स्ट्रेट शूटर के तौर पर जाने जाने वाले जनरल असीम मुनीर (Asim Munir) के बारे में कहा जाता है कि वह सीधी-सादी और बेबाक भाषा में अपने मन की बात कहते हैं. अब फैसला हो चुका है. जीत और हार की बाजियां पूरी हो गई हैं. तीन बार के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ जीत गए हैं और लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर को पाकिस्तान का अगला आर्मी चीफ (Pakistan Army Chief) चुना गया है.
जनरल साहिर शमशाद मिर्जा को संयुक्त चीफ ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष के रूप में नामित किया गया है. यह बहुत हाई पावर गेम था और यहां यह देखना था कि पहले सरेंडर कौन करता है. निश्चित तौर पर शरीफ अड़े रहे.
अगले सेना प्रमुख के नाम पर अपनी बात मनवाने के लिए पर्याप्त दबाव बनाने की इमरान खान की सात महीने लंबी चाल कामयाब नहीं हो पाई. लाज बचाने की आखिरी कोशिश में राष्ट्रपति आरिफ अल्वी लाहौर में इमरान खान के घर ये बताने के लिए पहुंचे कि उन्होंने इमरान खान की सलाह के मुताबिक काम किया है.
आर्मी चीफ की नियुक्ति पर पाकिस्तान में खींचतान
आर्मी चीफ का ये चुनाव सिर्फ इमरान खान और नवाज शरीफ का मुकाबला नहीं था. ये भले ही इन दोनों के बीच अभी खत्म होता दिखे लेकिन आर्मी के भीतर टकराव मौके-मौके पर आते रहेंगे. इमरान खान के बेधड़क, निर्मम और अभूतपूर्व "न्यूट्रल" अभियान को सेना के भीतर से भी समर्थन था. इसमें वो अकेले नहीं थे.
उन्होंने वोट ऑफ नो-कॉन्फिडेंस यानि अविश्वास प्रस्ताव को गैरकानूनी तौर पर रोकने की कोशिश की. IMF की फंडिंग रूकवाई और डिफॉल्ट की नौबत आई. आर्मी के भीतर जो विभाजन है उसका फायदा उठाते हुए बगावत खड़ी करने की कोशिश की. भले ही इसका कोई ठोस नतीजा नहीं आया लेकिन वो यह सब कर पाए क्योंकि आर्मी के भीतर उनको अच्छा समर्थन था.
इस ग्रुप ने किसी भी कीमत पर अपनी बाजी जीतने और मजबूत करने के लिए एक लापरवाही भरा दांव चला. इमरान खान महज एक मोहरे थे. इस खेल में, जनरल बाजवा कमजोर कड़ी थे, जिन्होंने दोनों पक्षों के साथ खेला. उनका एक्शन इस बात पर निर्भर करता रहता था कि किस समय कौन जीत रहा था.
एक मजबूत सेना प्रमुख जिनके कमांड में सेना की टुकड़ी होती है उन्हें अपने प्रवक्ता से टेलीविजन पर यह कहाने की जरूरत नहीं है कि सेना में कोई विभाजन नहीं है. "सिपहसालार जिस तरफ देखता है, सात लाख फौज उस तरफ देखती है" मतलब (सात लाख) शक्तिशाली सेना उस दिशा में देखती है जिस ओर चीफ देखता है.
अब पाकिस्तान की सेना क्या करेगी ?
अभी लग रहा है कि कठपुतली का खेल भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन वर्चस्व के लिए एक-दूसरे से लड़ने वाली सेना में संघर्ष जारी है. ये सरदार सबसे मजबूत दावेदार को हराने के लिए एक साथ लड़ते हैं, और अगर यह हासिल हो जाता है तो फिर एक दूसरे पर हमला करते हैं और ये सब चलता रहता है. साथ में, उन्होंने देश को पूर्ण अराजकता में डुबोने के जोखिम के लिए खतरनाक रूप से पर्याप्त जुआ खेला, और इसलिए ये सोचना कि वो हथियार रख देंगे बहुत व्यवहारिक नहीं है.
वक्त को झांसा देने के लिए वो जैसा वक्त होगा वैसा ही करते दिखेंगे. जनरल असीम मुनीर की तारीफ में चाटुकारिता भरे बयान आने आर्मी के सभी तबके से शुरू हो गए हैं. लेकिन वो सही मौके के इंतजार में चाकू पर धार चढ़ाते रहेंगे.
