यूं तो पूरा हिमालयी क्षेत्र ही संवेदनशील है. हिमालय भूगर्भिक तौर पर सबसे नए पर्वत हैं और अब भी निरंतर बनने की प्रक्रिया में हैं. जिससे हिमालय की नाजुकता दुनिया के अन्य पर्वतों की अपेक्षा ज्यादा है. उत्तराखंड (Uttrakhand) का पर्वतीय क्षेत्र भी हिमालय की इसी नाजुकता के चलते और हिमालयी ध्वंसों की वजह से लगातार आपदाओं का ग्रास बनता रहता है. तिब्बती और भारतीय प्लेटों की गतिशीलता, जहां भूकम्पों का कारण बनती है. वहीं विपरीत मौसम भूस्खलनों और भूधंसाव का कारण बनती है.
पिछले दस-बीस वर्षों में इन आपदाओं की श्रृंखला में लगातार वृद्धि हुई है. बड़े भूकम्पों, अतिवृष्टि और बादल फटने के चलते पिछले तीन दशकों में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र ने कई भीषण आपदाओं के सामना किया है. 1991 और 1998 के भूकम्प हों या फिर 2013 और 2021 की बड़ी आपदाएं, इसके अतिरिक्त छोटी-छोटी आपदाओं की लंबी श्रृंखला है.
जोशी मठ का इतिहास
जोशी मठ का उत्तराखंड के पर्यटन और तीर्थाटन में महत्वपूर्ण स्थान है. यह अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के लिए व प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से भी महत्व रखता है. इतिहासकारों ने जोशी मठ को 7वीं से 10वीं सदी तक कत्यूरी राजवंश की राजधानी के बतौर स्वीकार किया है. आठवीं सदी में शंकराचार्य के यहां आगमन ने इसे सांस्कृतिक-धार्मिक तौर पर विशिष्टता प्रदान की.
हिंदुओं की चार पीठों में से एक ज्योतिषपीठ और चार प्रमुख धामों में प्रसिद्ध धाम बद्रीनाथ के निकट होने से इस नगर के महत्व को अखिल भारतीय कलेवर मिला है. सिखों के पवित्र धाम हेमकुंड इसके निकट है, और उसी के निकट प्रसिद्ध फूलों की घाटी ने इस नगर को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन क्षेत्र के तौर पर स्थापित किया है. औली, गोरसों, नंदा देवी, क्वारीपास और बहुत से अन्य बेहतरीन ट्रैक रूट्स ने जोशीमठ को पर्यटन तीर्थाटन के अनुपम केंद्र के बतौर पहचान दी है.
इसके साथ ही इस क्षेत्र में धौली गंगा, अलकनन्दा, ऋषिगंगा, कल्पगंगा के रूप में प्रचुर जल संसाधन भी है. जिससे सरकार ने सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं की श्रृंखला को यहां मंजूरी दी.
इस सबके चलते जनसंख्या का संकेंद्रण भी यहां बढ़ा. पिछले 20-30 सालों में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई. जहां सन 90 से 2000 तक जोशीमठ की जनसंख्या 10 से 15 हजार के बीच ही थी. वहीं आज यह 26 से 32 हजार के बीच है.
जोशीमठ भूस्खलन के लिए संवेदनशील
7 फरवरी 2021 को ऋषिगंगा से शुरू हुई आपदा ने तपोवन में NTPC की निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजना के बैराज को ध्वस्त कर दिया था. इसमें वहां काम करने वाले 140 लोगों की मौत हुई थी. इसके बाद बाढ़ और मलवा जोशीमठ के नीचे अलकनन्दा में तबाही मचाते हुए आगे बढ़ गया था.
माना जाता है कि यह बाढ़ इतनी शक्तिशाली थी कि इसने पूरे क्षेत्र को हिलाया दिया था. इसके ठीक आठ महीने बाद अक्टूबर में अतिवृष्टि ने क्षेत्र के भूस्खलन को सक्रिय किया. नवंबर के अंतिम सप्ताह में लोगों ने अपने घर-मकानों पर दरारें देखीं, जो धीरे-धीरे बढ़ने लगीं. ऐसा पूरे जोशीमठ में हो रहा था. लोगों को जान बचाने के लिए घर खाली करने पड़े.
