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प्रदर्शनों की ऐसी ‘किलेबंदी’ क्या किसी और लोकतंत्र में हो रही है?

क्या यूएस, यूके में प्रदर्शनों से निपटने के लिए भी पुलिस कंटीली तार और कीले लगाती है?

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देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं से हाल-फिलहाल में जो तस्वीर आई है वो लोकतांत्रिक प्रदर्शनों के लिहाज से खतरे की 'घंटी' जैसी है. प्रदर्शनस्थलों के आसपास बिछाई गई कंटीली तारे, सड़क पर स्थायी नुकीली कील, बैरिकेडिंग की दीवारें और सैकड़ों की तादाद में पुलिसबल. ये तस्वीरें खुद-ब-खुद प्रदर्शन पर कसी जा रही नकेल की कहानी कह रही हैं.

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एक तरफ दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों में ये कवायद चल रही है कि पुलिस को कैसी ट्रेनिंग मिले जिससे प्रदर्शनों में सख्ती से कैसे बचा जाएस कैसे प्रदर्शनकारियों को बिना डराए उनसे पार पाया जाए. दूसरी तरफ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की राजधानी में पुलिस प्रदर्शन पर लगाम कसने के लिए सख्त से सख्त होती जा रही है.

पुलिस ने सिंघु, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर 6 लेयर बैरिकेडिंग की है. इसमें कटीली तार, लोहे के बड़े कीले, लकड़ी के प्लेटफॉर्म पर लगी छोटी कीले शामिल हैं. इन बॉर्डर के आसपास के कुछ इलाकों की सड़कें भी खोदी गई हैं, ताकि दिल्ली के करीबी राज्यों से ट्रैक्टर न आ पाएं.  

दिल्ली पुलिस के कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव ने इस विस्तृत सुरक्षा इंतजाम को 'बैरिकेड मजबूत' करना करार दिया है. श्रीवास्तव ने न्यूज एजेंसी आईएएनएस से बातचीत में कहा, "जब ट्रैक्टर का इस्तेमाल हुआ तो मैं हैरान था, पुलिस पर हमला हुआ, 26 जनवरी को बैरिकेड तोड़े गए, कोई सवाल नहीं पूछे गए. हमने सिर्फ बैरिकेड को मजबूत किया है ताकि ये दोबारा न तोड़े जा सकें."

किसी प्रदर्शन को लेकर इस तरह के सुरक्षा इंतजाम पहली बार देखने को मिल रहे हैं. पिछले साल हुए CAA प्रदर्शन में पुलिसिया कार्रवाई को देखते हुए दिल्ली पुलिस के इस कदम की आलोचना हो रही है.

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और संविधान भी हर नागरिक को शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करने का अधिकार देता है. तो पुलिस के इस इंतजाम को किस तरह देखा जा सकता है? बाकी लोकतांत्रिक देशों में प्रदर्शनों से निपटने के लिए भी क्या पुलिस कटीली तार और कीले लगाती है? आज तक तो ऐसा नहीं हुआ.

दुनिया में प्रदर्शन, भीड़ से निपटने का क्या तरीका है?

पुलिसिंग सिस्टम में भीड़ को नियंत्रित करने के दो तरीके रहे हैं. पहला तरीका एस्केलेटेड फोर्स कहलाता है. इसमें ताकत का इस्तेमाल तब तक बढ़ाया जाता है, जब तक कि प्रदर्शनकारी जगह से हट न जाएं.

दूसरा तरीका होता है निगोशिएटेड मैनेजमेंट का. इसमें सुरक्ष बल और प्रदर्शनकारी किसी भी घटना या कार्रवाई पर आपस में बात करते हैं. एस्केलेटेड फोर्स स्ट्रेटेजी का इस्तेमाल 1970 के दशक तक होता था. ऐसा नहीं है कि ये अब पूरी तरह से गायब हो गया है, बस इसका इस्तेमाल आम तौर पर काफी कम हो गया है.  

अमेरिका में एक तीसरा तरीका भी सामने आया है. इसे कमांड एंड कंट्रोल कहा जाता है और इसके पीछे न्यू यॉर्क सिटी पुलिस डिपार्टमेंट का दिमाग कहा जाता है. इस स्ट्रेटेजी में भीड़ का आकार बड़ा होने से पहले ही उसे बांट देने या तितर-बितर कर दिया जाता है. प्रदर्शनकारियों को जो सार्वजानिक जगह दी जाती है, उस पर पुलिस कड़ा नियंत्रण रखती है.

पुलिस कंक्रीट और मेटल के बैरियर भी लगा सकती है और भीड़ को हटाने के लिए एक्टिव डिनायल सिस्टम (ADS) का इस्तेमाल करती है. इस सिस्टम से प्रदर्शनकारियों के बीच एक हीट ब्लास्ट छोड़ा जाता है.
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बाकी लोकतांत्रिक देशों में क्या होता है?