ऐसे में यह देखा जाना बाकी है कि क्या नए सेनाध्यक्ष जनरल असीम मुनीर अपनी सत्ता को सफलतापूर्वक मजबूत कर पाएंगे या जिस तरह निवर्तमान चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा सत्ता संभालने के छह महीने के भीतर दूसरों के हाथों के मेमने बन जाएंगे, वैसा ही मुनीर के साथ होगा?
पीएम की पत्नी के खिलाफ जांच का दम
मुनीर क्या करेंगे? इस सवाल का कुछ सुराग उनके और इमरान खान के बीच कुछ चर्चित बातचीत से मिल सकता है. ISI के DG के रूप में अपनी नौकरी के सिर्फ आठ महीने बाद, उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री की पत्नी बुशरा बेगम के भ्रष्टाचार की जांच कर सबूत पेश किए. ये और बात है कि उसी दिन उन्हें उस पद से हटा दिया गया था, लेकिन यह उनके जबरदस्त हिम्मत के बारे में बताता है.
जरा सोचिए कि कोई अपने बॉस यानि कंपनी के CEO को यह बताने की हिमाकत करें कि वह अपनी पत्नी से ठगा जा रहा है - यह अच्छी तरह से जानते हुए कि सीईओ के पीछे पूरा निदेशक मंडल खड़ा है.
और फिर भी वो सिस्टम में बने रहे. वो कॉर्प कमांडर गुजरांवाला के पद पर आसीन हुए. यह घटना इस बात की ओर भी संकेत करती है कि वह सेना के भीतर उन दुर्लभ लोगों में से हैं जो आर्थिक रूप से साफ सुथरी छवि वाले हैं. अगर वह नहीं होते तो वह पीएम की पत्नी का कच्चा चिट्ठा लेकर पीएम के पास नहीं पहुंचते.
दिलचस्प बात ये भी है कि उस समय यह घटना खबरों में नहीं आई थी. उन्होंने इस पर राजनीति नहीं की. मीडिया ट्रायल या पावर प्ले का प्रयास नहीं किया. दरअसल, ISI डीजी के रूप में उनका नाम घर-घर तक नहीं पहुंचा- पाकिस्तान के लिए यह एक दुर्लभ बात है.
आखिर क्यों जनरल असीम मुनीर किसी गुट के आदमी नहीं
इससे पहले वो तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान से सीधे भिड़ गए. विपक्षी नेताओं को सलाखों के पीछे डालने के इमरान के आदेशों को नकार दिया. कथित तौर पर उन्होंने इमरान को टूक जवाब दे दिया था कि यह उनका काम ही नहीं है. बेशक, उनके उत्तराधिकारी ने एनएबी, अदालतों और अन्य सरकारी विभागों पर निर्भर रहना स्वीकार किया.
स्वॉर्ड ऑफ ऑनर से सम्मानित एक सटीक निशानेबाज के रूप में जाने जाने वाले, जनरल असीम मुनीर के बारे में कहा जाता है कि वह अपने बॉस जनरल कमर जावेद बाजवा से असहमत होने पर भी अपने मन की बात सीधी-सादी भाषा में कहते हैं. इसलिए, पीडीएम गठबंधन सरकार भी उनसे "उनके आदमी" होने की उम्मीद नहीं कर रही है.
अब जो भी हो लेकिन मुनीर के लिए पूर्व पीएम नवाज शरीफ ने GHQ से आने वाले खतरों को मोल लिया. सरकार गिरने, मार्शल लॉ लागू होने और अपने उम्मीदवार के समय से पूर्व रिटायरमेंट का खतरा उठाया. नवाज तब भी डटे रहे जब मुनीर के नाम की पीएम ने सिफारिश की और राष्ट्रपति फाइल दबाए रहे. संवैधानिक संकट भी पैदा हो सकता था अगर वरिष्ठतम सैन्य अफसर के नाम को कानूनी चुनौती दी जाती. साफ है कि मियां नवाज ये समझते थे कि सेना मुख्यालय ऐसा कुछ करता है तो उसे ही ज्यादा नुकसान होगा.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)