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मालवीय के ट्वीट पर एक्शन,फेक न्यूज से निपटने में ये कितना कारगर?

क्या वाकई किसी ट्वीट या पोस्ट पर ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ का लेबल लगाने से फेक न्यूज पर लगाम लगाने में मदद मिलती है?

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क्या किसी ट्वीट को ‘मिसलीडिंग’ और ‘मैनिपुलेटेड’ करार देना फेक खबरों से लड़ने का एक प्रभावी तरीका है? बीजेपी आईटी सेल के प्रभारी अमित मालवीय ने कुछ दिनों पहले किसान आंदोलन को लेकर एक ‘प्रोपगैंडा vs रियलिटी’ वीडियो पोस्ट किया था, जिसे ट्विटर ने ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ करार दे दिया. ये पहली बार था जब ट्विटर ने भारत में इस तरह की कार्रवाई की थी.

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इसका मतलब है कि जब कोई यूजर उस ट्वीट को देखेगा, तो उन्हें एक संकेत दिखाया जाएगा, जिसमें बताया जाएगा कि पोस्ट में ऐसी जानकारी है जो पूरी तरह से सटीक नहीं है. ट्विटर की सिंथेटिक और मैनिपुलेटेड मीडिया पॉलिसी के मुताबिक, ट्विटर अपने मंच पर पोस्ट किए गए कंटेंट को रेड-फ्लैग कर देता है, अगर वो भ्रामक होते हैं या तोड़-मोरड़कर पेश किए जाते हैं.

ट्विटर का ये कदम तब सामने आया है जब उसके और फेसबुक जैसी बड़ी टेक कंपनियों पर अपने प्लेटफॉर्म पर फेक न्यूज से निपटने के लिए दबाव बढ़ रहा है.

ट्विटर, मार्च 2020 से अपने प्लेटफॉर्म पर कंटेंट को लेबल कर रहा है, लेकिन ये पहली बार है जब कंपनी ने किसी भारतीय राजनीतिक हस्ती के खिलाफ ये कार्रवाई की हो. अमेरिका में हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनावों में वोटों की गिनती के दौरान भी, ट्विटर ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कई ट्वीट्स को लेबल किया.

लेकिन क्या सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा इस तरह की कार्रवाई, प्लेटफॉर्म पर फेक न्यूज से निपटने में प्रभावी साबित होती हैं? क्या इससे वाकई फेक न्यूज पर लगाम लगाने में मदद मिलती है?

क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स?

क्विंट से बात करते हुए, फेक न्यूज इकोसिस्टम पर लगातार काम कर रहे पॉलिसी रिसर्च एनालिस्ट, प्रतीक वाघरे ने कहा कि शॉर्ट टर्म में ये लेबल कितने प्रभावित होते हैं, ये कहना मुश्किल है, लेकिन इस तरह की कार्रवाई के लिए आधार को समझना जरूरी है.

“अगर वो ऐसी कार्रवाई करते हैं, तो ये समझना जरूरी है कि वो किस आधार पर ऐसा कर रहे हैं, क्योंकि अगर वो पब्लिक प्रेशर में आ कर ऐसा कर रहे तो ये किसी वैल्यू सिस्टम या प्रिसिंपल पर आधारित नहीं है, और ये एक मनमानी कार्रवाई लगेगी.”
प्रतीक वाघरे, पॉलिसी रिसर्च एनालिस्ट

ट्विटर ने मालवीय के जिस ट्वीट को लेबल किया है, उस तीन सेकेंड की क्लिप में एक पुलिसकर्मी एक किसान की ओर डंडा मारते देखा जा सकता है, मालवीय ने इस क्लिप के साथ दावा किया कि “पुलिस ने किसान को छूआ तक नहीं.”

क्विंट ने ट्विटर से संपर्क कर ये जानना चाहा कि कैसे मालवीय के ट्वीट को लेबल किया गया, लेकिन कंपनी ने इसे ‘सिंथेटिक एंड मैनिपुलेटेड मीडिया पॉलिसी’ करार दिया और, लेबल कैसे और क्यों लागू किया गया, इसके लिए कोई विशेष टिप्पणी नहीं दी.

वाघरे का सुझाव है कि इस अस्पष्टता से लोग कुछ भी अनुमान लगाने के लिए फ्री हो जाते हैं, इससे ‘कॉन्सपिरेसी थियोरी’ को बढ़ावा मिलता है. इसमें वो थियोरी भी शामिल हैं जिनमें कहा जाता है कि कंपनी चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर रही है.

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तो क्या ये फेक न्यूज से निपटने का बेस्ट तरीका है?

