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हम सब प्रवासी हैं, जगह जगह से आए और भारतीय बन गए: रिसर्च

इस अध्ययन की रिपोर्ट को दुनियाभर के 92 वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से लिखा है.

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हैरान करने वाली एक बड़ी स्टडी में जनसंख्या जेनेटिक्स, पुरातत्व और मानव-शास्त्र के बड़े विज्ञानियों ने सिंधु घाटी, वैदिक आर्य और द्रविड़ भाषाओं से संबंधित हमारे पूर्वजों और नस्ल से जुड़ी परतों की नई सच्चाई सामने रखी है.

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आप इसे पढ़ना शुरू करें, इससे पहले एक कुर्सी लेकर आराम से बैठ जाएं, क्योंकि इसमें थोड़ा समय लगेगा. लेकिन इसमें सिंधु घाटी सभ्यता और हमसे जुड़े बेहद बुनियादी सवालों के जवाब मिलेंगे कि हम भारतीय या और सामान्य रूप से कहें, तो दक्षिण एशियाई कैसे अस्तित्व में आए.

जो जवाब आप पढ़ने जा रहे हैं, उन्हें अभी-अभी जारी ‘द जीनोमिक फॉर्मेशन ऑफ सेंट्रल एंड साउथ एशिया’ शीर्षक विस्तृत अध्ययन से लिया गया है. इस अध्ययन की रिपोर्ट को दुनियाभर के 92 वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से लिखा है.

इस रिपोर्ट के को-डायरेक्टर हैं हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के प्रोफेसर डेविड रेख. प्रोफेसर रेख हार्वर्ड में एक लैब चलाते हैं, जिसका प्राचीन डीएनए की बड़े पैमाने पर और तेजी से सीक्वेंसिंग और विश्लेषण की क्षमता में कोई सानी नहीं. उन्होंने हाल के वर्षों में अनेक अध्ययनों का सह-लेखन किया है, जिसने अधिकांश दुनिया के पुराने जीवन के इतिहास को समझने के हमारे तरीके को बदल दिया है. उनकी हाल ही में प्रकाशित किताब, ‘हू वी आर एंड हाउ वी गॉट हिअर’ इस समय चर्चा में है.

अध्ययन की रिपोर्ट तैयार करने वाले 92 सह-लेखकों में ऐसे वैज्ञानिक भी हैं, जो अपने-अपने क्षेत्रों में खुद ही स्टार की हैसियत रखते हैं, जैसे जेम्स मैलोरी, जो क्लासिक किताब ‘इन सर्च ऑफ इंडो-यूरोपियंस: लैंग्वेज, आर्कियोलॉजी एंड मिथ’ के लेख हैं; तथा मानवविज्ञानी और नए मानक स्थापित करने वाली किताब ‘द हॉर्स, द व्हील एंड द लैंग्वेज: हाउ ब्रोंज एज रेडर्स फ्रॉम द यूरेशियन स्टेप्स शेप्ड द मॉडर्न वर्ल्ड’ के लेखक डेविड एंथनी शामिल हैं.

लाखों साल पुरानी वनस्पति से जुड़े विज्ञानी डोरियन फुलर और पुरातत्व-विज्ञानी निकोल बोइविन को भारत में लोग देश में उनके किए काम की वजह से जानते हैं. वसंत शिंदे पुरातत्व के क्षेत्र में भारत के प्रमुख संस्थान डेक्कन कॉलेज के वाइस चांसलर हैं. सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिकुलर बायोलॉजी के प्रमुख के थंगराज इस अध्ययन के को-डायरेक्टर हैं, जबकि बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पैलियोसाइंसेज के नीरज राय, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की प्रिया मूरजानी, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के वागीश नरसिम्हन और स्वपन मलिक तथा जर्मनी स्थित मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर द साइंस ऑफ ह्यूमैन हिस्ट्री की आयुषी नायक के साथ इस अध्ययन रिपोर्ट के सह-लेखक हैं.

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नामों की यह सूची सिर्फ इसमें शामिल महत्वपूर्ण लोगों की वजह से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि इनके विभिन्न क्षेत्रों से संबद्ध होने के कारण भी है. जाहिर है कि इस पूरी प्रक्रिया में इस आलोचना का ध्यान रखा गया कि जनसंख्या जेनेटिक्स अपने अध्ययनों में पुरातत्व शास्त्र और ऐतिहासिक बातों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देती.