कोई देश किसी पॉपुलर प्रदर्शन से किस तरह निपटता है, इसका कोई एक नियम नहीं है. पुलिस किस तरह प्रदर्शनकारियों के साथ बातचीत करेगी या स्थिति संभालेगी, इसके लिए नियम-कायदे हो सकते हैं, लेकिन ये सरकार पर भी निर्भर करता है. उदाहरण के लिए, अमेरिका में पिछले साल जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद हुए प्रदर्शनों में पुलिस ने आंसू गैस से लेकर रबर बुलेट का इस्तेमाल किया.

तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रदर्शनकारियों पर ताकत का इस्तेमाल करने की वकालत करते रहे. फेडरल सरकार अगर पुलिस को हिंसक तरीके अख्तियार करने का बढ़ावा दे रही है, तो अंदाजा लगा सकते हैं कि हालात क्या हो सकते हैं.  

एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में क्रिमिनोलॉजी के प्रोफेसर एड मैग्वायर कहते हैं कि 'जब पुलिस प्रदर्शन जैसी घटनाओं में जरुरत से ज्यादा प्रतिक्रिया देती है, तो उसका नतीजा विद्रोह और ललकार होता है.'

अमेरिका में लंबे समय तक प्रदर्शनों से निपटने के लिए निगोशिएटेड मैनेजमेंट का तरीका ही अपनाया गया है. लेकिन जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद हुए प्रदर्शनों में एस्केलेटेड फोर्स स्ट्रेटेजी लागू होते हुए देखी गई. हालांकि, उस समय भी प्रदर्शनकारियों की घेराबंदी के लिए कटीले तार और कीलों जैसे इंतजाम नहीं किए गए.  
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यूनाइटेड किंगडम में साल 2009 में G20 समिट के खिलाफ प्रदर्शन हुए थे. इसमें न्यूजपेपर वेंडर इयान टॉमलिंसन की मौत हो गई थी. इसका जिम्मेदार एक पुलिस अफसर को पाया गया था. घटना के बाद पुलिस वॉचडॉग चीफ इंस्पेक्टोरेट ऑफ कांस्टेबुलरी ने प्रदर्शनों में पुलिसिंग को लेकर नया फ्रेमवर्क जारी किया था.

इस फ्रेमवर्क के मुताबिक, प्रोटेस्ट लायसन ऑफिसर की तैनाती की जाने लगी, जिसका काम प्रदर्शनकारियों से बातचीत करना, समस्या हल करना, स्थिति को संभालना और पुलिस के व्यवहार पर नजर बनाए रखना था. पुलिस को हिदायत दी गई कि प्रदर्शन की शुरुआत में सामान्य यूनिफार्म में जाएं, न कि दंगा रोकने के साजो-सामान के साथ.  

जर्मनी में प्रदर्शनों की वीडियो सर्विलांस आम बात है. नाजी शासन का इतिहास रखने वाले देश ने विरोधी आवाजों को ताकत से कम ही कुचला है. कोरोना वायरस महामारी के दौरान जब चांसलर एंजेला मर्कल ने मास्क पहनना, सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन को अनिवार्य किया तो हजारों लोग सड़क पर उतर आए.


नवंबर 2020 में हजारों प्रदर्शनकारी लॉकडाउन प्रतिबंधों का विरोध कर रहे थे. सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर रहे थे. इस दौरान पुलिस ने वॉटर कैनन और पेपर स्प्रे का इस्तेमाल किया, साथ ही लाउडस्पीकर पर लोगों से घर लौटने की अपील भी की.


जर्मनी के पड़ोसी देश फ्रांस में बात जब प्रदर्शन या भीड़ को नियंत्रित करने की हो, तो कोई भी सरकार पैरामिलिट्री या सेना को बुलाने की नहीं सोचती. फ्रांस के पास अपनी विशेष दंगा रोधी यूनिट्स हैं.

इन यूनिट्स का काम ज्यादातर बड़ी पब्लिक इमारतों की सुरक्षा का होता है. ये आंसू गैस, रबर बुलेट और स्टन ग्रेनेड के इस्तेमाल से भीड़ को इन इमारतों से दूर रखते हैं. दंगा रोधी यूनिट्स को साफ निर्देश हैं कि वो अपने नॉन-लीथल हथियारों से कमर से नीचे निशाना लगाएं और जहां ज्यादा भीड़ हो वहां स्टन ग्रेनेड का इस्तेमाल न करें.  

इन सभी देशों में एक बात लगभग कॉमन है, वो ये कि प्रदर्शनों की पुलिसिंग तभी होती है जब भीड़ अनियंत्रित होती दिखाई देती है. शांतिपूर्ण प्रदर्शन की घेराबंदी जैसे कदम देखने को नहीं मिलते हैं. लोकतांत्रिक देशों के संविधान लोगों को प्रदर्शन करने, विरोध जताने और आवाज उठाने के अधिकार देते हैं. शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे आंदोलन की जैसी घेराबंदी दिल्ली में देखने को मिली है, वो सुरक्षा नहीं दमन का संदेश देती है.

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