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कोरोना के बीच देश के गांवों में फैल रही अफवाहों को क्विंट ने कैसे दूर किया

वीडियो वॉलंटियर्स के अनुमान के मुताबिक, हमारा कंटेंट यूपी, एमपी और बिहार के करीब 25 लाख लोगों तक पहुंचा.

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कोरोना (Corona) महामारी की दूसरी लहर के दौरान यानी साल 2021 की गर्मियों में, भारत Covid-19 को लेकर कई चुनौतियों से जूझ रहा था, जैसे कि कोरोना की दूसरी लहर घातक थी और गलत सूचना से वैक्सीन को लेकर झिझक बढ़ रही थी. साथ ही, विशेषकर भारत के दूरदराज इलाकों में कोरोना और वैक्सीन को लेकर सही और सत्यापित जानकारी कम ही पहुंच रही थी.

ग्रामीण इलाकों में लोगों को सोशल मीडिया या मौखिक रूप से जो जानकारी मिलती थी वो अक्सर वेरिफाइड या सही नहीं होती थी, जिससे उनमें तरह-तरह के भ्रम फैल गए.

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ऐसी स्थिति में क्विंट ने आगे आकर एक साल तक चलने वाला प्रोजेक्ट शुरू किया, ताकि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और असम के ग्रामीण इलाकों में कोविड और वैक्सीनेशन से संबंधित गलत और भ्रामक जानकारी का सच पहुंचाया जा सके.

ये प्रोजेक्ट गूगल न्यूज इनीशिएटिव के सपोर्ट से, अप्रैल 2021 में शुरू किया गया था. ये वो समय था जब देश में हर रोज कोरोना के मरीजों की संख्या बढ़ रही थी और देश के ग्रामीण इलाके कोरोना की दूसरी लहर की गिरफ्त में आ रहे थे.

हमारा उद्देश्य था कि इन इलाकों में सबसे वंचितों में शामिल ग्रामीण महिलाओं की मदद की जा सके. इसलिए हमने असम में ग्राउंड पर काम कर रहे संगठनों, वीडियो वालंटियर्स, खबर लहरिया, रेडियो ब्रह्मपुत्र और बोट क्लीनिक के साथ पार्टनिरशिप की.

गलत सूचना का पता कर उसका सच बताना प्रोजेक्ट का था अहम हिस्सा

वीडियो वॉलंटियर्स ने अपने कम्युनिटी करेस्पॉन्डेंट (CCs) की मदद से उन गलत और भ्रामक जानकारी और अफवाहों को हम तक पहुंचाया जो बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के समुदायों में फैली हुई थीं. ये जानकारी हमें क्विंट पर सभी डिजिटल मीडिया माध्यमों का इस्तेमाल कर भेजी जाती थीं. इस माध्यम में एक आसानी से नेविगेट होने वाली माइक्रोसाइट भी शामिल है.

संगठन के प्रोजेक्ट मैनेजर जहीन सिंह ने इन करेस्पॉन्डेंट के साथ मिलकर काम किया, ताकि हम तक ये अफवाहें और भ्रामक जानकारी पहुंचाई जा सके.

कम्युनिटी करेस्पॉन्डेंट मुझे हर वो गलत सूचना या जानकारी भेजते थे जो उन्हें किसी वॉट्सएप ग्रुप किसी स्थानीय न्यूजपेपर में मिलती थीं. वो उन अफवाहों को भी मेरे साथ शेयर करते थे जो समुदायों में मौखिक तौर पर फैल रही थीं. इन्हें मैं क्विंट टीम को भेजता था.
जहीन सिंह, वीडियो वॉलंटियर्स
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जहीन सिंह के मुताबिक, एक अनुमान के अनुसार यूपी, एमपी और बिहार राज्यो में सीसी 2000 से ज्यादा वॉट्सएप ग्रुप का हिस्सा थे. सिंह ने ये भी बताया कि करेस्पॉन्डेंट मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (ASHA) और सरपंचों के लगातार संपर्क में थे, ताकि वो समुदायों के साथ बेहतर तरीके से जुड़ सकें.

इन सभी गलत सूचनाओं की पूरी तरह से पड़ताल कर, हमारी फैक्ट चेकिंग और हेल्थ टीम ने उन पर स्टोरी, वीडियो, पॉडकास्ट और शेयर करने लायक कार्ड बनाए.

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हमने इन अफवाहों की पड़ताल कर इनका सच पता लगाने के लिए, वायरोलॉजिस्ट, एपिडिमियॉलजिस्ट, रिसर्चर्स, डॉक्टर्स और वैज्ञानिकों जैसे टॉप स्पेशिलिस्ट के साथ मिलकर काम किया. हमने अपने पार्टनर्स की मदद से ग्राउंड पर जाकर लोगों से सवाल पूछे और उनके जवाब डॉक्टरों से पूछे.

इससे हमें ग्रामीण क्षेत्रों के उन लोगों में भरोसा बढ़ाने और उनको जागरूक करने में मदद मिली, जिनकी स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित पहुंच थी.