इन नामों के तरह अहम है डेटा, जिसपर कि पूरी स्टडी आधारित है: 612 व्यक्तियों के प्राचीन डीएनए, जिनमें से 362 को पहली बार किसी अध्ययन में शामिल किया गया है.

ये सभी 612 प्राचीन लोग अनेक क्षेत्रों और कालखंडों से हैं: ईरान और 'तुरान' जिसमें कि तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान शामिल हैं (5,600 से 1,200 ईसा पूर्व (BC); पश्चिमी साइबेरियाई जंगलों का इलाका (6,200 से 4,000 ईसा पूर्व (BC)); कजाखस्तान समेत यूराल पर्वतों के पूर्व की स्टेपी मैदान (4,700 से 1,000 ईसा पूर्व) और पाकिस्तान की स्वात घाटी (1,200 ईसा पूर्व से 1 ईसा) इस डेटा का मिलान और सह-विश्लेषण वर्तमान लोगों के विस्तृत जीनोम डेटा – दक्षिण एशिया के विशिष्ट मूल के 246 मानव समूहों के 1,789 व्यक्ति – के साथ किया गया.

विभिन्न क्षेत्रों और कालखंडों से लिए गए दोनों डीएनए समूहों, प्राचीन और वर्तमान, के इस तुलनात्मक विश्लेषण के कारण ही इस अध्ययन में इस बात को लेकर स्पष्ट निष्कर्ष निकल पाए हैं कि कौन कहां से चला और किससे आकर मिला.

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तो स्टडी क्या कहती है?

अभी स्पष्ट तौर पर कोई दावा नहीं किया जा सकता, लेकिन पूरी स्टडी जानकारियों के नए दरवाजें खोलती हैं, जहां तक अभी कोई पहुंचा नहीं था. यह उन तीन बुनियादी सवालों पर केंद्रित है, जिन्होंने भारतीय पुरातत्वविज्ञानियों, मानवशास्त्रियों और इतिहासकारों को दशकों तक परेशान किया है. इन सवालों में ही इस बात को समझने की भी कुंजी है कि भारतीय आबादी एक साथ कैसे आई, इसके मूलभूत घटक क्या हैं और कैसे विभिन्न कालखंडों में हुए प्रवास ने इसे आकार दिया होगा.

पहला सवाल: क्या पश्चिमोत्तर भारत में कृषि की शुरुआत पश्चिम एशिया से आए लोगों की मदद से हुई या जौ और गेहूं जैसी पश्चिमी एशियाई फसलें अपने आप दक्षिण एशिया में फैलीं?

दूसरा सवाल: सिंधु घाटी सभ्यता को किसने बनाया और बसाया? क्या वे पश्चिम एशिया से आए प्रवासी थे? या वे स्थानीय शिकारी-संग्राहक थे, जिन्होंने कृषि को और बाद में शहरी बस्तियों को अपनाया? या वो वैदिक आर्य थे?

तीसरा सवाल: क्या मध्य एशिया के मैदानों से दक्षिण एशिया में बड़े पैमाने पर पशुपालकों का आना हुआ, जो अपने साथ यूरोपीय भाषा और संस्कृति लेकर आए और जिन्होंने खुद को आर्य कहा? यदि ऐसा था, तो ये सब कब हुआ?

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‘आर्य’ कब आए?

इनमें से हर सवाल के बारे में मिले जवाब इतने तर्कसंगत और स्पष्ट हैं जो पहले कभी नहीं मिले.

सबसे पहले ‘आर्य’ के आने की थ्योरी पर बात करते हैं.

स्टडी के मुताबिक, दक्षिण-पूर्वी मैदानों से पशुपालकों का दक्षिण की तरफ प्रवास हुआ था – पहले 2,300 और 1,500 ईसा पूर्व के बीच मौजूदा तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान वाले दक्षिणी मध्य एशियाई इलाकों की तरफ, और फिर दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व (2,000 से 1,000 ईसा पूर्व) के दौरान दक्षिण एशिया की तरफ.

अपने रास्ते में उन्होंने बैक्ट्रिया-मारजियाना पुरातात्विक परिसर (बीएमएसी) को प्रभावित किया, जो 2,300 और 1,700 ई.पू. के दौरान फल-फूल रहा था, लेकिन वे एक तरह से इसे अछूता छोड़ और आगे दक्षिण एशिया की तरफ बढ़ गए. वहां वे सिंधु घाटी की स्थानीय आबादी से घुल-मिल गए, और इस तरह आज के भारत की आबादी के दो प्रमुख स्रोतों में से एक को कहा गया पैतृक उत्तर भारतीय या एएनआई, और दूसरा पैतृक दक्षिण भारतीय या एएसआई.

