स्कॉटलैंड के ग्लासगो (Glasgow) में 31 अक्टूबर को शुरू होने वाले जलवायु सम्मेलन COP26 में दुनिया का लगभग हर देश भाग लेगा. यह सम्मेलन दो हफ्तों तक चलने वाला है. COP की पहली मीटिंग 1995 में जर्मनी की राजधानी बर्लिन में हुई थी और इसका पूरा नाम है, ‘कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज’ और तब से अब तक का यह 26वां सम्मेलन है. यह उन सभी को आमंत्रित करता है जो युनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) में पार्टी हैं.
इसमें भाग लेने वाले सभी देशों के प्रतिनिधि और अधिकारी एक दूसरे से इस बारे में बातचीत करेंगे कि जलवायु परिवर्तन और उसके विनाशकारी असर को कैसे काबू में किया जाए.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत से लगातार अपील की जा रही है कि वह जलवायु सुधार के अधिक उपाय करे. इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस सम्मेलन में भाग ले रहे हैं. रवानगी से पहले उन्होंने कहा कि वह वहां कई मुद्दों को उठाने की कोशिश करेंगे, जैसे "वातावरण में कार्बन की मात्रा को एक समान करना, उसे घटाना और उसके अनुसार बदलाव करना, लचीलापन कायम करने के उपाय करना, फाइनेंस जुटाना और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर , तथा ऐसी जीवन शैली को अपनाना जिसमें सबका एक बराबर विकास हो, और जो हरित विकास करे.
COP26 के उद्देश्य
सम्मेलन के सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक यह है कि नीचे दिए गए मसलों पर कैसे समझौते किए जाएं:
ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5°C पर समेटना
लंबी अवधि में नेट जीरो टारगेट पर पहुंचना, यानी जितनी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, उतनी ही मात्रा में उन्हें हटाना.
निम्न आय वाले देशों को 100 बिलियन डॉलर देना ताकि वे अपने एमिशन को कम कर सकें, जैसा कि 2009 में वादा किया गया था.
ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता को कम करना और उसके इस्तेमाल को धीरे धीरे कम करना.
अक्षय ऊर्जा के स्रोतों में निवेश करना.
COP26 क्यों अहम है
2015 पेरिस समझौते के मुताबिक, सभी देश कानूनी रूप से मजबूर हैं कि वे ग्लोबल तापमान को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 2°C से नीचे रखेंगे. इसी तरह यह बेहतर होगा कि सभी देश ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5°C पर समेटे रखें.
हालांकि सभी देश ग्लोबल वॉर्मिंग को सीमित करने की विश्व स्तरीय कोशिश में कैसे योगदान देंगे, यह उनकी मर्जी पर निर्भर करता है. उत्सर्जन को कम करने के राष्ट्रीय लक्ष्यों को नेशनल डिटर्मिन्ड कॉन्ट्रीब्यूशन (एनडीसी) कहा जाता है. ये पेरिस समझौते से बंधे हुए नहीं हैं और 2015 में साधे गए लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काफी नहीं हैं.
कोप26 इस मामले में बहुत अहम है कि सभी देशों को अब इस संबंध में ठोस योजनाएं पेश करनी होती हैं कि वे तापमान की समस्या को कैसे काबू करेंगे. किसी देश के एनडीसी अब अस्पष्ट नहीं हो सकते.
चूंकि देखा लिया गया था कि 2015 के लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकता, इसलिए समझौते के हिसाब से पांच साल बाद सभी देशों को फिर से मिलना था, यानी दिसंबर 2020 में. लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण सम्मेलन नहीं हो पाया.
लेकिन सम्मेलन अब हो रहा है, और कोप26 में सभी देश अपने संशोधित एनडीसी के साथ यह योजना लेकर पहुंचेंगे कि वे पेरिस समझौते के लक्ष्य यानी ग्लोबल वार्मिंग को 1.5°C पर सीमित करने के मकसद को कैसे हासिल करेंगे (यदि कोई इरादा है).
एनडीसी की नींव में एक अंतरराष्ट्रीय कानून है जिसका नाम है, कॉमन बट डिफरेंशिएटेड रिस्पांसिबिलिटीज़ यानी सीबीडीआर. इस कानून में कहा गया है कि जलवायु को लेकर अलग-अलग देशों की अलग-अलग स्तर की जिम्मेदारियां हैं पर इस समस्या को दूर करने की उनकी क्षमताएं एक बराबर नहीं हैं.
कोप26 में एक बात पर और चर्चा होगी, और वह है क्लाइमेट फाइनेंस. विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर होता है. उन्हें इस समस्या से निपटने के लिए 2019 में 79.6 बिलियन डॉलर मिले थे जबकि विकसित देशों ने 2020 तक उन्हें हर साल 100 बिलियन डॉलर देने का वादा किया था.
