वीडियो एडिटर : शुभम खुराना
बिहार के अररिया जिले के आमगाछी में 35 साल की आशा कार्यकर्ता बबीता देवी गांवों में घर-घर जाकर सर्वे करती हैं. ये पता लगाती हैं कि कहीं कोई कोरोना का मरीज तो नहीं.
पिछले 16 महीनों से बबीता देवी महामारी को लेकर लोगों को जागरुक करते हुए फ्रंटलाइन वर्कर की भूमिका निभा रही हैं. लोगों से वैक्सीन लेने को कह रही हैं और प्रशासन को गांव में कोरोना केस की जानकारी दे रही हैं.
देवी की शिकायत है कि मेहनत से काम करने के बाद भी प्रशासन उन्हें नजरअंदाज करता है. उन्हें न सिर्फ मेहनत के मुकाबले काफी कम पैसा मिलता है, आशा कार्यकर्ताओं को सुरक्षा के पर्याप्त उपकरण भी नहीं दिए जाते.
हमें कोरोनावायरस को लेकर सर्वे करने के लिए कहा गया. मास्क और ग्लब्स भी दिए गए. हमसे कहा गया था कि ऐसे लोगों को चिन्हित करना है जिन्हें सर्दी और बुखार हो. लेकिन, लोगों का तापमान चेक करने के लिए हमारे पास कोई उपकरण नहीं था.बबीता देवी, आशा कार्यकर्ता
नहीं मिलता 'जायज वेतन'
बबीता देवी कहते हैं कि जब कोई अपने घर से बाहर नहीं निकल रहा था, तब अपनी जान खतरे में डालकर आशा कार्यकर्ता काम कर रही थीं.
''जब हम सर्वे के लिए बाहर जाते थे, उस वक्त कोई भी अपने घर से बाहर नहीं निकल रहा था. हमने इस काम के लिए अपनी जान को खतरे में डाला. हम काम करते हैं और हमें महीने के 1000 रुपए मिलते हैं. सरकार हमें उतना वेतन नहीं देती जितनी हम मेहनत करते हैं.''
हेल्थ एक्टिविस्ट के रूप में आशा कार्यकर्ता का काम होता है स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़ी जरूरी जानकारी लोगों तक पहुंचाना और उन्हें जागरुक करना.
ग्रामीण इलाकों में तबीयत बिगड़ने पर या स्वास्थ्य से जुड़ी किसी भी इमरजेंसी के लिए सबसे पहले आशा कार्यकर्ता से ही संपर्क किया जाता है. एक तरह से देखा जाए तो ग्रामीण इलाकों में आशा कार्यकर्ता ही स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ हैं. इसके बावजूद उन्हें पर्याप्त मेहनताना नहीं मिलता.
इतनी मेहनत के बाद भी वेतन को लेकर चिंतित हैं 'आशा'
मेहनत के बदले पर्याप्त वेतन न मिलने की कहानी सिर्फ एक आशा कार्यकर्ता की नहीं है. बीते दिनों आशा कार्यकर्ताओं ने वेतन के मुद्दे पर प्रदर्शन भी किया था. एक अन्य आशा कार्यकर्ता ने हमें बताया कि वे उस काम के पैसे के लिए भी चिंतित हैं, जो कर चुकी हैं.
मेरे जिम्मे 1800 लोगों का सर्वे है और मुझे इसके लिए 3 किलोमीटर दूर जाना होता है. मास्क और ग्लब्स के अलावा यात्रा करने के लिए भी मुझे खुद के पैसे खर्च करने होते हैं. उन्होंने जो मास्क और ग्लब्स दिए उनका उपयोग दोबारा तो नहीं कर सकती न ? कर सकती हूं क्या?आशा देवी, आशा कार्यकर्ता
इस मुद्दे पर जोर डालते हुए वे कहती हैं कि आशा कार्यकर्ताओं को डिलिवरी या इस तरह के अन्य मामलों में कई बार परिवार के साथ ही रुकना होता है. लेकिन कई घरों में उन्हें घुसने तक नहीं दिया जाता.
इस मामले को लेकर जब हमने ब्लॉक कम्युनिटी मोबिलाइजर संदीप कुमार मंडल से संपर्क किया. तो उन्होंने कहा कि आशा कार्यकर्ताओं को पीपीई किट या अन्य सुरक्षा उपकरण की जरूरत नहीं है. क्योंकि वे कोरोना टेस्ट नहीं करतीं.
वे टेस्टिंग का काम नहीं करतीं. सिर्फ सर्वे और उन लोगों को चिन्हित करती हैं जो हॉटस्पॉट या रेड जोन से यात्रा करके आए हैं. जब उन्हें चिन्हित कर लिया जाता है तब चेकअप के लिए हम ANM को भेजते हैं. आशा कार्यकर्ता का काम है सर्वे करना और केस रिपोर्ट करना.संदीप कुमार मंडल, ब्लॉक कम्युनिटी मोबिलाइजर
वेतन या पर्याप्त मेहनताना न मिलने के सवाल पर संदीप कहते हैं कि आशा कार्यकर्ताओं को काम के हिसाब से पैसा दिया जाता है. संदीप ने आगे कहा
''पिछले साल 2020 में, उन्हें तीन महीने के लिए सर्वे का काम दिया गया था, जिसके लिए उन्हें 1,000 रुपए प्रति माह दिए गए थे. सर्वे उन लोगों के लिए कराया गया था जो राज्य के बाहर से आए थे. जिससे ये पता लगाया जा सके कि उनमें कोरोना के लक्षण हैं या नहीं. 2021 में सरकार की तरफ से सर्वे के लिए कोई इंसेंटिव/पैसा नहीं दिया गया. सिर्फ वही पैसा दिया जाता है, जो काम कराया गया है, और ये हमने नियमित तौर पर दिया है.''
महामारी के बीच जिंदगियां बचाने के लिए चिकित्सा बिरादरी चौबीसों घंटे कोशिश में लगी है. लेकिन, ग्रामीण भारत में, अधिकांश काम आशा कार्यकर्ता ही करती हैं. कोरोनावायरस के खिलाफ भारत की लड़ाई में पहली पंक्ति में आशा कार्यकर्ता ही खड़ी दिखाई देती हैं.
उन्हें बस यही चाहिए कि उनकी मेहनत को नजरअंदाज न किया जाए, सुरक्षा के पर्याप्त उपकरण दिए जाएं और अपनी जान खतरे में डालकर जितनी मेहनत वो कर रही हैं उसके मुताबिक पर्याप्त वेतन दिया जाए.
(रिपोर्टर : सीता कुमारी, वीडियो वॉलेंटियर)
(ये स्टोरी क्विंट के कोविड-19 और वैक्सीन पर आधारित फैक्ट चेक प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जो खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के लिए शुरू किया गया है)
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