स्टडी का ये नतीजा प्राचीन डीएनए में प्रवास के संकेतों के पाए जाने के आधार पर निकाला गया है. इसके मुताबिक, 'स्वतंत्र विश्लेषण में बीएमएसी स्थलों के इर्द-गिर्द समूहों में 2,100 ईसा पूर्व से पहले स्टेपी और पशुपालकों के बीच जेनेटिक रिश्ते का कोई प्रमाण नहीं दिखता है, पर इस बात के संकेत मिलते हैं कि 2,100-1,700 ईसा पूर्व के बीच बीएमएसी समुदाय ऐसी आनुवंशिकता वाले लोगों से घिरे हुए थे.'

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बीएमएसी स्थलों से मिले प्राचीन डीएनए – पूर्वी ईरान के शहरेसोख्ता से मिले डीएनए नमूनों से दूरगामी परिणामों वाली कुछ आश्चर्यजनक जानकारियां मिलीं: 3,100 से 2,200 ईसा पूर्व के बीच की अवधि के ऐसे तीन असंबंधित लोगों के नमूने मिले जिनकी आनुवंशिकी प्रोफाइल पाकिस्तान के स्वात इलाके में शवों के क्रियाकर्म संस्कृति से मिले प्राचीन डीएनए नमूनों के समान थी, जो कि लगभग एक हजार साल बाद (1,200 से 800 ई.पू.) के थे.

बीएमएसी, शहरेसोख्ता और स्वात घाटी के नमूनों की एक विशिष्ट बात ये है कि उनमें 14 से 42 प्रतिशत आनुवंशिक अंश दक्षिण एशिया के शिकारी-वर्गों के हैं. माना जाता है सिंधु घाटी सभ्यता का संपर्क बीएमएसी और शहरेसोख्ता दोनों स्थलों से रहा है, इसलिए अध्ययन में कहा गया है कि ये असंबद्ध लोग सिंधु घाटी सभ्यता के आप्रवासी थे जो बाद में बीएमएसी चले गए.

...पर कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती है.

वैज्ञानिकों ने जब स्वात घाटी से मिले 1,200 ईसा पूर्व से 1 ईस्वी के बीच के नमूनों की बीएमएसी और शहरेसोख्ता के असंबद्ध लोगों के नमूनों से तुलना की, तो उन्हें चौंकाने वाली जानकारी मिली. जहां स्वात घाटी के नमूने आनुवंशिक रूप से प्राचीन असंबद्ध लोगों से काफी समानता रखते थे, वहीं वो इस लिहाज से अलग भी थे कि उनमें करीब 20 प्रतिशत आनुवंशिक अंश स्टेपी मैदानों के निवासियों वाले थे. इस अध्ययन के अनुसार, 'ये इस बात का प्रत्यक्ष सबूत है कि स्टेपी आनुवंशिक मूल वाले दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. में दक्षिण एशियाई समूहों में घुलमिल गए थे, और यह तथ्य स्टेपी समूहों के तुरान होते हुए दक्षिण की ओर फैलाव के सबूतों के अनुरूप भी हैं.'

इससे पहले के आनुवंशिक अध्ययनों से पहले ही पता चल चुका था कि भारतीय आबादी दो सांख्यिकीय आधार पर पुनर्निर्मित प्राचीन आबादियों, एएनआई और एएसआई का मिश्रण है. लेकिन ये अध्ययन इस सवाल को ढंग से नहीं सुलझा पाए थे कि ये आबादियां आखिर बनी कैसे थीं.

हाल ही मिले प्राचीन डीएनए नमूनों ने एएनआई और एएसआई को उनके घटकों में बांटना संभव कर दिया है.

एएनआई को अब ईरानी कृषकों, दक्षिण एशियाई शिकारी-संग्राहकों (पहली बार इस अध्ययन में इन्हें प्राचीन पैतृक दक्षिण एशियाई भारतीय या एएएसआई कहा गया है) और स्टेपी केपशुपालकों के मिश्रण के रूप में देखा जा सकता है. एएसआई को अब ईरानी कृषकों और दक्षिण एशियाई शिकारी-संग्राहकों के मिश्रण के रूप में देखा जा सकता है.
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संस्कृत, वैदिक आर्य और स्टेपी

स्टेपी से प्रवासन के और भी कई संकेत उपलब्ध हैं. उदाहरण के लिए, Y क्रोमोजोम हैपलोग्रुप R1a (उपप्रकार Z93) जोकि आज दक्षिण एशिया में सामान्य है, मध्य से उत्तरवर्ती कालखंड कांस्य युग में स्टेपी में खूब पाया जाता था.

