"हर 15 मिनट में एक सायरन बजता है और हमें बंकर में छिपना पड़ता है. यह जीने का कोई तरीका नहीं है. हम घर से बाहर भी नहीं निकल सकते."
यह कहना है कि इजरायल की राजधानी तेल अवीव से 20 किमी दूर स्थित शहर रानाना में एक बुजुर्ग दंपत्ति की देखभाल करने वाली एंजेल श्रेष्ठा का.
एंजेल श्रेष्ठा, पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग की एक नेपाली-भारतीय है. उन्होंने 2019 में इजरायल को अपना घर बनाया. वह फिलहाल इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष (Israel Palestine War) के बीच में फंसी हुईं हैं. यह युद्ध 7 अक्टूबर को आतंकवादी समूह हमास द्वारा इजरायल पर किए गए 'अचानक हुए' हमले के बाद तेज हो गया है. श्रेष्ठा इजरायल में रहने वाले लगभग 18,000 भारतीय नागरिकों में से एक हैं.
"हम फिलहाल इन दीवारों के अंदर सुरक्षित हैं, और भारतीय दूतावास द्वारा बताए गए सभी एडवाइजरी का पालन कर रहे हैं. लेकिन हम नहीं जानते कि ऐसा कब तक होगा."एंजेल श्रेष्ठा
वर्तमान स्थिति को देखते हुए, भारतीय दूतावास ने इजरायल में सभी भारतीय नागरिकों को "सतर्क रहने", "सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन करने", "अनावश्यक मूवमेंट से बचने और सेफ्टी शेल्टर के करीब रहने" की सलाह जारी की. भारतीय दूतावास के मुताबिक, इजरायल में बसे भारतीयों में से ज्यादातर इजरायली बुजुर्गों के केयरटेकर, हीरा व्यापारी, आईटी प्रोफेशनल और स्टूडेंट हैं.
'मुझे अपने परिवार के लिए कमाने के लिए रहना होगा'
श्रेष्ठा के माता-पिता उन पर ही निर्भर हैं और श्रेष्ठा उनका भरण-पोषण करने में सक्षम होने के लिए इजरायल चली गईं. वह द क्विंट को बताती हैं,
"यहां नर्सों और देखभाल करने वालों को दिए जाने वाले उच्च वेतन के कारण मैं 2019 में इजरायल आ गयी. भारत में, जब मैं सिलीगुड़ी के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में नर्स के रूप में काम कर रही थी, तो मुझे केवल 15,000 रुपये का वेतन मिलता था. अब उससे लगभग 70 प्रतिशत ज्यादा मिल रहा है, और यही कारण है कि हमारे क्षेत्र से कई महिलाएं यहां आ रही हैं.''श्रेष्ठा
सिलीगुड़ी स्थित एक जॉब रिक्रूटमेंट एजेंसी के मुताबिक, पिछले कुछ सालों में, उत्तर बंगाल और सिक्किम की पहाड़ियों से इजरायल में केयरटेकर की नौकरियों के लिए आवेदन करने वाली महिलाओं के आवेदनों में बढ़ोत्तरी हुई है.
श्रेष्ठा कहती हैं, "भारत के प्राइवेट हॉस्पिटल्स में हमारी नर्सों को बहुत कम वेतन मिलता है और सरकारी नौकरियां बहुत मुश्किल से मिलती हैं. इसके साथ ही यहां हमारे स्वास्थ्य बीमा और वार्षिक बोनस जैसी सुविधाएं भी हैं."
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वेतन के अलावा, इजरायल में भारत को ईसीएनआर (जिन्हें इमीग्रेशन क्लीयरेंस की जरुरत नहीं होती) स्टेटस है. इस वजह से भारतीयों के लिए इमीग्रेशन प्रक्रिया आसान होती है. देखभाल करने वालों की नौकरी के इच्छुक लोगों को केवल हिब्रू में एक शॉर्ट-टर्म कोर्स करने की जरुरत होती है.
श्रेष्ठा आगे कहती हैं, "लेकिन देखभाल करना कोई आसान काम नहीं है. यहां भी लंबे समय तक काम करना पड़ता है, लेकिन कम से कम आपको इजरायल में इसके लिए अच्छा पैसा मिलता है."
डिकी सांगमो लामा (बदला हुआ नाम), इजराइल के हाफिया जिले के एक शहर, किर्यात बालिक में एक बुजुर्ग जोड़े की देखभाल करती हैं. शनिवार की घटना को याद करते हुए, उन्होंने द क्विंट को बताया कि:
"आम तौर पर, इजरायल में यहूदी त्योहार के आखिरी दिन इतना शोर-शराबा नहीं होता... लेकिन शनिवार को, मैं सायरन बजने की आवाज से जाग गई और ऐसा लग रहा था जैसे रॉकेट दागे जा रहे हों. शुरू में, मैंने सोचा कि यह कुछ खास नहीं था क्योंकि यहां सायरन बजते रहते हैं. लेकिन उस दिन, कुछ गड़बड़ लग रही थी."डिकी सांगमो लामा
उन्होंने आगे बताया कि, "जब हमने टीवी चालू किया, तो हमने देखा कि हमास उग्रवादी ग्रुप के लोग परिवारों का अपहरण कर रहे हैं और उन्हें घसीट कर ले जा रहे हैं. इससे मेरे एम्प्लॉयर डर गए, उनकी उम्र अधिक है. मेरा एकमात्र विचार था: अगर कुछ हो गया तो मेरे परिवार का क्या होगा? मेरे साथ क्या होगा? वास्तव में, बाद में जब मैंने अपने बेटे को फोन किया, तो वह रोता रहा और मुझसे वापस लौटने की विनती करता रहा.''
