अमेरिकी संसद की निचली सभा यानि हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी (Nancy Pelosi) ने रविवार, 31 जुलाई को अपने एशिया दौरे की शुरुआत की. उनके इस दौरे पर चीनियों में बहुत खलबली मच गई. उनका पहला पड़ाव सिंगापुर था, जहां वो सोमवार को पहुंची थीं, लेकिन मंगलवार को उनकी ताइवान यात्रा ने चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच पारा गरमा दिया है.
जब वो सिंगापुर आई ही थीं कि चीन ने चेतावनी दी थी कि उनकी सेना चुपचाप नहीं बैठेगी. पेलोसी अमेरिकी सरकार में नंबर 3 पर हैं और उनकी ताइवान यात्रा "गंभीर राजनीतिक असर लाएगी".ये चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन के शब्द थे.
उन्होंने पिछले हफ्ते इसी तरह की चेतावनी दी थी. उन्होंने कहा था अगर पेलोसी की यात्रा हुई तो उनका देश ‘कठोर’ कदम उठाएगा और अमेरिका सभी गंभीर नतीजों के लिए जिम्मेदार होगा."
यहां जरूर याद रखें कि अमेरिकी सरकार ने ताइवान को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी है. यहां तक कि राष्ट्रपति बाइडेन ने भी कहा है कि अमेरिकी सेना को नहीं लगता कि हाउस स्पीकर की ताइवान यात्रा "अभी एक अच्छा विचार है"
तो फिर चल क्या रहा है? अमेरिकी सरकार में नंबर 3 के इस ताइवान दौरे से चीन क्यों तमतमाया हुआ है ?
नैंसी पेलोसी चीन को कैसे देखती हैं?
वो परवाह नहीं करतीं और ऐसा तीन दशक से होता आ रहा है. 1991 में, तियानमेन चौक नरसंहार के दो साल बाद वो वहां भी गईं और लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों की याद में एक बैनर लगाया जिसे चीनी सेना ने गिरा दिया था.
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, एक दशक से भी अधिक समय के बाद, उन्होंने 2002 में तत्कालीन चीनी उप राष्ट्रपति हू जिंताओ को चार पत्र भेजने की कोशिश की, जिसमें चीन और तिब्बत में कार्यकर्ताओं की रिहाई की मांग की थी.
उन्होंने मानवाधिकार हनन के कथित आरोपों के कारण ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए चीनी सरकार की दावेदारी का भी विरोध किया . एक बार राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश से चीन में आयोजित 2008 के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने का असफल आग्रह किया था.
इस साल भी, उन्होंने शिनजियांग में उइगर मुसलमानों के कथित मानवाधिकारों के हनन के विरोध में बीजिंग विंटर ओलंपिक 2022 के कूटनीतिक बहिष्कार का एलान किया.
पेलोसी ने कहा था
जहां चीन जैसे देश में नरसंहार चल रहा है वहां जाने का कोई औचित्य नहीं है, खासकर जब आप किसी पद पर होते हैं तो फिर वहां जाना नहीं चाहिए क्योंकि फिर आप मानवाधिकार पर सवाल उठाने का नैतिक अधिकार नहीं रखते हैं.
ताइवान को अपना हिस्सा मानता है चीन
1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना के बाद से चीनी सरकार ने ताइवान को अपना एक अलग प्रांत के तौर पर माना है.
बीबीसी की दो अलग-अलग रिपोर्टों के अनुसार, राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘ताइवान को फिर से चीन में मिलना चाहिए और वो होगा’ .
ताइवान को चीन ऐतिहासिक रूप से हमेशा अपना हिस्सा मानता आ रहा है. इसलिए जब अमेरिका का कोई शख्स जो अधिकारिक तौर पर वहां नंबर 3 हो और वो ताइवान का दौरा करता है, तो चीनी इसे उनकी अनुमति के बिना अपनी जमीन पर जबरदस्ती आने जैसा मानते हैं.
बेशक, एक ना भूलने वाला फैक्टर यह है कि अमेरिका ने ताइवान को 1979 के ताइवान रिलेशन एक्ट के तहत दशकों से आर्थिक और सैन्य सहायता दी है. इसमें लिखा गया है- "संयुक्त राज्य अमेरिका ताइवान को रक्षा उपकरण देगा और ताइवान को आत्मरक्षा क्षमता को बनाए रखने में सभी जरूरी मदद करेगा."
TRA यानि ताइवान रिलेशन एक्ट का एक हिस्सा बताता है कि "अमेरिका के लोगों और ताइवान के लोगों के बीच वाणिज्यिक, सांस्कृतिक और दूसरे संबंधों को जारी रखने के लिए अधिनियम लाया गया है."
