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नालंदा चांसलर के तौर पर अमर्त्य सेन को नहीं मिली 5 लाख की सैलरी

सोशल मीडिया पर दावा किया जा रहा है कि अमर्त्य सेन को 5 लाख रुपये प्रतिमाह सैलरी मिलती थी

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दावा

सोशल मीडिया पर कई पोस्ट ऐसा दावा कर रहे हैं कि अर्थशास्त्री और नोबेल प्राइज विजेता अमर्त्य सेन को 5 लाख रुपये प्रतिमाह सैलरी मिलती है. इन पोस्ट में ये भी कहा जा रहा है कि विदेश में रहते हुए वो नालंदा यूनिवर्सिटी के चांसलर रहे और इसका पूरा खर्चा 2729 करोड़ का रहा.

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इसके साथ ही, इस पोस्ट में 4 फैकल्टी मेंबर को रखने की भी बात कही गई है, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी उपिंदर सिंह शामिल हैं.

ये पोस्ट फेसबुक पर भी काफी वायरल हो गया है.

दावा सच या झूठ?

डिटेल्ड रिसर्च करने पर पता चलता है कि सोशल मीडिया पर किए जा रहे ये दावे झूठे हैं.

ट्विटर यूजर @samjawed65 ने भी TOI की जर्नलिस्ट भारती जैन के ट्वीट्स का जवाब देते हुए एक थ्रेड में इन दावों को झूठा ठहराया. ध्यान देने वाली बात है कि जैन के ट्वीट्स अब डिलीट हो चुके हैं.

हमें रिसर्च में क्या मिला?

अमर्त्य सेन 2015 तक नालंदा यूनिवर्सिटी के चांसलर रहे हैं. इस दौरान उन्हें कोई सैलरी नहीं मिली. ये दावा द हिंदू की रिपोर्ट ने किया है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी के आरोपों का जवाब देते हुए यूनिवर्सिटी ने अपने बयान में कहा था कि इस दौरान नालंदा यूनिवर्सिटी से सेन को कोई सैलरी नहीं मिली.

इससे साफ होता है कि दावों के उलट, उन्हें 5 लाख रुपये की प्रतिमाह सैलरी नहीं मिली.

दूसरा, उनकी विदेश यात्राओं को यूनिवर्सिटी की तरफ से फंड नहीं किया गया. बल्कि, द हिंदू की इसी रिपोर्ट के मुताबिक, उन्हें नोबल प्राइज मिलने की खुशी में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरफ से एयर इंडिया का फ्री पास दिया गया था.

अब उस दावे की बात करते हैं, जिसमें कहा गया है कि उन्होंने 'विदेश में रहते हुए यूनिवर्सिटी का काम किया'. नालंदा यूनिवर्सिटी एक्ट, 2010 स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है कि वाइस चांसलर यूनिवर्सिटी का प्रिंसिपल एकैडमिक और एग्जीक्यूटिव ऑफिसर होगा. इसका मतलब है कि वाइस चांसलर ही यूनिवर्सिटी के एडमिनिस्ट्रेशन का सारा काम देखेगा, जबकि चांसलर यूनिवर्सिटी का हेड होता है.

इसके अलावा, एक्ट में ये भी लिखा गया है कि चांसलर 'अगर मौजूद है, तो गवर्निंग बोर्ड की मीटिंग और कॉन्वोकेशन की अध्यक्षता करेगा.'

दावों में भारी-भरकम 2,729 करोड़ रुपये खर्च करने की भी बात कही गई है, लेकिन 20 जनवरी को पब्लिश हुई प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो (PIB) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, नालंदा यूनिवर्सिटी को 2727.10 करोड़ रुपये के फाइनेंशियल सपोर्ट देने का प्रस्ताव था, जिसे 2021-22 तक आवंटित किया गया.

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चार फैकल्टी मेंबर्स की नियुक्ति की बात करें तो ये ध्यान देने वाली बात है कि डॉ गोपा सभरवाल को यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर के तौर पर नियुक्त किया गया था. अमर्त्य सेन ने 2010 में एक इंटरव्यू में साफ किया था कि सलेक्शन कमेटी के लंबे डिस्कशन के बाद उनका चुनाव किया गया था. डॉ अंजना शर्मा फाउंडिंग डीन (अकैडमिक प्लानिंग) हैं.

इस पोस्ट में ये भी दावा किया गया है कि 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद अमर्त्य सेन को पद से हटा दिया गया.

हालांकि, नालंदा यूनिवर्सिटी एक्ट में साफ-साफ लिखा है कि सभी चांसलर के कार्यकाल की एक समय-सीमा होती है- जो कि तीन साल है. सेन को 2012 में यूनिवर्सिटी का चांसलर नियुक्त किया गया था.

इसके अलावा, द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुतिबाक, सेन ने 2015 में खुद ही नालंदा यूनिवर्सिटी को एक लेटर लिख सेकेंड टर्म के लिए मना कर दिया था.

नालंदा यूनिवर्सिटी के प्रशासन ने उनके कार्यकाल को एक और कार्यकाल तक बढ़ाने का फैसला किया था, हालांकि, समय पर राष्ट्रपति से सहमति नहीं मिलने पर, सेन ने आगे जारी रखने से मना कर दिया.

नालंदा यूनिवर्सिटी के हित में मैंने फैसला लिया है कि जुलाई के बाद, मुझे खुद को चांसलर बने रहने की दौड़ से अलग कर लेना चाहिए.
अमर्त्य सेन

इन सबसे साफ होता है कि सोशल मीडिया पर वायरल पोस्ट में किए गए दावे फेक हैं.

(इन दावों की सच्चाई सबसे पहले @samjawed65 ने अपने ट्वीट्स में बताई थी)

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