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सोशल मीडिया पर 'फेक न्यूज', 2022 में कैसा प्रभाव डाल सकती हैं?

रिसर्चर्स ने सोशल मीडिया पर फेक न्यूज के बढ़ने से जुड़ी बातें की हैं, ताकि ये बता सकें कि 2022 में क्या हो सकता है

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2020 के आखिर में आते-आते कोविड (Covid-19) और राष्ट्रपति चुनाव से जुड़ी कई फेक दावे वायरल हुए. लेकिन ये अंदाजा लगाना कठिन था कि आने वाला साल सोशल मीडिया पर फैल रही अफवाहों को लेकर और बदतर हो जाएगा. 2021 के शुरू होते ही कोविड-19 वैक्सीन से जुड़ी भ्रामक सूचनाएं वायरल हुईं.

2022 में क्या हो सकता है, इसके बारे में जानने के लिए हमने तीन रिसर्चर्स से बात की ताकि पता लगा सकें कि सोशल मीडिया पर गलत सूचनाएं और कितनी बढ़ सकती हैं.

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रेगुलेशन न होने की वजह से गलत सूचनाएं और बढ़ेंगी

गलत सूचनाएं मीडिया में हमेशा से मौजूद रही हैं. जैसे 1835 के ग्रेट मून होक्स के बारे में सोचिए, जिसमें दावा किया गया था कि चंद्रमा में जीवन की खोज की गई थी. हालांकि, सोशल मीडिया आने के बाद गलत सूचना का दायरा, प्रसार और पहुंच में काफी बढ़ोतरी हुई है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को इस्तेमाल पब्लिक इनफॉर्मेशन के तौर पर किया जाने लगा है. सोशल मीडिया तय करता है कि लोग दुनिया को किस तरह से देखें. इसलिए, सूचनाएं गलत तरह से पेश की जाती हैं जिससे समाज के लिए ये एक मूल समस्या के तौर पर उभर कर सामने आई है.

गलत सूचनाओं के बारे में बात करने पर दो मुख्य चुनौतियां सामने आती हैं. पहली है, ऐसे रेगुलेटरी मैकेनिजम की कमी जो इसके बारे में लोगों को सावधान कर सके.

गलत सूचनाओं से जुड़ी चुनौतियों का समाधान करने में जरूरी है कि पारदर्शिता जरूरी की जाए और यूजर्स को डेटा से जुड़ा ज्यादा ऐक्सेस और कंट्रोल दिया जाए.

हालांकि, सोशल मीडिया एल्गोरिदम का आकलन करने वाले टूल के साथ-साथ स्वतंत्र ऑडिट की भी जरूरत है. इनकी मदद से तय कर सकते हैं कि कैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म न्यूज फीड क्यूरेट करते हैं और कैसे लोग किसी सूचना को देखते हैं और उस कंटेंट का किस तरह से असर पड़ता है.

दूसरी चुनौती ये है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की ओर से इस्तेमाल किए जाने वाले एल्गोरिदम में नस्लीय और लैंगिक पूर्वाग्रह, गलत सूचना की समस्या को बढ़ा देते हैं. हालांकि, सोशल मीडिया कंपनियों ने सूचना के आधिकारिक सोर्स को उजागर करने के लिए, मैकेनिजम इंट्रोड्यूस किए हैं. फिर भी, किसी गलत सूचना में उसके गलत होने से जुड़ा लेबल लगाने जैसे समाधान भी नस्लीय और लैंगिक पूर्वाग्रहों को हल नहीं करते.

उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के प्रासंगिक सोर्स को हाइलाइट करने से सिर्फ उन यूजर्स की मदद होगी जो हेल्थ लिटरेसी के मामले में बेहतरा है, उनकी मदद नहीं होगी जो कम स्वास्थ्य साक्षरता वाले लोग हैं. ऐसे लोग अनुपातहीन रूप से अल्पसंख्यक होते हैं.

