पाकिस्तान (Pakistan) में 12वीं नेशनल असेंबली के लिए 8 फरवरी को संपन्न हुए चुनाव में कोई भी पार्टी सरकार के गठन के लिए जरूरी बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच सकी है. हालांकि, छिटपुट हिंसा और इंटरनेट सेवा बंद होने के बावजूद मतदाताओं ने बढ़-चढ़कर इस चुनाव में भाग लिया. चुनाव नतीजों से स्पष्ट है कि अगर पाकिस्तान में अगली सरकार बनती है तो इसके लिए कुछ पार्टियों को आपस में गठबंधन करना पड़ेगा.
पाकिस्तान का चुनावी अंकगणित
कुल 336 सदस्यों वाली पाकिस्तान नेशनल असेंबली में 266 सीटों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव कराये जाते हैं. बची हुई 70 सीटों में से 60 सीटें महिलाओं और 10 सीटें गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित होती हैं. प्रत्यक्ष चुनाव में जो पार्टी जितनी सीटें जीतती हैं, उसे उसी अनुपात में आरक्षित सीटें आवंटित कर दी जाती हैं.
पाकिस्तान की कुल आबादी लगभग 25 करोड़ है. इनमें से पंजीकृत मतदाताओं की संख्या 12.85 करोड़ है. इस चुनाव में 44 पंजीकृत पार्टियों के 5121 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा.
इस चुनाव में नवाज शरीफ की पार्टी ‘पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज’ (PML-N), बिलावल भुट्टो जरदारी की पार्टी ‘पाकिस्तान पीपल्स पार्टी’ (PPP) और इमरान खान की पार्टी ‘पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ’ (PTI) के बीच ही वास्तविक प्रतिस्पर्धा थी. हालांकि, पाकिस्तान चुनाव आयोग ने पीटीआई को चुनाव लड़ने से रोक दिया था, फिर भी पीटीआई समर्थित उम्मीदवारों ने निर्दलीय चुनाव लड़ा.
पाकिस्तानी अखबार डॉन की रिपोर्ट के मुताबिक, इमरान खान समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों ने 93 सीटों पर जीत दर्ज की है. वहीं पीएमएल-एन को 75 और पीपीपी को 54 और MQMP को 17 सीटें मिली हैं. वहीं अन्य पार्टियों और निर्दलियों को 25 सीटें मिली हैं.
यह चुनाव पाकिस्तान के लिए विशेष क्यों?
साल 2018 में इमरान खान भ्रष्टाचार विरोधी और सुधारवादी एजेंडे के साथ चुनावी मैदान में उतरे थे. मतदाताओं में बदलाव की तीव्र इच्छा के कारण उनकी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आयी. इमरान खान पाकिस्तान के 22वें प्रधानमंत्री बनें. हालांकि, पूर्व के प्रधानमंत्रियों की तरह ही ये भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके. 3 अप्रैल, 2022 को लाये गए अविश्वास प्रस्ताव का सामना किये बगैर ही इमरान खान की सलाह पर राष्ट्रपति ने नेशनल असेंबली को भंग कर दिया.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि चूंकि इमरान खान अपने विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रहे थे, इसलिए उनके पास असेंबली को भंग करने का अधिकार नहीं है. परिणामस्वरूप कोर्ट ने असेंबली को पुनः गठित करने का आदेश दिया.
10 अप्रैल,2022 को इमरान खान अविश्वास मत हार गये और नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ प्रधानमंत्री बनें. पाकिस्तान की परंपरा के अनुसार पुनः इनके स्थान पर अगस्त-2023 में अनवर-उल-हक कक्कड़ अगले आम चुनाव तक के लिए पाकिस्तान के अंतरिम प्रधानमंत्री बनाये गये.
इस वजह से इस बार का चुनाव पाकिस्तान के राजनीतिक भविष्य के लिए निर्णायक था. इमरान खान पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय हैं. जानकार बताते हैं कि इमरान खान का सेना के विरुद्ध रुख पाकिस्तानी लोकतंत्र में आमूलचूल परिवर्तन का वाहक साबित हुआ है. बकौल इमरान खान, सेना ने उनकी हत्या की भी कोशिश की थी. वो इस वक्त कई मामलों में सजायाफ्ता होकर जेल में बंद हैं, लेकिन उन्होंने जेल से ही सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों से अपील की थी कि लोग पाकिस्तान में बदलाव के लिए मतदान करें.
