पेरिस में 13 नवंबर की रात छह अलग-अलग भीड़ वाले स्थानों पर हुए आतंकी हमलों के बाद शरणार्थियों पर एक नई बहस शुरू हुई है. लेकिन, ये बहस हमें कूटनीतिज्ञ चाणक्य और उनके शिष्य चंद्रगुप्त के बीच हुए राजनीतिक विचार-विमर्श की याद दिलाती है.
ये उस दौर की बात है जब मगध राज्य अकाल और भुखमरी से गुजर रहा था. ऐसे में अपनी प्रजा के कष्टों से दुखी राजा चंद्रगुप्त ने अपने गुरू और राजनीतिक सलाहकार चाणक्य से पूछा कि वह अपनी प्रजा के कष्टों को कम करने के लिए क्या कर सकते हैं?
तुम्हें अपनी प्रजा को पड़ोसी देशों में रहने के लिए भेजना चाहिए. इससे तुम एक बड़ी जनसंख्या को खाद्य आपूर्ति करने से बचने के साथ ही अपनी प्रजा को जीवित रहने में मदद भी करोगे. इसके साथ ही पड़ोसी देशों में बसने वाले ये लोग तुम्हारे स्थाई गुप्तचर होंगे. जरूरत पड़ने पर तुम पड़ोसी देशों को कमजोर और खत्म करने के लिए इनका इस्तेमाल कर सकते हो.चाणक्य ने चंद्रगुप्त को दिए जवाब में कहा
आज के संदर्भ में अकाल की समस्या, इस्लामिक स्टेट के आतंकी मंसूबे, इराक और सीरिया का गृह युद्ध, अफगानिस्तान, कोसोवो, पाकिस्तान, सोमालिया, इरिट्रिया में चल रहा संघर्ष, पेरिस हमले के मास्टरमाइंड अबौद जैसों को अपने साथ हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए विवश कर रहा है.
अप्रवासन से पैदा होने वाली समस्याएं
शरणार्थी अपने देश और उन्हें शरण देने वाले देशों के प्रति दोहरे समर्पण के साथ जीते हैं जिसका आतंकियों द्वारा आसानी से फायदा उठाया जा सकता है
साल 2016 के अंत तक यूरोप में रहने वाले शरणार्थियों की संख्या दस लाख के पार पहुंच जाएगी. भारत में खासकर असम और पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी शरणार्थी अलगाव, भय और गुस्से से गुजरते हैं
चूंकि, भारत सरकार शरणार्थियों को भारत आने से नहीं रोक सकती. लेकिन, कम से कम भारत आकर बसने वाले शरणार्थियों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए एक डाटाबेस बनाने की शुरुआत करनी चाहिए.
क्या है शरणार्थियों की समस्या
चाणक्य की कूटनीति को कई देशों द्वारा नकारा जा रहा है जो उनके लिए ही नुकसान दायक है. याद कीजिए कि जब चेक गणराज्य, हंगरी, बुल्गारिया और पोलेंड ने यूरोपीय संघ द्वारा तय किए गए शरणार्थी कोटा को मानने से इनकार कर दिया था तो फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने उन्हें खरी-खोटी सुनाई थीं.
फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने इन देशों के यूरोपीय संघ में रहने पर भी सवाल उठाया था. जबकि, इन देशों का तर्क था कि शरणार्थियों को स्वीकार करने से उनके देशों में भी आतंकवाद और मानव तस्करी में बढ़ोत्तरी होगी.
लेकिन, अब मानवीय मूल्यों की बात करने वाले फ्रांसीसी राष्ट्रपति पेरिस आतंकी हमले में मारे गए बेकसूरों की जान का बदला लेने के लिए दूसरे देशों के आम नागरिकों, बच्चों और महिलाओं पर बम बरसा रहे हैं.
जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने भी यूरोपीय संघ के देशों से मानवीय और नैतिक मूल्यों के प्रति समर्पण दिखाने की अपील की है. उन्होंने अगले कई सालों तक प्रतिवर्ष 5 लाख शरणार्थियों को जर्मनी में शरण देने की हामी भी भरी है.