इस स्टडी में कहा गया है:

“यह उल्लेखनीय है कि यूरोप और दक्षिण एशिया दोनों ही जगहों में भारोपीय भाषा बोलने वालों के एक बड़े वर्ग में खासी मात्रा में यमनाया स्टेपी के पशुपालकों से संबद्ध आनुवंशिक अंश हैं, और इसका मतलब यह निकलता है कि सभी आधुनिक भारोपीय भाषाओं की पहले की मानी जानेवाली “मूल-भारोपीय” यमनाया के लोगों की भाषा थी. जहां प्राचीन डीएनए स्टडी में स्टेपी से लोगों के पश्चिम की ओर प्रवास के सबूत मिले हैं जिससे कि इस नस्ल का प्रसार हुआ होगा, लेकिन इस प्रसार के दक्षिण एशिया तक पहुंचने के प्राचीन डीएनए सबूत उपलब्ध नहीं हैं. दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में स्टेपी समूहों के बड़े स्तर पर प्रसार संबंधी हमारे जुटाए सबूत इस टूटी कड़ी को जोड़ सकते हैं, और ये उन पुरातात्विक प्रमाणों के अनुरूप भी हैं जिनसे मध्य-से-उत्तरवर्ती कांस्य युग के दौरान स्टेपी की कज़ाख भौतिक संस्कृति और भारत की आरंभिक वैदिक संस्कृति के बीच जुड़ाव जाहिर होता है.”

...पर अभी और भी तथ्य हैं....

जब आनुवंशिकी विज्ञानियों ने यह देखना चाहा कि एएनआई-एएसआई मिश्रण मॉडल दक्षिण एशिया के मौजूदा 140 आबादी समूहों पर कहां तक फिट बैठता है, तो 10 समूह उल्लेखनीय रहे – इनमें से हरेक इस मॉडल से ठीक से नहीं जुड़ता, और महत्वपूर्ण है कि इनमें स्टेपी वाले आनुवंशिक अंश का काफी बढ़ा स्तर है.

स्टेपी वाले आनुवंशिक अंश का बढ़ा स्तर खासकर उन दो समूहों में पाया गया जो पारंपरिक रूप से पुरोहितों के वर्ग में थे, जो संस्कृत में लिखे ग्रंथों के संरक्षक माने जाते थे.

इसके मुताबिक: “एक संभावित स्पष्टीकरण ये है कि दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य में स्टेपी से दक्षिण एशिया में हुए प्रवास ने स्टेपी वाले आनुवंशिक अंश के भिन्न अनुपातों वाले समूहों की एक वृहद आबादी तैयार की, इनमें से ही अपेक्षाकृत अधिक स्टेपी आनुवंशिक अंश वाले समूह ने आरंभिक वैदिक संस्कृति के प्रसार में केंद्रीय भूमिका निभाई. दक्षिण एशिया में सगोत्र विवाह संबंधी कड़े नियमों के कारण, जिसने कई समूहों को उनके पड़ोसियों से हजारों वर्षों तक अलग रखा, भारतीय आबादी में इस उपसंरचना का कुछ भाग अब भी देखा जा सकता है... ”

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सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु घाटी सभ्यता को किसने बनाया और बसाया?

यह तथ्य कि स्टेपी से प्रवासी दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में ही आए, इस बारे में वैदिक आर्यों की संभावना को खत्‍म कर देता है, क्योंकि तब तक इस सभ्यता में गिरावट का दौर शुरू हो चुका था. इस कारण सिर्फ दो संभावनाएं रह जाती हैं: ईरानी कृषक, और स्थानीय शिकारी-संग्राहक, या एएएसआई. इस अध्ययन में सिंधु घाटी से कोई प्राचीन डीएनए नमूना शामिल नहीं था, इसलिए इसमें जवाब अप्रत्यक्ष सबूतों पर आधारित हैं (यहां ये याद रखने की जरूरत है कि हरियाणा में राखीगढ़ी के सिंधु घाटी स्थल से एकत्र प्राचीन डीएनए के विश्लेषण में जुटे वैज्ञानिक भी इस अध्ययन के सह-लेखकों में से हैं, और उनकी रिपोर्ट शीघ्र ही प्रकाशित होने की संभावना है.)

उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों को 3,100 से 2,200 ई.पू. की अवधि के तीन असंबद्ध लोगों के डीएनए मिले हैं – एक बीएमएसी स्थल गोनुर में और दो पूर्वी ईरान के शहरेसोख्ता में – जो स्वात घाटी से मिले 1,200 से 800 ई.पू. के प्राचीन डीएनए के साथ बहुत आनुवंशिक समानता रखते हैं.

इन तीनों प्राचीन लोगों की 14 से 42 प्रतिशत आनुवंशिक बनावट दक्षिण एशियाई शिकारी-संग्राहकों से और शेष मुख्यत: आरंभिक ईरानी कृषकों से मिलती जुलती थी. इस तथ्य पर गौर करते हुए कि सिंधु घाटी सभ्यता के बीएमएसी और शहरेसोख्ता दोनों से संपर्क रहे हैं. इन लोगों में इनके आसपास के लोगों के विपरीत दक्षिण एशियाई शिकारी-संग्राहकों के अंश थे. ये आनुवंशिक रूप से स्वात घाटी के लोगों के समान थे – इस बात की संभावना बनती है कि ये सिंधु घाटी से बीएमएसी और पूर्वी ईरान आए प्रवासी थे.

यदि ऐसा ही था, तो इससे संकेत मिलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता में ईरानी कृषकों और दक्षिण एशियाई शिकारी-संग्राहकों की मिश्रित आबादी थी.
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अब इन बातों से सवाल उठता है.. क्या दक्षिण एशिया में कृषि की शुरुआत ईरान से प्रवास करने वाले किसानों की सहायता से हुई, या जौ और गेहूं जैसी पश्चिमी एशियाई फसलें पश्चिम एशियाई कृषकों के आगमन के बगैर दक्षिण एशिया में फैलीं?

वर्तमान में जेनेटिक्स इसका एकमात्र यह उत्तर दे सकती है कि ईरानी किसान 4,700 से 3,000 ई.पू. के बीच सिंधु घाटी जरूर आ गए होंगे. यह कालखंड बीएमएसी और शहरेसोख्ता की तीन असंबद्ध लोगों के आधार पर निकाला गया है. ईरानी किसान समूह और दक्षिण एशियाई शिकारी- मूह के मिश्रण के काल की गणना करके निश्चित किया गया है.

लेकिन इससे बहुत पहले उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर इलाके में खेती की शुरुआत के प्रमाण मौजूद हैं. इसका मतलब हो सकता है कि खेती स्थानीय स्तर पर प्रवासी ईरानी किसानों की सहायता के बिना शुरू हुई; या फिर ईरानी किसान इस क्षेत्र में बहुत पहले से थे, पर दोनों समूहों का मिश्रण बाद में हुआ.

इसलिए इस सवाल का निश्चित जवाब तभी मिल सकेगा, जब हरियाणा में सिंधु घाटी स्थल राखीगढ़ी से प्राप्त प्राचीन डीएनए के विश्लेषण की रिपोर्ट जारी होती है – इसका प्रकाशन एक महीने पूर्व ही होना था, पर इसमें देरी हो रही है.

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सिंधु घाटी और द्रविड़ भाषाएं

इन प्रयोगों से लगता है “सिंधु परिधि निवासियों” को सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की जगह, वहां से प्रत्यक्ष डीएनए नमूनों के अभाव में, इस्तेमाल किया गया है: “सिंधु इलाके से जुड़े लोग भारत में आबादी के शुरुआत का सबसे प्रमुख स्रोत हैं.”

ऐसा इसलिए क्योंकि स्टेपी से आनेवाले पशुपालकों के साथ उनके मिलने से एएनआई बनता है, और दक्षिण एशियाई शिकारी-संग्राहकों या एएएसआई से उनके मिलने से एएसआई.

स्टडी में ऐसा नहीं कहा गया है, लेकिन सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों को भारत के अधिकांश इलाकों को जोड़ने वाले साझा जेनेटिक और सांस्कृतिक मंच के रूप में देखना उपयोगी साबित हो सकता है.

जेनेटिक आंकड़ों से पता चलता है कि एएनआई और एएसआई दोनों ही दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व (2,000 से 1,000 ईसा पूर्व) में पूरी तरह बन चुके थे. ये वक्त क्षेत्र के इतिहास का सर्वाधिक उथलपुथल वाला वक्त रहा होगा,एक सभ्यता गिरावट के दौर में थी, दूसरी जगहों से लोगों की नई आमद शुरू हो चुकी थी, और हर कोई जगह बदल रहा था जिससे लंबी अवधि तक अलग रही आबादियों में मिश्रण हो रहा था.