गंगटोक की रहने वाली डिकी अपने परिवार में कमाने वाली अकेली हैं. उनके पति, उनके माता-पिता और एक सात वर्षीय बेटा, जो भारत में रहते हैं, आर्थिक रूप से उन पर निर्भर हैं.
वह बताती हैं, "मुझे अपने बेटे को बड़ा होते हुए देखना याद आता है, लेकिन मुझे यहीं रहना होगा. भारत में, नर्स के रूप में मेरी नौकरी से मुझे ज्यादा वेतन नहीं मिल रहा था. मैं चाहती हूं कि मेरा बेटा अच्छे स्कूल में जाए और अच्छी शिक्षा पाए."
हालांकि, वह कहती हैं कि केयरटेकर के रूप में उनका काम थका देने वाला है, और उन्हें मुश्किल से ही समय मिल पाता है. वह कहती हैं कि, "मुझे महीने में केवल एक बार छुट्टी मिलती है और वास्तव में कुछ भी करने का समय नहीं मिलता है."
द टाइम्स ऑफ इजरायल की एक हालिया रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे दशकों से इजरायल में विदेशी केयरटेकरों का शोषण किया जाता रहा है और उनसे जबरन वसूली की जाती रही है. ये फिलीपींस, भारत, श्रीलंका, नेपाल और अन्य देशों से आते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से ज्यादातर विदेशी केयरटेकर "अपार्टमेंट में एक कमरे तक सिमित रहते हैं" और "पब्लिक लाइफ से गायब रहते" हैं.
फिर भी, डिकी का कहना है कि वह भारत वापस आने पर तभी विचार करेगी जब उन्हें समान वेतन और अतिरिक्त लाभ वाली नौकरी मिलेगी.
जब उनसे पूछा गया कि इस संघर्ष के बीच वह अपनी दैनिक जरूरतों का ख्याल कैसे रख रही हैं, तो वह कहती हैं, "हम अपने मालिक के परिवार के सदस्यों (बेटे और बेटियों) से हमारे लिए ऑनलाइन चीजें ऑर्डर करने का अनुरोध कर रहे हैं. अभी बाहर निकलना खतरनाक है."
'क्या हमारा भी वही हश्र होगा जो उन नेपाली छात्रों का हुआ?'
दार्जिलिंग जिले के मिरिक की रहने वाली निक्की घाली (बदला हुआ नाम) मध्य तेल अवीव में एक बुजुर्ग जोड़े के लिए लिव-इन केयरटेकर के रूप में काम करती है. वह शनिवार को याद करते हुए कहती हैं कि जब उन्होंने सायरन के बाद गोलियों की आवाजें सुनीं तो वह घबरा गई थीं.
उन्होंने द क्विंट से कहा कि, "इस बार, संघर्ष अलग है. यह अन्य भड़कने वाली घटनाओं की तरह नहीं है. इसकी क्या गारंटी है कि वे हमें घेरकर नहीं ले जाएंगे? आखिरकार, उन्होंने नेपाली छात्रों के साथ बिल्कुल वैसा ही किया."
निक्की दक्षिणी इजरायल पर हमास के हमले में कई नेपाली छात्रों के घायल होने, मारे जाने और अपहरण होने की खबर का जिक्र कर रही हैं.
"तेल अवीव इस समय एक भुतहा शहर जैसा है. सड़कों पर बहुत कम लोग हैं, आसपास कोई बच्चा नहीं खेल रहा है. यह बेहद शांत है. अपनी छुट्टी के दिन, मैं नेपाली समुदाय के अपने दोस्तों के साथ घूमने जाता हूं, मिलना-जुलना, उनके साथ बीच पर जाना. मैं वास्तव में ऐसा करने के लिए उत्सुक हूं, लेकिन मुझे नहीं पता कि स्थिति अब कब सामान्य होगी.''निक्की
जबकि उसके पास कोई ठिकाना नहीं है, निक्की का कहना है कि वह "आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के लिए" इजरायल चली गई. और वह वापस नहीं जाना चाहती.
वह द क्विंट को बताती हैं, "अगर हमें भारत वापस जाना है और प्रैक्टिस करना है, तो हमें खुद को फिर से रजिस्टर करना होगा और यह वास्तव में एक लंबी प्रक्रिया है."
तीनों महिलाएं - बाकी नेपाली भारतीय समुदाय की तरह - एक-दूसरे में सांत्वना पा रही हैं.
"इस कठिन समय में जिस चीज ने हमें वास्तव में स्वस्थ रखा है, वह यह है कि नेपाली समुदाय एक साथ आ गया है. हम भले ही शारीरिक रूप से एक-दूसरे से मिलने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन हम नियमित रूप से कॉल और मैसेज के माध्यम से एक-दूसरे के बारे में जानकारी ले रहे हैं."श्रेष्ठा
श्रेष्ठा कहती हैं, "हमारी दीदियों और दाजुओं (भाई-बहनों) के बीच समुदाय की भावना है. हमारे बीच इस बात पर बातचीत होती है कि एक बार यह खत्म होने के बाद हम क्या करेंगे और अपनी दासईं (दशहरा) कैसे बिताएंगे. हम वास्तव में उम्मीद करते हैं कि तबतक युद्ध खत्म हो जाएगा."
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)