देश में बढ़ी हुई महंगाई, सुरक्षा संबंधी चिंताओं, प्रभावी एवं उत्तरदायी शासन का अभाव, सामाजिक अस्थिरता आदि अनेक कारणों की वजह से इस चुनाव में मतदाताओं से उम्मीद की जा रही थी कि वे एक ऐसे राजनीतिक वातावरण का निर्माण करेंगे जो सैन्य हस्तक्षेप से स्वतंत्र होगा.
भले ही PTI बहुतमत हासिल नहीं कर सकी, लेकिन सेना के दबाव के बावजूद पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया है. इससे निश्चित रूप से सेना के ऊपर मनोवैज्ञानिक और नैतिक दबाव बढ़ेगा.
शहबाज शरीफ होंगे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार
पाकिस्तान में सरकार गठन की कोशिशें तेज हो गई. नवाज शरीफ ने भाई शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुना है. वहीं बेटी मरियम नवाज को पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री पद के लिए उम्मीदवार बनाया है.
पीपीपी के चीफ बिलावल भुट्टो और मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट-पाकिस्तान ने नवाज की पार्टी को समर्थन देने का ऐलान किया है. ऐसे में शहबाज शरीफ का पीएम बनना लगभग तय माना जा रहा है. भुट्टो ने कहा है कि वो PML-N को बाहर से समर्थन देंगे, लेकिन सरकार में शामिल नहीं होंगे.
बता दें कि चुनाव के नतीजे आने के बाद रविवार, 11 फरवरी को शरबाज शरीफ ने सरकार गठन के लिए पहली बार बिलावल भुट्टो से औपचारिक मुलाकात की थी.
PPP और PML-N के बीच गठबंधन का इतिहास
पहली बार साल-2006 में जनरल परवेज मुशर्रफ के विरुद्ध बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ एक साथ आये थे. दोनों ने ‘चार्टर ऑफ डेमोक्रेसी’ (COD) पर हस्ताक्षर किये थे. इसमें अन्य बातों के साथ-साथ लोकतांत्रिक शासन की वापसी, न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका, रक्षा बजट और आईएसआई को प्रधानमंत्री के प्रति उत्तरदायी बनाने हेतु रूपरेखा तैयार किया गया था.
फरवरी-2008 में हुए आम चुनावों में बेनजीर भुट्टो की पीपीपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन के सहयोग से सरकार बनी जिसमें बेनजीर भुट्टो के पति आसिफ अली जरदारी राष्ट्रपति और पीपीपी के ही यूसुफ रजा गिलानी प्रधानमंत्री बनें. हालांकि कुछ ही महीने बाद यह गठबंधन टूट गया.
सैन्य दमन की आलोचना करने के लिए जनरल मुशर्रफ ने मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को निलंबित कर दिया था, और जरदारी उन्हें पुनः बहाल करने में रुचि नहीं दिखा रहे थे. इसी बात से नाराज होकर नवाज शरीफ गठबंधन से बाहर निकल गये.
दूसरी बार साल-2020 में इमरान खान के विरुद्ध कई पार्टियों ने एक गठबंधन किया जिसे ‘पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट’ (पीडीएम) नाम दिया गया. इसमें पीएमएल-एन और पीपीपी भी शामिल थी.अप्रैल-2022 में इसी गठबंधन ने इमरान खान के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करा लिया और उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. नवाज शरीफ के भाई शहवाज शरीफ प्रधानमंत्री और पीपीपी के बिलावल भुट्टो जरदारी विदेश मंत्री बनें.
नवाज शरीफ, बिलावल भुट्टो जरदारी और इमरान खान का भारत के प्रति रुख
नवाज शरीफ के बयानों पर गौर करने पर पता चलता है कि भारत के प्रति इनका नजरिया अपेक्षाकृत उदार है. साल- 1999 में भी इन्होंने भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिशें कीं, लेकिन जनरल परवेज मुशर्रफ के आगे इनकी चली नहीं और टकराव बढ़ने पर प्रधानमंत्री पद से हटना पड़ा. फिर साल-2013 में प्रधानमंत्री बनने के बाद इन्होंने भारत से संबंध सुधारने की कोशिशें कीं. लेकिन सेना का विश्वास खोने के कारण और पनामा पेपर्स में वित्तीय संलिप्तता के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें साल-2017 में पद से हटा दिया.
पिछले साल इन्होंने भारत की तरक्की की प्रशंसा करते हुए कहा था कि हमारे पड़ोसी चांद पर पहुंच गये और पाकिस्तान अभी भी संघर्ष कर रहा है.
नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ ने भी भारत से बातचीत की वकालत की है. पिछले साल उन्होने कहा था कि अगर पड़ोसी (भारत) गंभीर है, तो वह (पाकिस्तान) बातचीत को तैयार हैं.
"बीते 75 सालों में हमने तीन युद्ध लड़े हैं. इसने सिर्फ गरीबी, बेरोजगारी और संसाधनों की कमी को जन्म दिया है. युद्ध अब विकल्प नहीं है."शहबाज शरीफ
चूंकि नवाज और शहबाज भारत के साथ अच्छे संबंधों की बात करते रहे हैं, इसलिए भारत को उम्मीद है कि अगर शहबाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनते हैं तो संभवतः भारत कुछ व्यापारिक और पारंपरिक संबंधों को बहाल करने के बारे में सोच सकता है.
जुल्फिकार अली भुट्टो के नाती और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो जरदारी ने कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाये जाने का विरोध किया था. भारत- कनाडा राजनयिक विवाद पर इन्होंने कहा था कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए यह स्वीकार करने का समय आ गया है कि भारत एक हिंदू आतंकवादी राज्य बन चुका है. इनके नाना जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने का फैसला किया था. कुल मिलाकर भुट्टो परिवार का शुरू से ही भारत विरोधी रुख रहा है.
इमरान खान ने अपने कार्यकाल काल में भारत से कहा था कि ‘शांति को एक मौका’ देना चाहिए. पुलवामा हमले के बाद इन्होंने कहा था कि अगर भारत पर्याप्त खुफिया जानकारी पाकिस्तान को उपलब्ध कराता है तो हम कार्रवाई करेंगे. आगे उन्होंने यह भी कहा था कि इस्लामाबाद बातचीत के माध्यम से सारे लंबित मुद्दों को हल करना चाहता है. जब विमान क्रैश होने के कारण भारतीय वायुसेना के जवान अभिनंदन पाकिस्तानी सीमा में प्रवेश कर गये, तो अगले ही दिन उन्हें भारत भेज दिया गया था.
चुनावी घोषणा-पत्रों में भारत के बारे में क्या कहा गया?
“पाकिस्तान को नवाज दो” के नारे के साथ चुनाव लड़ रही पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में कहा है कि भारत के साथ पाकिस्तान शांति की घोषणा तभी करेगा जब भारत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद-370 को पुनः बहाल करेगा. इसके अतिरिक्त इसने यह भी कहा है कि इस्लामाबाद में विलंबित सार्क शिखर सम्मेलन आयोजित कराने और भारत के साथ क्षेत्रीय सहयोग नीति को पुनः स्थापित करने के लिए पहल करेगी.
बिलावल भुट्टो जरदारी के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में कहा है कि दोनों देशों के बीच आपसी टकराव को कम करने की कोशिश होगी. इसने स्वीकारा है कि दोनों देशों के बीच संबंधों का सामान्य होना क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए आवश्यक है. यह भी कहा गया है कि तापी गैस पाइपलाइन तथा अन्य रेल और सड़क कनेक्टिविटी परियोजनाओं को बढ़ावा देना इसकी प्रतिबद्धताओं में शामिल है.
इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के चुनावी घोषणा-पत्र के अनुसार वह विदेश नीति का निर्माण पाकिस्तान की इस्लामी पहचान और सिद्धांतों के आधार पर करेगी. हालांकि, कश्मीर के बारे में PTI ने भी बेतुकी बातें कही हैं. पार्टी के अनुसार यह कश्मीर के उत्पीड़ित लोगों के हितों की रक्षा करेगी.
पाकिस्तान की राजनीति में सैन्य हस्तक्षेप का इतिहास
यह सर्वविदित है कि शुरूआत से ही पाकिस्तान की चुनावी राजनीति में सेना विशेष रुचि लेती रही है. लोकतांत्रिक शासन में बीच-बीच में सैन्य हस्तक्षेप होते रहे हैं. सेना न केवल चुनावों को प्रभावित करती है, बल्कि अनेक बार स्वयं शासन व्यवस्था का नेतृत्व भी किया है. पाकिस्तान के 77 वर्षों के इतिहास में सेना 1958 ,1977 और 1999 में तख्तापलट कर चुकी है. 1947 में आजाद हुए पाकिस्तान को पहले आम चुनाव के लिए भी 23 वर्षों तक इंतजार करना पड़ा.
कोई भी पार्टी सेना प्रमुखों के समर्थन के बिना सफल नहीं हो सकती है. यहां तक की जो लोग इसका विरोध करते हैं उन्हें गिरफ्तारी, निर्वासन आदि का भी सामना करना पड़ता है.