दूसरी ओर, घरेलू और विदेश नीति दोनों के लिहाज से ताइवान चीन के लिए अहम है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का मानना है कि 21वीं सदी से पहले की दो सदियों के दौरान चीन का इतिहास अफीम युद्धों और जापान से हार जैसे राष्ट्रीय अपमान के उदाहरणों से भरा पड़ा है. शी जिनपिंग के पास साल 2049 तक यानि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की 100वीं सालगिरह तक जोरदार चीनी राष्ट्रवाद का प्लान है. यहां इसके मायने सिर्फ आर्थिक और एशिया में अपना वर्चस्व नहीं है ..बल्कि महान चीन यानि ग्रेटर चाइना को फिर से कायम करना है, जिसमें तिब्बत, हॉन्गकॉन्ग और ताइवान भी शामिल है. ताइवान की आजादी शी जिनपिंग और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रवादी मंसूबों के विनाशकारी धक्का जैसा होगा.
यह तिब्बत और झिंजियांग में अलगाववादी आंदोलनों को भी बढ़ावा देगा, जो कि भले ही पुराने अपमान से अलग हो लेकिन वो मौजूदा शासक की आंखों में गड़ेगा और शी जिनपिंग ने ऐसा नहीं होने देने की कसम खाई है.
ताइवान के बारे में चीनी लक्ष्य को जानते हुए पेलोसी यात्रा चीन के लिए अमेरिका की सीधी चुनौती, उनके अधिकार और वर्चस्व को जवाब माना जा रहा है.
ताइवानियों का विचार अलग
इस तरह आखिर चीन-अमेरिकी महाशक्ति प्रतिद्वंद्विता के बीच, ताइवानी जनता कहां खड़ी होती है?
आज, ताइवान में कुछ लोग ही चीन के साथ फिर से मिलने के पक्ष में हैं. इसमें जातीयतावाद के अलावा नागरिक राष्ट्रवाद भी बड़ी वजह है.
काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के अनुसार, 2020 में हुए चुनावों में ताइवान के लगभग दो-तिहाई निवासी अपनी पहचान को केवल 'ताइवान' मानते हैं, और लगभग एक-तिहाई खुद को ताइवानी और चीनी दोनों ही मानते हैं.
केवल तीन प्रतिशत ही खुद को सिर्फ 'चीनी' मानते हैं. ताइवानी पहचान की एक मजबूत भावना ताइवान के चीन से फिर से मिलने के खिलाफ से उभरती है.
प्यू रिसर्च सेंटर के नतीजे भी कुछ कुछ ऐसा ही बताते हैं. लाखों ताइवानी युवा जो ताइवान के भविष्य हैं, खुद को चीन से अलग मानते हैं. इनका चीन के साथ कोई सांस्कृतिक लगाव नहीं है लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ताइवान के निवासियों की अपनी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के प्रति निष्ठा है या जिसे चीनी मामलों के विशेषज्ञ स्वर्गीय रिचर्ड बुश ने नागरिक राष्ट्रवाद बताया था.
CFR की रिपोर्ट के मुताबिक ताइवान के अधिकांश लोग ‘एक देश, दो सिस्टम’ वाले मॉडल के खिलाफ हैं जिसमें हांगकांग और मकाऊ की तरह ताइवान को भी चीन का खास प्रशासनिक इलाका बनाकर काम करने दिया जाए.
ऐसा इसलिए है क्योंकि ताइवान के लोग लोकतंत्र से बहुत अधिक जुड़े हुए हैं. वे चीन पर भरोसा नहीं करते हैं. वो स्वायत्तता के वादे पर संदेह रखते हैं. हॉन्ग कॉन्ग का उदाहरण उनके सामने है.
ताइपे में एक डिजिटल डिजाइनर यून ने द डिप्लोमैट को बताया कि उन्हें चीनियों से परेशानी नहीं है लेकिन चीनी सरकार से वो नफरत करते हैं. चीनी सरकार से उनको दिक्कत इसलिए हैं क्योंकि उन्हें आजादी और लोकतंत्र से प्यार है. रिपोर्टों के अनुसार, यह भावना ताइवान की अधिकांश आबादी में है. वो कहते हैं, ‘उन्होंने हॉन्गकॉन्ग को 50 साल की आजादी का वादा किया लेकिन वो उन्हें पहले ही खत्म कर रहे हैं, वो अपना वादा निभा नहीं सकते, इसलिए मैं कैसे उनपर भरोसा करूं, मैं कभी उन पर यकीन नहीं करूंगा.
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