7 अक्टूबर 2001, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने व्हाइट हाउस से 'Operation Enduring Freedom' लॉन्च किया. अमेरिका कुछ ही घंटों में अफगानिस्तान पर हमला करने जा रहा था. बुश ने कहा था, "हमने इस मिशन को चाहा नहीं था, लेकिन हम इसे पूरा करेंगे.' 20 साल बीत गए हैं और किसी भी लिहाज से अमेरिका का मिशन पूरा नहीं हो पाया है.
अमेरिका ने 9/11 हमलों के जवाब में अफगानिस्तान में अल-कायदा के ठिकानों पर एयरस्ट्राइक्स शुरू की थीं. एक लक्ष्य ओसामा बिन-लादेन को पनाह देने वाले तालिबान की सैन्य क्षमता को खत्म करना भी था. लेकिन 20 साल बाद हालात ये हैं कि अफगानिस्तान में शांति के लिए इसी तालिबान से समझौता करना पड़ रहा है.
अफगानिस्तान को ‘साम्राज्यों की कब्रगाह’ कहा जाता है. ये अतिश्योक्ति हो सकती है पर अमेरिका के सबसे लंबे युद्ध को देखकर इसमें कुछ सच्चाई भी दिखती है. अफगानिस्तान के रक्षा मंत्री रह चुके अहमद शाह मसूद ने अपनी मौत से पहले कहा था, “हम किसी और के खेल में मोहरा नहीं बनेंगे. हम अफगानिस्तान ही रहेंगे.’ सोवियत हमले से लेकर साल 2021 तक, मसूद की कही बात हर दिन सच है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के विचार डोनाल्ड ट्रंप से इस मामले में तो मिलते ही थे कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को वापस बुला लेना चाहिए. बाइडेन के सामने अब सेना को वहां से निकालने के लिए 1 मई की डेडलाइन है. ये ट्रंप ने तालिबान के साथ हुए शांति समझौते में तय की थी. सेना की संख्या बढ़ाए जाने के हमेशा खिलाफ रहे बाइडेन भी जानते हैं कि इस डेडलाइन पर अमल नहीं किया जा सकता और इसलिए वो अपनी 'शांति योजना' पर काम कर रहे हैं. बाइडेन पाकिस्तान, चीन, रूस, ईरान और भारत के साथ मिलकर अफगानिस्तान के नेतृत्व से शांति पर बात करना चाहते हैं. इसमें भारत का नाम काफी जद्दोजहद के बाद शामिल हुआ है. अफगानिस्तान में अच्छा-खासा निवेश करने के बाद भी भारत कभी भी बड़ा प्लेयर नहीं बन पाया और इसके लिए उसकी ही कुछ गलतियां जिम्मेदार हैं.
बाइडेन की 'शांति योजना' क्या है और उसमें भारत को शामिल करने का फैसला क्यों लिया गया? इससे पहले संदर्भ समझने के लिए थोड़ा इतिहास जानना जरूरी है.
सोवियत हमला और तालिबान का उदय
1970 के दशक में अफगानिस्तान में दो तख्तापलट हुए थे. उस समय रूस नहीं सोवियत संघ हुआ करता था और उसकी सीमा अफगानिस्तान से मिलती थी. जून 1979 में दूसरे तख्तापलट में हाफिजुल्ला अमीन ने नूर मोहम्मद ताराकी को सत्ता से हटा दिया था. सोवियत संघ अमीन को अमेरिका का करीबी मानता था. दिसंबर 1979 में पोलितब्यूरो की एक बैठक होती है जिसके बाद फैसला लिया जाता है कि अमीन को हटाकर बाबरक करमाल को सत्ता में लाया जाए.
1979 के क्रिसमस से एक दिन पहले सोवियत सेना ने अफगानिस्तान में घुसना शुरू कर दिया था. तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान से सेना के कई डिवीजन ने हमला कर दिया. इसी के साथ अमेरिका ने अपने सबसे सफल खुफिया ऑपरेशन को भी शुरू किया. अफगानिस्तान पर हमला करने वाला सोवियत पहला देश नहीं था. ब्रिटिश भी ऐसा करने की कोशिश कर चुके थे लेकिन अफगानिस्तान को 'साम्राज्यों की कब्रगाह' यूं ही नहीं कहा जाता. देश का भूगोल ऐसा है कि उसे जीत पाना आसान नहीं है.
अफगानिस्तान के स्थानीय लोगों ने सोवियत संघ के खिलाफ हथियार उठा लिए थे. इन्हें ‘मुजाहिदीन’ कहा गया. अमेरिका और पाकिस्तान ने इनकी पैसे और हथियार से मदद की. एक समय ऐसा आया जब सोवियत फाइटर प्लेन और टैंकों के सामने मुजाहिदीन फेल हो गए, लेकिन फिर अमेरिका ने इन लड़ाकों के हाथों में स्टिंगर मिसाइल थमा दी और पास पलट गया. 1989 में सोवियत सेना अफगानिस्तान से वापसी कर रही थी.
