराकनाम्बी बाजार से निकलने की तैयारी में थे, तभी शिवम्मा पूछती हैं, “क्या मुझे बेंगलुरू में कोई नौकरी मिल सकती है?”

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