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एक और समस्या ये भी है कि यूजर्स को गलत सूचना कहां से मिल रही है, इस पर भी व्यवस्थित रूप से गौर किया जाए. उदाहरण के लिए, TikTok काफी हद तक सरकारी जांच से बच गया है. इसके अलावा, अल्पसंख्यकों को टारगेट करने वाली गलत सूचनाएं, विशेष रूप से स्पैनिश भाषा की सामग्री, बहुसंख्यक समुदायों को टारगेट करने वाली गलत सूचना से ज्यादा खराब होती हैं.

मेरा मानना है कि स्वतंत्र ऑडिट की कमी, फैक्ट चेकिंग में पारदर्शिता की कमी और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले नस्लीय और लैंगिक पूर्वाग्रहों से पता चलता है कि 2022 में रेगुलेटरी एक्शन की तुरंत है.

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बढ़ता भेदभाव और निंदा

डैम ही किम, कम्यूनिकेशन के असिस्टेंट प्रोफेसर, एरिजोना यूनिवर्सिटी

''फेक न्यूज'' कोई नई बात नहीं है, फिर भी हाल के सालों में ये अलग ही स्तर पर पहुंच चुकी है. कोविड-19 से जुड़ी गलत सूचनाओं की वजह से दुनिया भर में अनगिनत लोगों की जान गई है. चुनावों से जुड़ी झूठी और भ्रामक खबरों से लोकतंत्र की नींव हिल सकती है. उदाहरण के लिए, लोगों का राजनीतिक व्यवस्था से विश्वास खोना. एस मो जोन्स-जंग और केट केंस्की के साथ मैंने जो चुनावों के दौरान फैली गलत सूचनाओं से जुड़ी रिसर्च की है, उनमें से कुछ पब्लिश हो चुके हैं और कुछ होने बाकी हैं. इस रिसर्च में तीन प्रमुख निष्कर्ष निकले हैं.

पहला ये कि सोशल मीडिया को मूल रूप से लोगों को आपस में जोड़ने के लिए डिजाइन किया गया था, लेकिन ये सामाजिक अलगाव को बढ़ावा दे सकता है. सोशल मीडिया गलत सूचनाओं से भरा हुआ हो गया है.

इसकी मदद से उन नागरिकों तक पहुंचा जा सकता है जो सोशल मीडिया पर न्यूज देखते हैं. इससे वो न सिर्फ राजनेताओं और मीडिया जैसे स्थापित संस्थानों के प्रति, बल्कि साथी मतदाताओं के भी द्वेष भावना से भर जाते हैं.
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दूसरा, राजनेता, मीडिया और मतदाता ''फेक न्यूज'' से बलि का बकरा बन गए हैं और नुकसान उठाते हैं. इनमें से कुछ वास्तव में गलत सूचनाएं फैलाते हैं. ज्यादातर गलत सूचनाएं विदेशी संस्थाओं और पॉलिटिकल फ्रिंज ग्रुप की ओर से बनाी जाती हैं. ये वित्तीय या वैचारिक उद्देश्यं को पूरा करने के लिए ''फेक न्यूज'' बनाते हैं. फिर भी वो नागरिक जो सोशल मीडिया पर न्यूज देखते हैं, वो राजनेताओं, मीडिया और दूसरे मतदाताओं को दोष देते हैं.

तीसरा निष्कर्ष ये है कि जो लोग ठीक और पूरी जानकारी चाहते हैं, वो गलत सूचना से सुरक्षित नहीं है. जो लोग बेहतर और सार्थक तरीके से जानकारी को पढ़ना और समझना पसंद करते हैं, वो राजनीतिक रूप से कम जानकारी वाले लोगों की तुलना में कथित ''फेक न्यूज'' के संपर्क में आने के बाद राजनीतिक रूप से ज्यादा निंदक हो जाते हैं. ये आलोचनात्मक विचारक इतनी सारी झूठी और भ्रामक सूचनाओं के फेर में आकर निराश हो जाते हैं. ये इसलिए परेशान करने वाला है क्योंकि लोकतंत्र विचारशील नागरिकों की भागीदारी पर निर्भर करता है.