डेटा, गर्वनेंस और इंटरनेट पर काम कर रहे इंडीपेंडेंट रिसर्चर श्रीनिवास कोडाली का कहना है कि ये कदम अच्छा है, लेकिन इस मुद्दे से निपटने के लिए कंपनियों को और ज्यादा काम करने की जरूरत है.

“मैं इस लेबल के लिए ट्विटर की तारीफ नहीं करूंगा, खासकर तब जब ट्विटर ने ही वेरिफाइड अकाउंट देकर इन लोगों को बढ़ावा दिया है, जो फेक न्यूज और हेट स्पीच फैलाने के लिए जाने जाते हैं.”
श्रीनिवास कोडाली, इंडिपेंडेंट रिसर्चर

ट्रंप के खिलाफ अमेरिका में ट्विटर की कार्रवाई का जिक्र करते हुए, कोडाली ने कहा कि भले ही उनके ट्वीट को लेबल किया गया था, लेकिन इससे ट्रंप के ट्वीट शेयरिंग पर कोई रोक नहीं लगी.

फेसबुक और WhatsApp का भारत में प्रभाव और उनपर शेयर होने वाली फेक न्यूज पर कोडाली ने कहा कि फेसबुक द्वारा उठाए गए कदम भी कम हैं. उन्होंने कहा, “जिस रेट से आईटी सेल द्वारा मैनिपुलेटेड कंटेंट जेनरेट किया रहा है, और जिस रेट से उन्हें मैनिपुलेटेड मीडिया करार दिया जा रहा है, फेसबुक द्वारा किए गए उपाय भी पर्याप्त नहीं हैं.”

अपने प्लेटफॉर्म पर कंटेंट पर लगाम नहीं लगाने के लिए WhatsApp, फेसबुक, ट्विटर जैसी कंपनियों की लंबे समय से आलोचना हो रही है. इन कंटेंट से न केवल ध्रुवीकरण, हेट स्पीच, और लिंचिंग को बढ़ावा मिला है, बल्कि इसके कारण म्यांमार में नरसंहार भी हुआ है.

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फेसबुक पर यूजर्स को 3PFC कार्यक्रम, जिसका क्विंट का वेबकूफ एक हिस्सा है, के जरिए इन लेबल और फैक्टचेक से अवगत कराया गया है, लेकिन हार्वर्ड, येल, एमआईटी और रेजिना यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स की एक स्टडी में कहा गया है कि ये लेबल असल में अनलेबल्ड कंटेंट को सटीक बनाकर बैकफायर कर सकते हैं.

Quartz की एक रिपोर्ट में, स्टडी के को-ऑथर और MIT के स्लोन स्कूल ऑफ बिजनेस में मैनेजमेंट और कॉगनिटिव साइंस के एसोसिएट प्रोफेसर, डेविड रैंड ने कहा कि इस क्षेत्र में काम कर रहे ज्यादातर लोगों का मानना है कि कंटेंट पर चेतावनी देने से लोग ऐसे कंटेंट कम शेयर करते हैं, लेकिन क्योंकि ज्यादातर कंटेंट पर लेबल नहीं लगाया जाता, तो ये सीमित है.

रिसर्चर्स का कहना है कि डिबंक की तुलना में गलत कंटेंट जेनरेट करना ज्यादा आसान है, इसलिए फेक न्यूज को लेबल कर के जो लाभ मिल रहा है, वो अनलेबल्ड कंटेंट को मिल रही वैधता के सामने कमजोर पड़ जाता है.

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अब आगे क्या?

कोडाली का कहना है कि जहां ज्यादातर भार इन टेक कंपनियों पर हैं, संसद, कोर्ट और सरकारों का काम भी यहां उतना ही महत्वपूर्ण है.

“कंपनियों का इसमें बड़ा रोल है, लेकिन हम आज कल जो देख रहे हैं वो ये है कि अगर ट्विटर कानून का पालन करने लगता है, तो आप देखते हैं कि राइट-विंग का एक सेक्शन कहता है कि एक अमेरिकी कंपनी हमें सेंसर करने की कोशिश कर रही है... हम अपने खुद के प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं, जैसा कि टूटर सामने आया है. अब भले लोग प्लेटफॉर्म बदल लें, लेकिन समस्या वही रहेगी. आप इसे तभी रेगुलेट कर सकते हैं, जब संसद, सरकारें और कोर्ट भी कार्रवाई करें.”
श्रीनिवास कोडाली, इंडिपेंडेंट रिसर्चर

12 नवंबर को एक ब्लॉग में, ट्विटर ने डेटा जारी कर बताया कि ये लेबल कितने प्रभावी होते हैं. प्लेटफॉर्म के मुताबिक, लेबल्ड ट्वीट को कोट ट्वीट करने में 29% की गिरावट देखी गई.

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