इसके बाद लोगों ने सरकार से क्षेत्र के व्यापक अध्ययन की मांग की. जिसके लिए कई बार चिट्ठी भी लिखी गई. वहीं प्रदर्शन भी हुए. लेकिन न ही सरकार ने लोगों की सुध ली और न ही अध्ययन करवाने को गम्भीरता से लिया.
क्या कहती है पहले की स्टडी?
1976 की मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक जोशीमठ ग्लेशियर से लाए हुए मलबे अर्थात मोरेन पर बसा हुआ है. हेम (Heim) और गेन्सर (Gansser) के 1939 के अध्ययन के अनुसार मुख्य केंद्रीय भ्रंश (MCT-main central thrust) के ठीक ऊपर स्थित यह क्षेत्र भूकम्पीय और भूगर्भिक हलचलों का केंद्र है.
1960 के दशक में इन्हीं हलचलों की वजह से भूस्खलन और भूधंसाव सक्रिय हुए. तब उत्तर प्रदेश की सरकार ने गढ़वाल के कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन कर इस क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन करवाया.
कमेटी ने इस क्षेत्र की स्थिरता और दीर्घकालिकता के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए. जैसे- भारी निर्माण पर प्रतिबंध, इस क्षेत्र में स्थित बोल्डरों से बिल्कुल छेड़छाड़ नहीं किया जाए. ढलानों पर वृक्षारोपण करने के साथ ही व्यवस्थित जल निकासी की जाए. लेकिन इन सुझावों का कभी पालन नहीं हुआ.
किन्तु यह उल्लेखनीय है कि तब एक बहुत बड़े राज्य का हिस्सा होते हुए भी सुदूर सीमांत क्षेत्र में हो रही हलचलों पर सरकार की न सिर्फ नजर थी बल्कि गम्भीरता पूर्वक उसका संज्ञान लेते हुए बाकायदा अध्ययन करवाया गया.
आज जब उत्तराखंड एक अलग राज्य है. जोशीमठ से देहरादून की दूरी मात्र 300 किलोमीटर है. लेकिन जनता की लगातार मांग के बावजूद सरकार उच्चस्तरीय कमेटी गठित कर व्यापक अध्ययन करवाने को लेकर गंभीर नहीं है.
ताजा अध्ययन में चौंकाने वाले खुलासे
सरकार की ओर से व्यापक अध्ययन की लगातार उपेक्षा किये जाने के बाद जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति की गुजारिश पर स्वतंत्र तौर पर वैज्ञानिकों की एक टीम ने वर्तमान परिघटना को समझने के लिए जोशीमठ का सर्वेक्षण किया और अपनी रिपोर्ट संघर्ष समिति को सौंपी है.
डॉ एसपी सती, डॉ नवीन जुयाल और डॉ शुभ्रा शर्मा की यह रिपोर्ट 1976 की मिश्रा कमेटी के सुझावों का पालन नहीं करने को विशेष रूप से चिन्हित करती है. जिसमें भारी निर्माण पर प्रतिबंध और बोल्डरों से छेड़छाड़ न किये जाने के सुझाव शामिल थे.
इसके विपरीत न सिर्फ यह किया गया बल्कि बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई. जिसमें नगर के नीचे से ही सुरंग बनाई गई. भारी विस्फोटों के जरिए न सिर्फ जलविद्युत परियोजनाओं की सुरंगे खोदी गई बल्कि भारी निर्माण भी हुए हैं.
ताजा रिपोर्ट की बड़ी बातें
रिपोर्ट कहती है कि जोशीमठ में हो रही वर्तमान परिघटना के लिए 1976 में गठित मिश्रा कमेटी की सिफारिशों सुझावों को अनदेखा करना एक प्रमुख कारण है.
7 फरवरी को आई बाढ़ जिसमें हजारों टन मलवा बह कर आया और बहाव की गति भी सामान्य की अपेक्षा कई गुना बढ़ गयी थी, इसके चलते यह स्वाभाविक ही है कि इसने अपर्दन को बढ़ाया हो और पुराने भूस्खलन को सक्रिय कर दिया हो. जिसने मलवे से ढंकी ढलानों को अस्थिर कर दिया.