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2022 को देखते हुए, इस तरह की निराशावाद को दूर करना जरूरी है. मुख्य रूप से राजनीतिक रूप से कम जानकार लोगों की मदद के लिए, मीडिया साक्षरता हस्तक्षेपों के बारे में काफी चर्चा हुई है.

इसके अलावा, ये जरूरी है कि सोशल मीडिया पर ''फेक न्यूज'' की स्थिति के बारे में ढंग से बताया जाए. विशेष रूप से उनके बारे में भी बताया जाए जो ''फेक न्यूज'' बनाते हैं और ये भी बताया जाए कि क्यों कुछ संस्थाएं और ग्रुप इन्हें बनाते हैं और कौन से अमेरिकन इसे सही मान लेते हैं. इससे लोगों को राजनीतिक रूप से ज्यादा आलोचनात्मक होने से रोका जा सकता है.

विदेशी संस्थाओं और फ्रिंज ग्रुप द्वारा बनाई गई ''फेक न्यूज'' से होने वाले नुकसान की वजह से एक-दूसरे को दोष देने के बजाय, लोगों को एक-दूसरे पर विश्वास बढ़ाने का तरीका खोजने की जरूरत है. गलत सूचनाओं से होने वाले प्रभावों को कम करके सामाजिक अलगाव पर काबू पाने में मदद मिलेगी.

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दूसरे नामों से फैलाया गया प्रोपेगेंडा

एथन जकरमैन, पब्लिक पॉलिसी और कम्यूनिकेशन एंड इनफॉर्मेशन के एसोसिएट प्रोफेसर, यूमस ऐमर्स्ट

मुझे उम्मीद है कि गलत सूचना का विचार 2022 में प्रोपेगेंडा के विचार में बदल जाएगा, जैसा कि समाजशास्त्री और मीडिया स्कॉलर फ्रांसेस्का त्रिपोदी ने अपनी आगामी बुक, “The Propagandist’s Playbook'' ने लिखा है. ज्यादातर गलत सूचनाएं सिर्फ ऐसी गलतफहमी की वजह से नहीं फैलती जो जानबूझकर न की जाती हों. असल में, ये राजनीतिक और वैचारिक एंजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए खास कैंपेन की वजह से होती हैं.

एक बार जब आप समझ जाते हैं कि फेसबुक और दूसरे प्लेटफॉर्म ऐसे युद्ध के मैदान हैं जिन पर समकालीन राजनीतिक कैंपेन लड़े जाते हैं, तो आप इस विचार को छोड़ सकते हैं कि लोगों की गलतफहमी को दूर करने के लिए आपको तथ्यों की जरूरत है.

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जो भी चल रहा है वो किसी चीज को फॉलो करने या धारणा, जाति से संबंधित और सिग्नलिंग का एक जटिल मिश्रण है और ये सोशल मीडिया से लेकर सर्च रिजल्ट तक जारी रहता है.

जैसे-जैसे 2022 के चुनाव नजदीक आएंगे, मुझे उम्मीद है कि फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर गलत सूचनाएं उस लेवल पर पहुंच जाएंगी जब स्थिति काफी खराब हो जाएगी. ऐसा इसिलए क्योंकि कुछ झूठे ऐसे हैं जो किसी पार्टी से जुड़ाव के लिए खास केंद्र बन गए हैं. और ऐसे मे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इसे कैसे मैनेज करेंगे जब झूठी स्पीच ही पॉलिटिकल स्पीच है.

(आर्टिकल में लिखे विचार लेखकों के अपने विचार हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है. ये आर्टिकल मूल रूप से The Conversation पर प्रकाशित हुआ था. मूल आर्टिकल यहां पढ़ें)

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