कोप26 में अब देश बताएंगे कि वे हर साल 100 बिलियन डॉलर कैसे जुटाएंगे ताकि निम्न आय वाले देशों की मदद की जा सके. कार्बन कॉपी के मुताबिक, सम्मेलन की कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि क्लाइमेंट फाइनांस गैप के संबंध में “विकासशील देशों का भरोसा कैसे बरकरार रखा जाए”, यानी विकासशील देश कैसे यह मानें कि जलवायु संबंधी पहल करने में अमीर देश उनकी मदद करेंगे.
चूंकि “कमजोर देशों को डीकार्बनाइज करने और जलवायु परिवर्तन के असर के हिसाब से बदलाव करने के लिए जितनी धनराशि की जरूरत पड़ेगी, 100 बिलियन डॉलर सालाना उसका एक छोटा सा हिस्सा है”, एक्सपर्ट्स कहते हैं कि इस राशि को ‘आधार’ माना जाना चाहिए, ‘अंतिम सीमा’ नहीं. यानी इतना तो चाहिए ही, और इससे ज्यादा भी देना पड़ सकता है. कार्बन कॉपी का कहना है.
COP26 के उद्देश्यों पर भारत का रवैया
भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि हमारा देश जलवायु संकट का "हल निकालने में मदद करने" के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन उत्सर्जन की "ऐतिहासिक जिम्मेदारी" अमीर और विकसित देशों की है, जिन्हें विकासशील और अविकसित देशों के हितों की रक्षा करनी चाहिए.
फाइनेंसियल टाइम्स के आंकड़ों में भारत की ऊर्जा खपत की तुलना दुनिया के दूसरे देशों की गई है और उसमें बहुत ज्यादा गैर बराबरी नजर आती है. भारत में उत्सर्जन का सबसे बड़ा कारण है कोयला जलाना जोकि बिजली उत्पादन के लिए जरूरी है.
भारत की प्रति व्यक्ति बिजली खपत दुनिया की प्रति व्यक्ति बिजली खपत का केवल 33 प्रतिशत है.
भारत में कोयले की प्रति व्यक्ति खपत जर्मनी की खपत का केवल 25 प्रतिशत है.
इसके अलावा भारत ने 1850 से विश्व के कुल कार्बन एमिशन में केवल 4 प्रतिशत का योगदान दिया है.
इसलिए संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भारत ने जोर देकर कहा है कि कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने की उसकी जिम्मेदारी दूसरे देशों के मुकाबले कम है.
आखिरकार कोयले को छोड़कर एनर्जी के हरित स्रोतों का इस्तेमाल करने के लिए भारत को अपनी ऊर्जा प्रणालियों को पूरा बदलना होगा. और साथ ही यह भी पक्का करना होगा कि लाखों गरीब लोगों को सस्ती दरों पर बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया हों.
इस बदलाव के लिए ऐसा बैक-अप प्लान भी होना चाहिए कि उन लाखों भारतीय लोगों को रोजगार मिल सके जो अपनी गुजर बसर के लिए परंपरागत ऊर्जा बाजार यानी कोयले पर निर्भर हैं. साफ है कि काफी महंगा प्रॉजेक्ट हैं और भारत के आर्थिक मामलों के विभाग ने अनुमान लगाया है कि देश को 2030 तक एनडीसी के लिए जितनी रकम की जरूरत है, उसमें 1.7 खबर डॉलर कम पड़ जाएंगे.
भारत जैसे देश के टेक्नोलॉजी ट्रांजिशन के लिए काफी निवेश की जरूरत है. यूएन क्लाइमेट चेंज वार्ता में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले एक्सपर्ट रजनी रंजन रश्मि का कहना है कि विकसित देश विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष में धनराशि और तकनीक देने के लिए मजबूर हैं. उन्होंने कार्बन कॉपी को बताया, विकसित देश ये दोनों काम नहीं कर रहे.
ग्लोबल वॉर्मिंग में भारत का मौजूदा योगदान
दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का फैलाव करने वाले देशों में भारत का स्थान तीसरा है, उससे पहले चीन और अमेरिका आते हैं.
वह विश्व स्तर पर लगभग 7 प्रतिशत कार्बन एमिशन के लिए जिम्मेदार है.
भारत में कोयले की वजह से 70 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित होता है, लेकिन साथ ही भारत इस पर बहुत अधिक निर्भर है.
कोयले की भूमिका
चीन के बाद भारत कोयले का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है.
लाखों भारतीय लोगों को पर्याप्त और भरोसेमंद बिजली उपलब्ध नहीं है.
इसके अलावा भारत में लाखों लोग काम और आजीविका के लिए कोयला उद्योग पर निर्भर हैं.
कोयला अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत को दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खनन कंपनी - कोल इंडिया से हर साल करोड़ों रुपये का मुनाफा मिलता है.