सोवियत युद्ध के बाद अफगानिस्तान पश्तून, ताजिक, उज्बेक जैसे समुदायों में बंट गया था. कोई प्रभावी केंद्रीय शासन नहीं था और मुजाहिदीनों ने अपनी-अपनी सेना बना ली थी. भ्रष्टाचार और अपराध चरम पर था और इस सबके बीच कुछ मदरसा के छात्रों ने मुल्ला मोहम्मद उमर के नेतृत्व में तालिबान का गठन किया.
सोवियत सेना की वापसी के समय मोहम्मद नजीबुल्लाह अफगानिस्तान के राष्ट्रपति थे और भारत के करीबी थे. भारत ने सोवियत संघ को भी हमले के दौरान समर्थन दिया था. जबकि उसके पड़ोसी पाकिस्तान ने मुजाहिदीनों को मदद मुहैया कराई थी. 1992 तक नजीबुल्लाह की सरकार गिर गई थी और उन्होंने भारत से शरण मांगी, जो उन्हें मिली नहीं. 1996 में नजीबुल्लाह काबुल स्थित यूनाइटेड नेशंस के ऑफिस में पनाह पाए हुए थे, लेकिन उसी साल तालिबान ने काबुल पर हमला बोला और नजीबुल्लाह की हत्या कर उनका शव राष्ट्रपति भवन के बाहर ट्रैफिक लाइट के खंबे पर टांग दिया.
अफगानिस्तान में समुदायों का महत्त्व क्या है, इसका एक उदाहरण नजीबुल्लाह की कहानी से जुड़ा है. जब नजीबुल्लाह UN ऑफिस में पनाहगार थे, तो ताजिक मिलिट्री कमांडर अहमद शाह मसूद ने उन्हें भागने में मदद की पेशकश की थी. उस समय नजीबुल्लाह ने ये कहकर मदद ठुकरा दी कि ‘अगर मैं ताजिकों के साथ भाग गया तो पश्तूनों की आंखों में हमेशा के लिए गिर जाऊंगा.”
अमेरिका ने कोई सीख नहीं ली
2001 में जब अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था तो असल में उसका निशाना अल-कायदा और तालिबान के ठिकाने थे. हमलों के बाद ओसामा बिन-लादेन पूर्वी अफगानिस्तान में तोरा-बोरा की पहाड़ियों में जा छुपा. मुल्ला मोहम्मद उमर और लादेन दोनों ने सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध लड़ा था. ओसामा ने तालिबान की वित्तीय मदद की थी और मुल्ला उमर ने इसके बदले उसे पनाह दी थी.
अमेरिकी हमले ने तालिबान की कमर तोड़ दी थी और वो पाकिस्तान में अफगान सीमा के पास के शहरों में जाकर बस गए. अमेरिका इस युद्ध में पाकिस्तान की मदद ले रहा था लेकिन हमेशा विरोधाभास का सामना भी कर रहा था. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI ही तालिबान की सरपरस्त थी और आज भी है. अमेरिका जानता था कि बिना पाकिस्तान को समीकरण में शामिल किए इस युद्ध का कुछ परिणाम नहीं निकल सकता.
जॉर्ज बुश के बाद बराक ओबामा ने अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की मौजूदगी बढ़ाई. उस समय ओबामा के उपराष्ट्रपति जो बाइडेन इसके खिलाफ थे. हालांकि, सेना की संख्या बढ़ाई गई और अफगानिस्तान में और हमले किए गए लेकिन तालिबान की मदद करने वाले पाकिस्तान पर कोई कार्रवाई नहीं की गई. पूर्व अफगान राष्ट्रपति हामिद कारजाई अमेरिका की मदद से ही इस पद तक पहुंचे थे पर अपने कार्यकाल के अंत तक उनका मन अमेरिका के लिए कड़वा हो चुका था. फॉरेन पॉलिसी को दिए एक इंटरव्यू में कारजाई ने कहा था, “बाइडेन ने मुझसे कहा था अमेरिका के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान से 50 गुना ज्यादा महत्वपूर्ण है.”
अमेरिका ने साल दर साल अफगानिस्तान में सिर्फ सेना की संख्या बढ़ाई. उसके अलावा देश NATO की सेना भी मौजूद रही. अमेरिका ने सोवियत संघ के युद्ध से कोई सीख नहीं लेते हुए अफगानिस्तान को सिर्फ ताकत की मदद से जीतने की कोशिश की. कारजाई हमेशा कहते रहे कि विलेन पाकिस्तान है और तालिबान पर अगर नकेल कसनी है तो पाकिस्तान को काबू कीजिए. पर अमेरिका ने अपने रणनीतिक फायदों के लिए इस तथ्य को हमेशा नजरअंदाज किया.
