ADVERTISEMENTREMOVE AD

उत्तराखंड से 21 साल में कैसे दूर होता चला गया पहाड़, पहले से बदतर हालात क्यों?

उत्तराखंड आंदोलन से जन्मी राजनीतिक पार्टियों का हुआ अंत, अब बीजेपी-कांग्रेस का एकाधिकार

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन का जिक्र आपने कई बार सुना होगा, लेकिन उत्तराखंड (Uttarakhand) आंदोलन में हिस्सा लेने वाले आंदोलनकारी आज उत्तराखंड छोड़ो का नारा लगा रहे हैं. यहां अंग्रेजों का राज नहीं है, बल्कि भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों के खिलाफ आंदोलनकारी अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं. उत्तराखंड स्थापना दिवस के मौके पर हर साल अपनी जवानी आंदोलन में झोंकने वाले लोग इस दर्द से गुजरते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

9 नवंबर 2000 में उत्तराखंड को राज्य का दर्जा दिया गया था, जिसके बाद अब ये युवा राज्य अपने 21 साल पूरे कर चुका है. लेकिन यहां विकास की रफ्तार किसी 70 साल के बुजुर्ग जैसी है. यही वजह है कि हुकुम सिंह कुंवर, केदार सिंह पलड़िया और ऐसे ही तमाम राज्य आंदोलनकारी नेताओं को कोस रहे हैं.

उत्तराखंड स्थापना दिवस के मौके पर हम आपको बताते हैं कि 9 नवंबर 2000 से लेकर 9 नवंबर 2021 तक राज्य में क्या हुआ और क्यों सत्ताधारी दल लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाए. लेकिन पहले संक्षेप में उत्तराखंड बनने के सफर के बारे में जानिए...

  • जब देश में अंग्रेज राज कर रहे थे, तभी पहाड़ों से अलग राज्य बनाने की मांग उठने लगी थी. उस दौर में इंग्लैंड की महारानी को चिट्ठी लिखी गई थी कि वो ब्रिटिश कुमाऊं को अलग क्षेत्र घोषित करे.

  • भारत के आजाद होने के बाद लगातार उत्तराखंड के जनप्रतिनिधियों ने कोशिशें शुरू कीं, प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक हर महीने ज्ञापन सौंपे गए.

  • 1979 में स्थानीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) का जन्म हुआ. जिसने अलग राज्य के आंदोलन को धार देने का काम किया.

  • 1988 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ और कई लोगों को गिरफ्तार किया गया. यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अलग राज्य की मांग को सिरे से नकार दिया.

  • 1994 में आंदोलन और तेज हुआ तो इसके दमन के लिए यूपी सरकार ने आंदोलनकारियों पर कई जुल्म किए, इस आंदोलन में कई बार गोलियां चलीं और अलग राज्य के लिए लोगों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मुजफ्फरनगर में जलियांवाला बाग वाली तस्वीर

उत्तराखंड आंदोलन की आग लगाता सुलग रही थी और इसे 1994 में चिंगारी मिली, जब गांवों से बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों ने दिल्ली कूच करने का ऐलान किया. लेकिन 2 अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा में दूसरा जलियांवाला बाग कांड देखने को मिला. जब यूपी पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दीं. जिसमें बच्चों और महिलाओं समेत करीब 15 आंदोलनकारियों की मौत हो गई. इसके अलावा महिलाओं से रात में दुष्कर्म हुआ. इसके बाद आंदोलन आग की तरह फैला और आखिरकार 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड की स्थापना हुई.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

उत्तराखंड में विकास ने क्यों नहीं पकड़ी रफ्तार?

अब उत्तराखंड आंदोलन की जो कहानी हमने आपको बताई, वो सिर्फ और सिर्फ विकास के लिए था. उन आंदोलनकारियों को आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की चिंता थी, इसीलिए उन्होंने अपने खून से उत्तराखंड की नींव रखी. लेकिन 21 साल बाद भी उत्तराखंड के लोग विकास की राह क्यों ताक रहे हैं?