भारत की प्रतिबद्धता
कोयले के बारे में भारत कह चुका है कि “यह बहुत साफ है कि भारत को ऊर्जा सुरक्षा के लिए कोयले की जरूरत है चूंकि उसके पास कोई घरेलू तेल और गैस संसाधन नहीं हैं. हां, भारत अपने कोयले का इस्तेमाल जिम्मेदारी से करेगा और इसके लिए वह क्लीन कोल इनीशिएटिव्स भी चला रहा है.”
इसीलिए, पश्चिमी देशों की बढ़ती आलोचना के बावजूद भारत ने कोप26 के साथ नेट जीरो एमिशन टारगेट तय करने से इनकार कर दिया है.
चीन का नेट जीरो टारगेट 2060 है जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी सहित 130 से अधिक देश नेट-जीरो एलायंस में शामिल हो गए हैं जिसका लक्ष्य 2050 है.
यादव ने स्पष्ट रूप से कहा कि नेट जीरो टारगेट तय करने से जलवायु परिवर्तन का हल नहीं निकाला जा सकता. कार्बन कॉपी की रिपोर्ट के अनुसार, अर्थशास्त्री वैभव चतुर्वेदी का कहना है कि "भारत जैसे देश के लिए, नेट-जीरो के लिए एक साल चुनना कोई आसान काम नहीं है" और "यह समझने के लिए गहरा विश्लेषण करना होगा कि देश के लिए असल में क्या किया जाना चाहिए." .
हालांकि, भारत जलवायु संबंधी प्रतिबद्धताओं पर खरा उतरा है. पेरिस समझौते के तहत उसके तीन एनडीसी थे:
2005 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक अपनी जीडीपी की उत्सर्जन गहनता (एमिशन इंटेंसिटी) को 33-35 प्रतिशत तक कम करना. जीडीपी की प्रत्येक इकाई के लिए ग्रीनहाउस गैस एमिशन की कुल मात्रा को एमिशन इंटेंसिटी कहा जाता है.
2030 तक अक्षय ऊर्जा (रीन्यूएबल) स्रोतों से 40 प्रतिशत बिजली उत्पादन सुनिश्चित करना.
2030 तक वनीकरण के जरिए से 2.5 से 3 बिलियन टन कार्बन सिंक का निर्माण करना. कार्बन सिंक ऐसी कोई भी चीज होती है जो वायुमंडल में जितना कार्बन छोड़ती है, उससे ज्यादा खींचती है.
भारत ने इस साल की शुरुआत में घोषणा की कि उसने ऊर्जा क्षमता का 38.5 प्रतिशत नॉन फॉसिल ईंधन स्रोतों से हासिल कर लिया है और 2030 तक यह बढ़कर 66 प्रतिशत होने की उम्मीद है, मिंट ने जानकारी दी है.
भारत भी 2005 के एमिशन स्तर की तुलना में 2030 तक अपनी जीडीपी की एमिशन इंटेंसिटी को 33-35 प्रतिशत तक कम करने के लिए प्रतिबद्ध है.
पर्यावरण मंत्रालय ने जुलाई 2021 में कहा था कि इसका लक्ष्य "26 मिलियन हेक्टेयर खराब भूमि को बहाल करना है, जो कार्बन सीक्वेंस्ट्रेशन में योगदान करती है", बिजनेस स्टैंडर्ड ने जानकारी है. कार्बन सीक्वेंस्ट्रेशन वह प्राकृतिक या कृत्रिम प्रक्रिया होती है जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड को वायुमंडल से हटाया जाता है और ठोस या तरल रूप में रखा जाता है.
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से तैयार एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के पास अधिक व्यावहारिक लक्ष्य थे. हालांकि, भारत का कहना है कि वह जलवायु परिवर्तन का शिकार है, न कि उसमें योगदान देने वाला.
एक तरफ, जलवायु परिवर्तन के चलते बाढ़ और सूखे ने पहले ही भारतीयों को प्रभावित किया है. दूसरी ओर अगर विकसित देश पर्याप्त आर्थिक सहायता के बिना जलवायु संबंधी लक्ष्यों को पूरा करने पर जोर देंगे तो इससे भारत के विकास में बाधा आएगी और लाखों भारतीयों को बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल पाएंगी.
इसलिए, कोप26 में भारत की पहल एक ऐसे भविष्य का खाका तैयार करेगा जो जी20 क्लाइमेट इंपैक्ट्स एटलस रिपोर्ट के अनुसार, फिलहाल तो काफी विनाशकारी महसूस होता है.
(द गार्डियन, मिंट, द फाइनांशियल टाइम्स, कार्बन कॉपी, बिजनेस स्टैंडर्ड और एनडीटीवी के इनपुट्स के साथ)
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