अमेरिका को पता था कि अफगानिस्तान में अगर युद्ध को जारी रखना है तो पाकिस्तान को साथ रखना होगा. पाकिस्तान से ही सप्लाई रूट चलते थे और ISI का पश्तून बहुल तालिबान पर खासा प्रभाव है. बिना पाकिस्तान के आज भी अफगानिस्तान का मुद्दा सुलझाना मुमकिन नहीं है.
अब बाइडेन की योजना क्या है?
डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने फरवरी 2020 में तालिबान के साथ कतर की राजधानी दोहा में एक डील साइन की थी. समझौता इस बात पर हुआ था कि अगर तालिबान अफगान सरकार के साथ शांति वार्ता और अल-कायदा जैसे संगठनों को पनाह नहीं देने के अपने वादों पर कायम रहता है, तो अमेरिका और NATO 14 महीनों में अपनी सेना अफगानिस्तान से बुला लेंगे.
इस समय अफगानिस्तान में करीब 2500 अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं और इन्हें वापस बुलाने की डेडलाइन 1 मई है. बाइडेन ने ट्रंप प्रशासन में अफगानिस्तान के लिए खास दूत के तौर पर नियुक्त किए गए जालमय खलीलजाद को हटाया नहीं है, लेकिन वो इन मसलों पर अपने विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन और NSA जेक सलिवन से ही राय-मश्विरा करते रहे. 1 मई की डेडलाइन के आगे बढ़ने की पूरी उम्मीद है क्योंकि इस पर अमल नहीं किया जा सकता है.
कुछ ही हफ्तों में 2500 अमेरिकी सैनिक और NATO की सेना को वापस बुलाना मुमकिन नहीं लगता है. इसके अलावा अफगानिस्तान की सुरक्षा व्यवस्था इतनी ताकतवर नहीं है कि वो बिना अमेरिकी मदद के तालिबान को रोक पाए. इन्हीं सब बातों को शायद ध्यान में रखते हुए ब्लिंकेन ने अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी को एक खत भेजा है.
ब्लिंकेन ने गनी से 'आने वाले हफ्तों में नेतृत्व' दिखाने के लिए कहा है. अमेरिका ने UN की अगुवाई में एक कॉन्फ्रेंस का प्रस्ताव रखा है, जिसमें रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान, भारत और अमेरिका के प्रतिनिधि शामिल होंगे. ये देश 'अफगानिस्तान में शांति को समर्थन देने के लिए संयुक्त रवैये' पर चर्चा करेंगे.
इसके अलावा जालमय खलीलजाद अफगान नेतृत्व और तालिबान से बातचीत को तेज करने की अपील करेंगे. ब्लिंकेन ने गनी से कहा है कि दोनों पक्ष एक 'समावेशी सरकार' का रोडमैप तैयार करें और 'स्थायी सीजफायर' पर समझौता भी करें. अमेरिकी विदेश मंत्री ने अफगान सरकार और तालिबान के बीच सत्ता में हिस्सेदारी और हिंसा में कमी पर तुर्की में एक बातचीत आयोजित करने का प्रस्ताव दिया है. तुर्की ने इस बातचीत को अप्रैल में रखने का ऐलान किया है.
बाइडेन सरकार अपनी अफगानिस्तान रणनीति की समीक्षा कर रही है. ये अभी पूरी नहीं हुई है लेकिन सरकार का अनुमान है कि अगर अफगान सरकार और तालिबान में समझौता नहीं होता है तो अमेरिकी सेना के जाने के बाद ‘सुरक्षा व्यवस्था बिगड़ेगी और तालिबान इलाकों पर कब्जा करेगा.’
अफगान सरकार क्या करेगी?
अफगान सरकार हमेशा से अमेरिका के सीधे तालिबान से बात करने के खिलाफ रही है. डोनाल्ड ट्रंप ने इस मामले में गनी सरकार को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए दोहा में तालिबान के साथ समझौता कर लिया था. फिर अफगान सरकार पर तालिबान कैदियों को छोड़ने का दबाव भी डाला था.
कतर में अमेरिका और तालिबान के बीच हुई बातचीत के दौरान अशरफ गनी ने कई बार ये जताया कि बिना अफगान सरकार की मौजूदगी के कोई भी समझौता वैध नहीं होगा. गनी ने कहा कि वो ही 'अफगानिस्तान के वैध प्रतिनिधि हैं.'