इस बाढ़ ने ही जोशीमठ के तलहटी में बह रही धौली गंगा और अलकनन्दा ने कटाव को और तीव्र कर दिया. वैज्ञानिकों का कहना है कि यह सक्रियता आगे भविष्य में स्थिर न होने तक जारी रह सकती है.
जनसंख्या का बढ़ता दबाव भी एक कारण है. इसके लिए 1890 के एक फोटो के द्वारा देखा गया कि तब कितने कम घर थे. उसके मुकाबले आज वह जगह मकानों से पट गई है.
जोशीमठ की पहले से कमजोर नाजुक ढलान को अनियंत्रित जल निकास प्रणाली और चट्टानों, पत्थरों, बोल्डरों को निर्माण सामग्री के लिए निकाल लिए जाने से भूस्खलन को गति मिली है.
जोशीमठ के आस-पास चारधाम यात्रा के लिए और बॉर्डर से जुड़े सड़कों के चौड़ीकरण की परियोजनाएं को भी भूस्खलन और भूधंसाव का कारक माना जा रहा है.
24 दिसंबर 2009 को जोशीमठ के नीचे से गुजर रही तपोवन विष्णुगाड परियोजना की सुरंग पर बोल्डर गिरने से सुराख हो गया था. जिसके बाद 600 लीटर प्रति सेकंड की दर से जल रिसाव होने लगा था. स्थानीय लोग मानते हैं कि इससे उनके स्रोतों पर असर हुआ है पर इसने कितना इसको नुकसान किया इसका अध्ययन होना बाकी है.
वैज्ञानिकों ने क्या-क्या सुझाव दिए?
वैज्ञानिकों का सुझाव है कि जोशीमठ क्षेत्र पर वर्तमान में उपलब्ध भूगर्भिक एवं पारिस्थितिक अध्ययन विरल एवं बिखरे हुए हैं, ऐसे में एकीकृत अध्ययन की जरूरत है.
इसके साथ ही इस इलाके की स्थिरता, प्राकृतिक स्रोतों संसाधनों का प्रबंधन, हिम नदी और वानस्पतिक अध्ययन की जरूरत है. जिसके आधार पर भविष्य में इस क्षेत्र के स्थिरीकरण के विकास की योजना पर कार्य हो सके.
वैज्ञानिकों ने अपने रिपोर्ट में खनन पर सख्ती से तुरंत रोक लगाने का सुझाव दिया है. खासतौर पर स्थिर चट्टानों के खनन पर. क्योंकि भूमि के नीचे कैविटी (खाली या पोली जगह) बन गयी हैं. जो कि क्षेत्र के लिए गम्भीर खतरा बन रही हैं.
सड़क चौड़ीकरण के दौरान पुराने भूस्खलन क्षेत्र में इंजीनियर को भूमि के स्थिरीकरण स्थायित्व की नई तकनीक और सुधारीकरण में अभिनव प्रयोग करते हुए निर्माण करना चाहिए.
जहां-जहां भूमि धंसाव है उसे रोकने के लिए चट्टानों में पिलर डालकर या एंकर से मजबूत किया जाना चाहिए.
7 फरवरी 2021 की आपदा ने नदी तट को बहुत नुकसान पहुंचाया है और इससे जोशी मठ के तल से कटाव बढ़ा है. इसलिए धौली और अलकनन्दा के तटबंधों को बंधना जरूरी है. जिससे भविष्य में होने वाले अपर्दन को रोका जा सके.
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में अधिकांश नगरों गांवों के हालात इस समय इसी तरह के हैं, मौसम के बदलाव ने भूस्खलन-भूधंसाव की घटनाओं में बढ़ोत्तरी ही की है, जिससे पहले ही पलायन से खाली हुए नगर गांव आपदा की मार से और वीरान हो रहे हैं. इनके बचाने के लिए बहुत व्यापक तौर पर एकीकृत वैज्ञानिक अध्ययनों की जरूरत है. इसके अभाव में हम हिमालय की आबादी के साथ ही हिमालय को भी खो देंगे.
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