जहां वीडियो वॉलंटियर्स ने हमें अफवाहें और गलत जानकारी उपलब्ध करा उनका फैक्ट चेक लोगों तक पहुंचाने में मदद की. वहीं हमारे अन्य पार्टनर खबर लहरिया, जो कि ग्रामीण महिलाओं के नेतृत्व वाला न्यूज पब्लिशर है, ने भी प्रसार में एक अहम भूमिका निभाई.

खबर लहरिया के साथ काम करने वाली और इस प्रोजेक्ट का हिस्सा रही, हर्षिता वर्मा कहती हैं, ''ग्रामीण इलाकों में लोग जानकी दीदी वाले कैरेक्टर (एक ग्रामीण महिला का कैरेक्टर, जिसे क्विंट ने डेवलप किया है) के साथ अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं. वॉट्सएप पर हमने जो कार्ड शेयर किए, लगातार लोगों तक पहुंचने की वजह से उनका भी असर लोगों पर अच्छा रहा.

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वर्मा ने बताया कि उन्हें सोशल मीडिया पर ऐसे कई कमेंट मिले जिनमें हमारे प्रयास को "फायदेमंद" बताते हुए इसकी सराहना की गई.

लोगों से ठीक से जुड़ने के लिए, हमने जानकी दीदी और टीचर दीदी जैसे कैरेक्टर बनाए, जो गलत सूचनाओं का सच लोगों को बताती हैं और चीजों को सरल और प्रभावी तरीकों से समझाती हैं.

सिंह ने भी कहा, ''हम ये पक्का करना चाहते थे कि लोग उस सामग्री से जुड़ें जो उनके साथ शेयर की जा रही थी. इसलिए, हमने अपने करेस्पॉन्डेंट से इन अफवाहों के बारे में लोगों से बात करने और उनका सच बताने के लिए कहा. हमने 'जानकी दीदी' के पोस्टर छपवाए और उन पोस्टर पर जानकारी भी छपवाकर, इन्हें लोगों में बांटा.

इनमें से कई स्टोरी इन करेस्पॉन्डेंट की मदद से स्थानीय न्यूजपेपर में भी पब्लिश हुईं और उन्हें स्थानीय चैनलों पर भी प्रसारित किया गया.

हालांकि, मुख्य रूप से सामग्री को हिंदी में तैयार किया गया था, लेकिन हमारे पार्टनर्स की मदद से हमने कुछ स्टोरीज को भोजपुरी और असमिया जैसे अन्य स्थानीय भाषाओं में भी ट्रांसलेट किया.

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ऑफलाइन गतिविधियां और ऑनलाइन प्रयास, दोनों किए एक साथ

खबर लहरिया ने जहां ऑनलाइन सामग्री उपलब्ध कराने में हमारी मदद की, वहीं वीडियो वॉलंटियर्स और रेडियो ब्रह्मपुत्र ने ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरीकों से काम किया.

वीडियो वॉलंटियर्स की फाउंडर डायरेक्टर, जेसिका मेबेरी ने कहा कि हमारी सामग्री के प्रभाव को बेहतर ढंग से मापने के लिए, जो ऑनलाइन पहल चलाई गई उसके साथ ही सामग्री के ऑफलाइन वितरण ने अहम भूमिका निभाई.

कुछ ऑफलाइन गतिविधियां जो हमने कीं उनमें से थी 'जान जाओ' की स्क्रीनिंग. इसमें हमने ऑटोरिक्शा में लाउडस्पीकर लगाकर फैक्ट चेक बताए. हमने आशा कार्यकर्ताओं के साथ लाइव ट्रेनिंग और बातचीत की. बच्चों के लिए वैक्सीनेशन शुरू हुआ, तो हम स्कूलों में गए.
जेसिका मेबेरी, वीडियो वॉलंटियर्स

'जान जाओ, जान बचाओ' अभियान का उद्देश्य COVID-19 के बारे में लोगों को जागरूक करना था . संगठन के अनुमान के अनुसार, उनके करीब 43 करेस्पॉन्डेंट 403 गांवों के 3,48,400 लोगों तक पहुंचने में सक्षम थे.

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संगठन के एक अन्य अनुमान से पता चलता है कि क्विंट की बनाई गई सामग्री में से कम से कम एक सामग्री 25 लाख लोगों तक पहुंची.

असम में मौजूद हमारे दूसरे पार्टनर रेडियो ब्रह्मपुत्र और बोट क्लीनिक ने रेडियो प्रसारण और नैरो ब्रॉडकास्टिंग यानी लोगों के पास जा-जाकर फैक्ट चेक शेयर किए. रेडियो स्टेशन और बोट क्लीनिक के साथ हमारी पार्टनरशिप से हम नदी टापू में रहन वाले उन लोगों तक पहुंच सके जिनके पास सीमित जानकारी थी.

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चुनौतियों से कैसे निपटे हम

ये प्रोजेक्ट ऐसे समय में शुरू किया गया था जब मामले बढ़ रहे थे और लोग डरे हुए थे.