तालिबान के साथ सत्ता में साझेदारी के अमेरिकी प्रस्ताव पर भी अशरफ गनी का रुख साफ है. उन्होंने सिवाय चुनाव के और किसी भी माध्यम से सत्ता में साझेदारी या उसके हस्तांतरण से इनकार कर दिया है. गनी की सरकार भी समझौतों की सरकार है. उन्होंने अपने विरोधी अब्दुल्ला अब्दुल्ला के साथ मिलकर सरकार बनाई थी.
अब्दुल्ला मौजूदा समय में हाई काउंसिल फॉर नेशनल रिकंसीलिएशन के चेयरमैन हैं. वो नॉर्दर्न अलायन्स में अहमद शाह मसूद के साथी रह चुके हैं. गनी से ज्यादा अब्दुल्ला तालिबान के साथ किसी तरह के एकतरफा समझौते के खिलाफ हैं. हालांकि, इस काउंसिल के चेयरमैन रहते हुए उनके ऊपर ही तालिबान से शांति पर बातचीत करने की जिम्मेदारी है.
अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह भी मसूद के साथी रह चुके हैं और तालिबान के कट्टर विरोधी हैं. अमेरिकी प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया देते हुए सालेह ने कहा था, “अमेरिका अपनी सेना पर फैसला ले सकता है, अफगानिस्तान के लोगों पर नहीं.” बयानबाजी से इतर अशरफ गनी सरकार के पास ज्यादा विकल्प हैं नहीं.
भारत के लिए अच्छा मौका
भारत अब तक अफगानिस्तान में 3 बिलियन डॉलर से ज्यादा का निवेश कर चुका है. ये निवेश ज्यादातर इंफ्रास्ट्रक्टर प्रोजेक्ट्स में हैं. लेकिन अफगानिस्तान मसले में भारतीय प्रभाव न के बराबर है. इसकी कई वजहें हैं और इनमें दिल्ली की कई गलतियां शामिल हैं.
अमेरिकी विदेश मंत्री ने UN की अगुवाई में जिस कॉन्फ्रेंस का प्रस्ताव रखा है, उसमें भारत भी हिस्सा बनेगा. हालांकि, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक रूस ने भारत के इसमें शामिल होने का विरोध किया था. वही रूस जो भारत का करीबी सहयोगी हुआ करता था. रिपोर्ट्स में कहा गया कि ऐसा पाकिस्तान के कहने पर किया गया है.
पिछले कुछ सालों में ट्रंप प्रशासन के दौरान भारत की नजदीकी अमेरिका से बढ़ी थीं. इस बीच रूस और चीन की करीबियां बढ़ीं और चीन के दोस्त पाकिस्तान को भी रूस का साथ मिला है. पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान में शांति व्यवस्था बनाए रखने में भारत कोई भी भूमिका निभाए.
भारत ने खुद भी अफगानिस्तान में दिलचस्पी न दिखाकर गलत संदेश दिया है. 2018 में मॉस्को में रूस ने तालिबान के साथ एक बैठक रखी थी. भारत ने दो राजनयिकों अमर सिन्हा और टीसीए राघवन को इसमें हिस्सा लेने भेजा था. लेकिन विदेश मंत्रालय का साफ निर्देश था कि तालिबान से बातचीत ‘कम से कम’ रखी जाए.
अफगान सरकार में काम कर रहे अब्दुल्ला अब्दुल्ला और अमरुल्लाह सालेह नॉर्दर्न अलायन्स का हिस्सा रहे हैं. अहमद शाह मसूद के नेतृत्व में इस अलायन्स ने ही तालिबान से सबसे ज्यादा संघर्ष किया है. भारत नॉर्दर्न अलायन्स को समर्थन देता था और वित्तीय मदद भी मुहैया कराता था. पंजशीर का शेर कहलाने वाले मसूद का भारत से करीबी रिश्ता था. लेकिन भारत ने कभी भी अफगानिस्तान सरकार में अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए इस रिश्ते का फायदा नहीं उठाया.
अफगान सरकार का पाकिस्तान के खिलाफ द्वेषभाव कोई छुपी हुई बात नहीं है. भारत और अफगानिस्तान का दुश्मन एक ही है. फिर भी भारत ने कभी अफगानिस्तान को रणनीतिक लाभ के नजरिये से नहीं देखा.
अब बाइडेन की मदद से भारत की झोली में एक मौका आया है. भारत और देशों के साथ अफगानिस्तान शांति वार्ता में शामिल होगा. बाइडेन का ये कदम एहसान नहीं है. चीन, पाकिस्तान, रूस और ईरान में से कोई भी देश ऐसा नहीं है जो अमेरिका की सोच और रणनीतिक हितों के पक्ष में हो. इसलिए बाइडेन को भारत की जरूरत थी. अब ये भारत पर निर्भर करता है कि वो पुरानी गलतियां दोहराएगा या सक्रिय रूप से अफगानिस्तान में बड़ा प्लेयर बनेगा.
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