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विदेशों में अधिक फल-फूल रहा सत्त्रिया नृत्य : भवानंदा बरबायन

विदेशों में अधिक फल-फूल रहा सत्त्रिया नृत्य : भवानंदा बरबायन

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नई दिल्ली, 29 नवंबर (आईएएनएस)| असम का पारंपरिक सत्त्रिया नृत्य समृद्ध होने के साथ ही काफी प्राचीन है और इसके महत्व को देखते हुए वर्ष 2000 में इस नृत्य को भारत के आठ शास्त्रीय नृत्यों में शामिल किया गया था। लेकिन मौजूदा परिदृश्य में इसकी चमक कहीं खो सी गई है तो वहीं विदेशों में यह खूब फल-फूल रहा है।

सत्त्रिया नृत्य को विदेशों तक पहुंचाने वाले प्रसिद्ध सत्त्रिया नर्तक भवानंदा बरबायन ने आईएएनएस को एक खास बातचीत में बताया, "भारतीय शास्त्रीय नृत्य-संगीत को भारत से अधिक विदेशों में कहीं अधिक सम्मान मिल रहा है, क्योंकि वहां के लोग अधिक जागरूक हैं और यहां की संस्कृति और कलाओं को बहुत आदर-सत्कार देते हैं।"

500 सालों पुरानी यह कला असम के वैष्णव मठों से शुरू हुई है, जिन्हें 'सत्रा' के नाम से जाना जाता है। इस नृत्य के संस्थापक महान संत श्रीमनता शंकरदेव हैं।

इस कला के साथ किस तरह जुड़ना हुआ, इस बारे में बात करते हुए भवानंदा ने बताया, "मैं अपने परिवार की सातवीं पीढ़ी हूं जो इस नृत्य से जुड़ी आई है। मैं जब साढ़े तीन साल का था तो मुझे मेरी मां और पिता ने असम की सत्रा (मठ) में भेज दिया था। मैंने यहां नृत्य और संगीत सीखना शुरू कर दिया था। असम में 900 से अधिक सत्रा हैं। मेरे सत्रा का नाम उत्तर कमलावाड़ी सत्र है। मैंने कोलकाता की रवींद्र भारती विश्वविद्यालय से नृत्य में पीएचडी भी की है।"

भवानंदा ने फ्रांस, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, पुर्तगाल, बांग्लादेश आदि सहित कई देशों में प्रस्तुतियां दे चुके हैं। उन्होंने प्रसिद्ध फ्रांसीसी फिल्म निर्माता इमानुएल पेटिट के माजुली पर आधारित वृत्तचित्र का संगीत निर्देशित कर चुके हैं, जिसका शीर्षक 'डांस लेस र्डयूम्स डी माजुली' था, जिसमें वह अभिनय करते भी नजर आए थे।

युवा पीढ़ी में शास्त्रीय नृत्य-संगीत को लेकर अधिक जोश नहीं देखने को मिलता है। इस बारे में भवानंदा ने कहा, "नई पीढ़ी को अपनी परंपरा से रूबरू करना माता-पिता की जिम्मेदारी है। अगर मां-बाप छोटी उम्र से ही उन्हें संस्कृति परंपराओं की जानकारी देते हैं तो बच्चे रुचि लेते हैं। मैंने बहुत सारे बच्चों को शास्त्रीय नृत्य-संगीत में रुचि लेते देखा है, लेकिन यह उनके माता-पिता पर निर्भर करता है।"

सरकार की उपेक्षा क्या शास्त्रीय नृत्य-संगीत से युवा पीढ़ी को दूर करने की वजह है? उन्होंने कहा, "नहीं, ऐसा नहीं है। हमारी सरकार के पास योजनाएं और संबंधित विभाग हैं। सरकार द्वारा कई सारे संस्थान भी बनाए गए हैं। लेकिन कार्यान्वयन की कमी है, क्योंकि लोग ध्यान नहीं देते हैं। कभी-कभी सबसे अधिक महत्वपूर्ण चीज लोगों का ध्यान..उनकी जागरूकता होती है। हमारे पास सबकुछ है। अगर हम ध्यान देंगे और संसाधनों का इस्तेमाल करेंगे तो बदलाव संभव है।"

वह कहते हैं, "इससे उलट विदेशों में ऐसा नहीं है, वहां के लोग बहुत जागरूक हैं। विदेशों में लोग अपने आसपास होने वाली गतिविधियों पर ध्यान देते हैं और उसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।"

भवानंदा ने 16 साल की उम्र से ही सत्त्रिया नृत्य का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था। वह बताते हैं, "असम में अपने सत्रा के अलावा मेरे दिल्ली और गुरुग्राम में भी दो संस्थान है। दिल्ली में मेरी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पास सत्त्रिया अकादमी है और गुरुग्राम में मेरी सत्रा महासभा नामक संस्था है।"

उन्होंने कहा, "असम के विश्वविद्यालय के अलावा मैं जेएनयू, पेरिस की एट यूनिवर्सिटी, अमेरिका की ड्रेकसिल यूनिवर्सिटी और लंदन के किंग्स कॉलेज से जुड़ा हूं। मैं अलग-अलग देशों में जाकर क्लासेस वर्कशॉप भी करता हूं।"

आप सत्त्रिया का क्या भविष्य देखते हैं? इस पर भवानंदा कहते हैं, "हम आशावादी प्राणी हैं। मैं देख रहा हूं कि नई पीढ़ी इसमें रुचि ले रही है। मैं जब बाहर जाता हूं तो वहां जोरदार काफी स्वागत होता है। विभिन्न सत्त्रिया संस्थानों में भी आजकल बहुत लोग सत्रिय सीखने के लिए आ रहे हैं।"

उन्होंने कहा, "मेरा लक्ष्य न केवल सत्त्रिया, बल्कि संपूर्ण भारतीय शास्त्रीय नृत्य-संगीत को आगे ले जाना है। विदेशों में भारतीय कला इसीलिए अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि यह शरीर को स्वस्थ करने के साथ ही आपके अंदर आध्यात्मिक रूप में सकारात्मक ऊर्जा भरती है।"

(ये खबर सिंडिकेट फीड से ऑटो-पब्लिश की गई है. हेडलाइन को छोड़कर क्विंट हिंदी ने इस खबर में कोई बदलाव नहीं किया है.)

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