इस बारे में यहां इस स्टडी से बड़ी बात निकलती है कि “एक तरफ सिंधु घाटी सभ्यता के नष्ट होते वक्त स्टेपी के समूह दक्षिण की ओर गए और सिंधु इलाके के समूहों के साथ मिलकर एएनआई बनाया, दूसरी तरफ सिंधु इलाके के अन्य समूह, एएएसआई समूहों के साथ मिश्रण के लिए दक्षिण और पूर्व की ओर और आगे बढ़े और एएसआई बनाया. इस तरह धारण बनती है कि सिंधु घाटी सभ्यता का फैलाव द्रविड़ भाषाओं के प्रसार के लिए जिम्मेदार था. हालांकि ये भी मुमकिन है कि द्रविड़ भाषाएं सिंधु घाटी से पहले के काल की भारतीय भाषाओं से निकली हैं क्योंकि एएसआई की वंशावली आमतौर पर एएएसआई से ही निकली है.”

तो यहां तक पहुंच कर करीब करीब सभी सवालों के जवाब मिल गए.

सिंधु घाटी सभ्यता संभवत: ईरानी कृषकों और दक्षिण एशियाई शिकारी- समुदाय की एक मिश्रित आबादी द्वारा बनाई और बसाई गई थी; दक्षिण-पूर्वी स्टेपी के पशुपालक दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में दक्षिण एशिया आए, और अपने साथ भारोपीय भाषा एवं संस्कृति लाए; स्टेपी से आए लोगों और सिंधु घाटी के लोगों के मिश्रण से पैतृक उत्तर भारतीय आबादी का उद्भव हुआ; और सिंधु घाटी के लोगों और दक्षिण एशियाई शिकारी-संग्राहकों के मिश्रण से पैतृक दक्षिण भारतीय आबादी बनी.

जेनेटिक्स धीरे-धीरे यह सुनिश्चित कर रही है कि हम लकीर का फकीर बनकर एक ही ढर्रे के सवाल-जवाब में उलझकर गुस्से से बिलबिलाते नहीं रहें. ये इन सब से आगे बढ़ने का समय है.

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“हम सभी प्रवासी हैं”

यह बात अच्छी तरह स्पष्ट है कि हम एक बहु-स्रोत सभ्यता हैं, एकल-स्रोत नहीं, जो अपने सांस्कृतिक आवेग, परंपराएं और प्रथाएं भिन्न-भिन्न पूर्वजों और प्रवास इतिहासों से ग्रहण करती है. अफ्रीका से निकले आप्रवासी, सबसे आगे चलने वाले निडर खोज करने वाले, जिन्होंने शायद इस भूमि की खोज की और यहां बसे. इसमें ऐसी नस्लों का भी योगदान है जिनकी वंशावली अब भी हमारी आबादी की बुनियाद बनाती है.

ऐसे लोग जो खेती की तकनीकों के साथ इनके बाद आए और जिन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता बनाई जिनके सांस्कृतिक विचार और प्रथाएं शायद हमारी वर्तमान की अधिकतर परंपराओं को समृद्ध करते हैं; ऐसे भी जो पूर्वी एशिया से आए और संभवत: अपने साथ धान की खेती और इससे जुड़ी तमाम चीजें लेकर आए; सभ्यता के इस विकास में वो भी शामिल हैं जो संस्कृत से करीब से जुड़ी एक भाषा तथा इससे संबंधित विश्वासों एवं प्रथाओं के साथ बाद में आए और जिन्होंने हमारे समाज को बुनियादी तौर पर बदल डाला.

हमारे यहां पहुंचने में वो लोग भी शामिल हैं जो व्यापार के लिए या विजय के लिए आए और जिन्होंने यहीं रहने का फैसला किया, ये सभी घुल-मिल गए हैं और इन्होंने इस सभ्यता में योगदान दिया है जिसे हम भारतीय कहते हैं. हम सभी प्रवासी हैं.

(टोनी जोसेफ लेखक हैं और ट्विटर पर @tjoseph0010 नाम से उपलब्ध हैं. इस लेखक ने नौ महीने पहले ‘जेनेटिक्स कैसे आर्यों के प्रवास की बहस को सुलझा रही है’ आर्टिकल भी लिखा था. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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