इसका जवाब उत्तराखंड की राजनीति और सत्ता में बैठने वाली पार्टियों को देना चाहिए. क्योंकि राज्य की स्थापना के साथ ही बीजेपी और कांग्रेस को हर बार सत्ता मिली, लेकिन नेताओं ने खुद के विकास के अलावा पहाड़ों की तरफ देखना ठीक नहीं समझा.

जानकार मानते हैं कि उत्तराखंड में विकास की परिभाषा पहाड़ी इलाकों को दरकिनार करते हुए बदल गई. शहरी इलाकों में जो विकास हुआ भी, वो पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाया. जनसंख्या आधारित परिसीमन के बाद हालात और बिगड़ गए और उत्तराखंड की शान कहे जाने वाले पहाड़ी इलाकों को नजरअंदाज कर दिया गया.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

पहाड़ की जिंदगी पहाड़ जैसी

21 साल बाद की तस्वीर अगर देखें तो पहाड़ की जिंदगी कुछ वैसी ही है, जैसे 21 साल पहले हुआ करती थी. आज सरकार सड़कों को विकास के तौर पर पेश करती है, लेकिन उन सड़कों पर घास जम चुकी है... क्योंकि उन पर चलने वाले लोग ही नहीं रहे. पहाड़ तेजी से पलायन का शिकार हुआ है और लगातार हो रहा है. जिसे रोकने के लिए सिर्फ चुनावी वादे ही नजर आते हैं.

पहाड़ी इलाकों का हाल ये है कि स्कूलों में बच्चे नहीं हैं, जिसके चलते सैकड़ों स्कूल हर साल बंद हो रहे हैं. सही वक्त पर इलाज नहीं मिलने के कारण लोगों की मौत हो जाती है. अस्पताल तो हैं, लेकिन वहां इंसानों से ज्यादा जानवर नजर आते हैं. इलाज करने के लिए डॉक्टर नहीं हैं.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

जन आंदोलनों का अंत

उत्तराखंड अपने जन आंदोलनों के लिए जाना जाता था, यहां चिपको आंदोलन से लेकर तमाम तरह के बड़े आंदोलन किए गए. लेकिन आज प्रतिनिधित्व की भारी कमी देखने को मिल रही है. नेताओं से सवाल पूछने वाला कोई नहीं रहा, पहाड़ी क्षेत्रों में लगातार हो रहे कटाव से जो प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं, उनके खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई नहीं है.

उत्तराखंड क्रांति दल जैसी आंदोलन से निकली पार्टियां आज अपना अस्तित्व तलाशने में जुटी हैं. राज्य में दो बड़े दलों (बीजेपी-कांग्रेस) का एकाधिकार है. यही वजह है कि उत्तराखंड की परिभाषा देहरादून तक सिमटकर रह गई है, पहाड़ों से कोई आवाज नहीं उठती, इसीलिए नेताओं को भी इससे कोई खास सरोकार नहीं रहा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
अब बात नेताओं की हुई है तो आखिरी में 21 सालों में उत्तराखंड की राजनीति की बात कर लेते हैं. कुछ भी कहने से पहले इतना जान लीजिए कि उत्तराखंड के लोगों ने पिछले 21 साल में कुल 11 मुख्यमंत्री देख लिए हैं, जबकि चुनाव सिर्फ 4 बार ही हुआ है. इसी आंकड़े से राज्य में राजनीति और नेताओं का अंदाजा लगाया जा सकता है.

पिछले कुछ सालों में यहां एक नया ट्रेंड देखने को मिला है. जब भी कोई सरकार जनता के मुद्दों पर खरा नहीं उतर पाती है और नाराजगी झेल रही होती है तो मुख्यमंत्री का चेहरा बदल दिया जाता है. बीजेपी और कांग्रेस को एंटी इनकंबेंसी को दूर करने का ये आसान तरीका लगता है. बीजेपी ने तो अबकी बार 5 साल में तीन मुख्यमंत्री लोगों को दे दिए. लेकिन उत्तराखंड की जनता हर बार इस उम्मीद के साथ सत्ता परिवर्तन कर देती है कि शायद अबकी बार दूसरी पार्टी उनके हितों का खयाल रखे. लेकिन ये दुर्भाग्य है कि अब तक ये उम्मीद पूरी नहीं हो पाई.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×