कैसे किसी एक गलत फैसले से प्रधानमंत्री की कुर्सी खतरे में आ सकती है ? ये फैसला अगर अति आत्मविश्वास में लिया गया हो तो परिणाम और भी खराब हो सकते हैं. कुछ ऐसे ही आत्मविश्वास की शिकार हुईं हैं ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे.
यूरोपीयन यूनियन से अलग होने के ब्रिटेन के जनमत संग्रह यानी ब्रेग्जिट पर मजबूत फैसले लेने के लिए थेरेसा मे ने मध्यावधि चुनावों का फैसला किया था. 9 जून को चुनाव हुए और चुनावों के नतीजों ने कंजर्वेटिव पार्टी और थेरेसा को बड़ा झटका दिया है.
बीबीसी के मुताबिक, कंजर्वेटिव पार्टी को पिछली बार से 12 सीटों का नुकसान हुआ है, पार्टी को 318 सीटें हासिल हुई हैं. वहीं विपक्षी लेबर पार्टी को 29 सीटों के फायदे के साथ 261 सीटें मिली हैं. बहुमत के लिए जरूरी 326 सीटों से कंजर्वेटिव पार्टी 8 सीटें दूर हैं.
बता दें कि थेरेसा मे चाहती तो अगले 3 साल यानी 2020 तक बिना चुनावों के प्रधानमंत्री बनीं रहती लेकिन अतिआत्मविश्वास ने उनकी कुर्सी पर ही खतरा डाल दिया है. आखिर थेरेसा ने ये चुनाव क्यों करवाए, इसकी कुछ खास वजह ये हैं-
- थेरेसा चाहती हैं कि ब्रेग्जिट से संबंधित फैसले लेने में कोई विवाद या रूकावट न हो, ऐसा बहुमत हासिल करने पर ही संभव था
- कई सर्वे में थेरेसा की पार्टी के लिए बहुमत के इशारे थे. इससे थेरेसा के महत्वकांक्षाओं को पंख लग गए
- बहुमत हासिल करने के बाद अगले 5 साल बिना किसी 'गड़बड़ी' के कट जाते.
फिलहाल,थेरेसा की ये सारी तमन्नाएं मिट्टी में मिलती नजर आ रही हैं. थेरेसा ने अपने भाषण में कहा-
इस समय, देश को स्थिरता की आवश्यकता है. कंजर्वेटिव पार्टी सबसे अधिक मत हासिल करने की राह पर है और स्थिरता मुहैया कराना हमारा कर्तव्य है.
थेरेसा ने कहा है कि वो ब्रिटेन में सरकार बनाएंगी और ब्रेग्जिट की योजना पहले की ही तरह होगी.
वहीं विपक्षी लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन ने इ्शारा किया है कि थेरेसा के जाने का वक्त आ गया है. यानी कुल मिलाकर थेरेसा के फैसले के लिए ये नतीजा अपमानजनक साबित हो रहा है.
इस चुनाव को ब्रेग्जिट चुनाव के तौर पर देखा जा रहा था और इस परिणाम को उन 48 प्रतिशत लोगों के लिए उम्मीद की किरण समझा जा रहा है जिन्होंने जून 2016 में हुए जनमत संग्रह में यूरोपीय यूनियन में बने रहने के लिए वोट दिया था.
ऐसा ही झटका डेविड कैमरन को भी लगा था
ब्रिटेन के यूरोपीयन यूनियन में बने रहने या बाहर जाने के फैसले पर पिछले साल जून में जनमत संग्रह हुआ.
इसमें 52 फीसदी लोगों ने यूनियन से अलग होने के लिए वोट दिया जबकि 48 फीसदी लोग साथ रहने के पक्ष में थे.
हालांकि, तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन चाहते थे कि ब्रिटेन यूरोपीयन यूनियन में रहे, ऐसे में जनमत संग्रह के नतीजों से निराश कैमरन ने जुलाई, 2016 में इस्तीफा दे दिया. यहां पर ये भी जानना जरूरी है कि जो गलती थेरेसा मे से हुई है वही गलती कैमरन ने भी की थी.
कैमरन का विश्वास था कि ब्रिटेन के लोग ईयू में बने रहना चाहते हैं और पक्ष में वोट देंगे. अब जरा जनमत संग्रह कराने के पीछे कैमरन की खास वजह जान लेते हैं-
- 2015 के आम चुनावों में कैमरन ने वादा किया था कि वो अगर चुनाव जीतते हैं तो जनमत संग्रह कराएंगे. ऐसे में अपने वादों पर खरा उतरना भी तो था, आखिर वो ब्रिटेन के नेता हैं भारत के नहीं.
- कैमरन के फैसले को कंजर्वेटिव पार्टी और कुछ लेबर पार्टी के नेताओं का भी समर्थन हासिल था.
- अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी जैसे देश कैमरन और उनके ईयू में बने रहने के फैसले के साथ थे. ये विश्वास भी उनपर भारी पड़ गया.
नतीजा सबके सामने हैं, कैमरन को इस्तीफा देना पड़ा.
'ब्रेग्जिट' का धक्का दोनों को लगा
साफ है कि ब्रेग्जिट से जुड़े दो राजनीतिक फैसले लिए गए और दोनों ही गलत साबित हुए. नतीजे से दो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर खतरा आ गया.
अब ये जान लीजिए की ब्रेग्जिट आखिर बला क्या है-
ब्रेग्जिट का मतलब है, यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन का एग्जिट यानी बाहर जाना. बता दें कि युद्ध से तबाह यूरोप के लिए यूरोपियन यूनियन एक उम्मीद की किरण रही है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बनी संस्थाओं में सबसे असरदार यूरोपियन यूनियन ही रही.
28 देशों का ये समूह एक दूसरे के आर्थिक और राजनीतिक भागीदार हैं. इस यूनियन ने साबित कर दिया कि अगर आपसी व्यापार के संबंध गहरे होते हैं, तो पड़ोसी देश शांति से बरसों तक रह सकते हैं और एक-दूसरे की खुशहाली में हिस्सेदार बन सकते हैं.
अब ब्रेग्जिट को लेकर बातचीत 19 जून को शुरू होनी है, लेकिन कंजर्वेटिव पार्टी की इस हालात के बाद अनिश्चितता का माहौल भी पैदा हुआ है.
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