आसान है शरणार्थियों को भटकाना
शरणार्थी या अप्रवासी लोग स्वाभाविक रूप से अपने देश और शरण पाने वाले देश के प्रति दोहरे समर्पण का बोझ ढोते हैं. ऐसे में उन्हें आसानी से देशभक्ति के नाम पर भटकाया जा सकता है.
इस्लामिक स्टेट और अन्य आतंकी संगठनों के लिए इन शरणार्थियों से अच्छे हथियार नहीं हो सकते. इन्हें स्लीपर सेल और आतंकी घटनाओं में मदद करने वालों के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है. कम उम्र के शरणार्थियों के इन आतंकी संगठनों द्वारा भ्रमित किए जाने की संभावना सबसे अधिक रहती है क्योंकि कम उम्र में वे अच्छे और बुरे के बीच अंतर नहीं कर पाते.
यही कारण है कि पेरिस में आतंकी हमले को अंजाम देने वालों में सीरिया और मोरक्को मूल के युवा निवासी हैं. हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का कहना है कि ऐसे शरणार्थियों का समाज उन्हें आतंक का रास्ता चुनने से रोक सकता है. लेकिन, ये भी इस समस्या का अत्यंत सरलीकरण ही है.
प्रवासी हमेशा ही अपने समुदाय के प्रति अतिसंवेदनशील रहते हैं क्योंकि आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक भेदभाव की वजह से वे जिस देश में प्रवास कर रहे हैं उसके मूल नागरिकों की तरह महसूस नहीं कर पाते.
यूरोप में 2007 से ऐसे असंतुष्ट तत्वों में बढ़ोत्तरी देखी जा रही है. हालांकि, हंग्री, क्रोएशिया, ग्रीस, बुल्गारिया, पोलेंड, स्लोवेनिया ने शरणार्थियों को रोकने के लिए अपनी सीमाओं को तारों से ढक दिया है. लेकिन, शरणार्थियों की बड़ी संख्या की वजह से उन्हें रोकना संभव नहीं है.
साल 2016 के अंत तक यूरोप में अप्रवासियों की संख्या दस लाख के पार पहुंच सकती है. ऐसे में इस्लामिक स्टेट को अमेरिका, फ्रांस और रूस के हमलों की चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि उन्हें अपने इस्लामिक स्टेट को बनाने के लिए स्वयंसेवकों की बड़ी तादाद आसानी से मिल जाएगी.
भारत में बांग्लादेशी शरणार्थियों की समस्या
भारत ने बांग्लादेशी शरणार्थियों की एक बड़े जनसमूह को पूर्वी और उत्तर पूर्वी राज्यों में शरण दी है. सीमा की निगरानी करने वाली एजेंसियां इन्हें व्यावसायिक फायदे की तरह देखती हैं. वहीं, हमारी राजनीतिक पार्टियां इन शरणार्थियों के वोटबैंक को पाने के साथ ही फ्रांस्वा ओलांद और एंजेला मर्केल जैसे विश्व नेताओं की तरह भारत का मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पण दिखाना चाहती हैं.
यूरोप में भी बांग्लादेशी अप्रवासियों को प्यार करने, उनके साथ अलगाव का व्यवहार करने वाले और उनका उपयोग करने वाले लोग हैं. लेकिन, असम और पश्चिम बंगाल में जन बल और शस्त्रों से लैस होने की वजह से ये शरणार्थी अपने लिए लड़ने के लिए तैयार हैं.
इस बात में लंबा समय नहीं लगेगा जब इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठन इन्हें अपनी अग्रणी सैन्य टुकड़ियों के रूप में गंभीरता से लेने लगें. भारत में रहने वाले शरणार्थी अपने सीरियाई समकक्षों से ज्यादा भाग्यशाली हैं क्योंकि भारत में कोई भी उनको दी गई शरण वापस लेने नहीं जा रहा है.
भारत में पेरिस जैसे आतंकी हमले के होने से पहले हमें चाणक्य की जवाब को गंभीरता से लेना चाहिए जो उन्होंने चंद्रगुप्त को दिया. चाणक्य कहते हैं कि अगर आप स्वयं वो देश हैं जिसकी सीमा पर शरणार्थियों की एक बड़ी भीड़ खड़ी हो तो आपको अपने देश में सिर्फ उतने शरणार्थियों को पनाह देनी चाहिए जिनकी गतिविधियों पर आप नजर रख सकें.
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