ऐसे समय में, हमारे ग्राउंड पर मौजूद पार्टनर्स के लिए गांवों में जाकर लोगों को वैक्सीन के प्रति जागरूक करना और उन्हें कोरोना महामारी को खत्म करने के लिए जरूरी कदम उठाने के लिए मनाना एक मुश्किल भरा काम था.

सिंह ने कहा, ''लोगों ने हमारी बात नहीं सुनी. हमारे पास ऐसे उदाहरण हैं जब 50 से 60 की उम्र वाली महिलाओं ने टीके से मौत होने का डर बता वैक्सीन लेने से मना कर दिया. वो हमारी बात नहीं मानते थे और कभी-कभी तो हमें दूर भी भगा देते थे. लेकिन हम फिर भी अपना काम करते रहे और उन्हें उदाहरण की मदद से वैक्सीन के फायदे बताए.''

उन्होंने कहा कि जब हमने इन अफवाहों का सच बताने वाले फैक्ट चेक उन्हें बताए और लोगों को वैक्सीन के फायदे बताए, तो स्थानीय लोगों में वैक्सीन को लेकर झिझक कम हुई.

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हमने ये भी देखा कि कैसे कुछ अफवाहें जो ऑनलाइन वायरल थीं, वो ऑफलाइन पहुंच गईं यानी लोग उन पर बातें करने लगे, जैसे कि टीके से बांझपन, फिटकरी, नींबू और नमक-प्याज से कोविड ठीक करने से जुड़ी अफवाहें.

लेकिन, इन चुनौतियों को पार करते हुए, 12 महीनों में हमने वैक्सीन को लेकर लोगों की राय और रुख में एक बड़ा बदलाव देखा.

23 फरवरी से 21 मार्च 2022 के बीच हमने जिन लोगों को सर्वे किया, उनमें से 82 प्रतिशत का कहना था कि वैक्सीन के फायदों के बारे में क्विंट और वीडियो वॉलंटियर्स से जो वेरिफाइड और फैक्ट चेक की गई जानकारी उन्हें मिली, उससे वो टीका लगवाने के लिए आगे आए.

पहले सर्वे के मुताबिक जहां लोगों में वैक्सीन को लेकर बहुत ज्यादा झिझक थी, वहीं इस सर्वे के रिजल्ट के मुताबिक लोगों में वैक्सीन को लेकर झिझक बहुत हद तक कम हुई है.

असम में भी हमने वैक्सीन के प्रति झिझक कम होते देखी और सर्वे में शामिल ज्यादातर लोगों ने इस बात पर अपनी सहमति जताई कि हमारी ओर से शेयर की गई सामग्री की वजह से फैली जागरूकता ने इसमें अहम भूमिका निभाई.

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ये चुनौतियां सिर्फ स्थानीय समुदायों तक ही सीमित नहीं थीं. मेबेरी ने बताया कि इस प्रोजेक्ट के लिहाज से आशा कार्यकर्ताओं पर भरोसा करना एक अहम चीज थी क्योंकि स्थानीय लोग उन पर भरोसा करते हैं. लेकिन उन्हें ट्रेनिंग देना भी एक चुनौती थी.

''आशा कार्यकर्ताओं में बहुत सारा पोटेंशियल है और करेस्पॉन्डेंट ने कई को ट्रेनिंग दी. इसकी वजह ये है कि हमें लगा कि वो भरोसेमंद फ्रंटलाइन कार्यकर्ता हैं और आमतौर पर सिर्फ सेवाएं प्रदान करती हैं, लेकिन क्या कोई उनकी बातचीत करने के हुनर को देखकर, उन्हें बातचीत के हुनर में और अच्छा करने में मदद कर सकता है. क्योंकि ये वो लोग हैं जो गलत सूचनाओं का मुकाबला कर सकती हैं. डिजिटल स्किल की कमी भी काफी चुनौतीपूर्ण थी.''
जेसिका मेबेरी, वीडियो वॉलंटियर्स

वीडियो वॉलंटियर्स की मदद से, हमने उन चुनौतियों को भी डॉक्युमेंटेड किया जिनका सामना आशा कार्यकर्ताओं ने महामारी के दौरान किया था.

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नए तरीकों को अपनाकर हमने पाया अपना लक्ष्य

अक्सर ये कहा जाता है कि गलत सूचना को इस तरह से पेश किया जाता है कि किसी सूचना की तुलना में ये ज्यादा तेजी से फैलती है.

ऐसे में हमारी पूरी सामग्री को नीचे दिए गए बिंदुओं के आधार पर बनाना एक बड़ा काम था:

  • तथ्यात्मक रूप से सटीक

  • इंगेजिंग यानी जिसे पढ़ने में लोग रुचि लें

  • नयापन

इसलिए, हमने ऐसे कैरेक्टर्स को लेकर वीडियो बनाए, जिससे हमारे दर्शक जुड़ाव महसूस कर सकें. हमने सरल भाषा का इस्तेमाल किया. हमने कुछ अफवाहों का सच बताने के लिए एक्सपर्ट्स की राय लेने की कोशिश की.

हमने आम लोगों तक पहुंचने के लिए जिंगल और स्किट भी बनाए. संदेश साफ था कि तथ्यों पर विश्वास करें, अफवाहों पर नहीं.

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