पूर्व विदेश सचिव विवेक काटजू के अनुसार, “नवाज शरीफ इमरान और मुनीर के बीच कड़वाहट से भलीभांति परिचित थे और उन्हें अनुमान था कि इमरान को सत्ता से दूर रखने के लिए मुनीर किसी भी सीमा तक जाने से संकोच नहीं करेंगे. अभी तक नवाज सही साबित होते दिख रहे हैं. मुनीर और न्यायपालिका की एक प्रकार की जुगलबंदी के चलते इमरान मई 2023 से ही जेल में हैं.”
दरअसल, साल-2008 के बाद से अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण पाकिस्तानी सेना ने तय किया है कि अब वह सीधे सत्ता अपने हाथ में नहीं लेगी, बल्कि परदे के पीछे रहकर सत्ता को नियंत्रित करेगी. ऐसा करने के लिए वह अपनी पसंद के व्यक्तियों को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाती है. साथ ही सेना यह भी चाहती है कि पाकिस्तान में पूर्ण बहुमत वाली सरकार नहीं बने. ऐसा होने पर उसे सत्ता को नियंत्रित करने में आसानी होती है. इस चुनाव में भी आरोप लगाये जा रहे हैं कि सेना ने जानबूझकर चुनाव में हेराफेरी करके सभी पार्टियों को बहुमत से दूर रखा है.
चुनावी प्रक्रिया में सैन्य हस्तक्षेपों का ही दुष्परिणाम है कि अब तक पाकिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ें गहरी नहीं हो सकी हैं.
आगे भारत का रुख कैसा रहेगा?
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि, “हम अपने दोस्त बदल सकते हैं, लेकिन अपने पड़ोसी नहीं.” भारत हमेशा ही इस सूत्र वाक्य का पालन करते आया है, किंतु पाकिस्तान से हर बार धोखा मिला. अतः फिलहाल भारत ने पाकिस्तान के साथ तब तक बातचीत से इंकार कर दिया है जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को समर्थन देना बंद नहीं करेगा.
जब भी भारत सरकार पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार से बातचीत शुरू करती है, तो यह बात वहां की सेना को हजम नहीं होती है. फरवरी-1999 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद ही पाकिस्तान ने कारगिल युद्ध छेड़ दिया था. फिर दिसंबर-2015 में जब नरेंद्र मोदी ने लाहौर जाकर नवाज शरीफ से मुलाकात की, तो इसके तुरंत बाद पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थित आतंकवादियों ने जनवरी-2016 में पठानकोट एयरबेस और सितंबर-2016 में कश्मीर के उरी में हमले कर दिये. इसका परिणाम हुआ कि भारत को पाकिस्तानी सीमा में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक करना पड़ा.
भारत शुरूआत से ही पाकिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन करते आया है, क्योंकि भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंध तभी अच्छे होंगे जब चुनी हुई सरकार बिना सैन्य हस्तक्षेप के निर्णय ले सकेगी. पाकिस्तानी सेना कभी नहीं चाहती है कि भारत के साथ अच्छे संबंध स्थापित हों.
पाकिस्तान के अब तक के इतिहास में 30 प्रधानमंत्री हुए, लेकिन किसी भी प्रधानमंत्री ने अपने पांच वर्षों का कार्यालय पूरा नहीं किया. जो भी सरकार संबंध बेहतर करना चाहती है उसे सेना अस्थिर कर देती है. भारत जानता है कि पाकिस्तान में असली सत्ता परिवर्तन तब होता है जब सेना के जनरल बदलते हैं.
चूंकि वर्तमान जनरल असीम मुनीर ने नवंबर-2022 में ही पदभार ग्रहण किया है, इसलिए उनके पास अभी लंबा कार्यकाल शेष है.
फिलहाल पाकिस्तान के संबंध में भारतीय विदेश नीति उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग थलग करने पर केंद्रित है. भारत को इसमें सफलता भी मिली है. अगर पाकिस्तान की नयी सरकार सैन्य दबाव से मुक्त होकर अपनी विदेश नीति में बदलाव नहीं करेगी तो भारत उसके साथ संबंधों को लेकर आगे भी उदासीन बना रहेगा.
(लेखक सुभाष कुमार ठाकुर रिसर्च स्कॉलर हैं. वर्तमान में वे बिहार के मुजफ्फरपुर स्थिति बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान विषय में पीएचडी कर रहे हैं.)
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