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रूस-यूक्रेन युद्ध: जयशंकर सख्त, लेकिन क्या भारत इस मूल्य की कीमत चुका सकता है?

भारत के तटस्थ रुख पर जयशंकर ने पश्चिम को फटकार लगाई है. लेकिन, यह भारत को अलग-थलग कर सकता है.

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विदेश मंत्री एस जयशंकर (Jaishankar) ने यूक्रेन मुद्दे पर अपना सख्त रवैया बरकार रखा है, जबकि यूरोपीय संघ के नेताओं ने भारत से यूक्रेन पर अपना तटस्थ रुख छोड़ने का आग्रह किया है.

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विदेश मंत्रालय और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) द्वारा आयोजित पिछले हफ्ते नई दिल्ली में आयोजित रायसीना डायलॉग में, जयशंकर ने अपने नॉर्वेजियन वार्ताकार पर यह कहते हुए पलटवार किया कि उन्हें यूक्रेन में जो हो रहा है वो तो दिख रहा है, लेकिन अफगानिस्तान जो हुआ वो क्यों नहीं दिख रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि यूरोप को दुनिया में अन्य 'खतरे वाले स्थानों' पर यूक्रेन से परे देखना सीखना चाहिए.

उन्होंने भारत के रणनीति विश्लेषकों को सलाह दी कि भारत को सभी की स्वीकृति प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है. ऐसे में ये जानना जरूरी हो जाता है कि क्या जयशंकर द्वारा अपनाया गया यह मुखर स्वर एक मजबूत भारत में विश्वास का प्रतीक है, या यह महज दिखावा है?

हालांकि, कठिन बात करना कभी-कभी मदद करता है, लेकिन हमेशा नहीं. खासकर जब यह औद्योगिक और सैन्य ताकत से समर्थित नहीं होता है. भारत अभी भी पश्चिमी उद्योग और व्यापारिक घरानों को चीन से भारत आने के लिए आकर्षित कर रहा है, और भारत पश्चिमी व्यापार और प्रौद्योगिकी की मदद से विनिर्माण केंद्र बनने की उम्मीद करता है. भारत ने अपने लिए ताकत नहीं बनाई है, जैसा कि जापान ने 1950 और 1960 के दशक में इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्रों में और 1960 और 1970 के दशक में ऑटोमोबाइल उद्योग में किया था, और जिसे 1980 और 1990 के दशक में दक्षिण कोरिया द्वारा दोहराया गया था.

ऐसे में अब भारत जो कुछ भी दे सकता है वह है सस्ती जमीन, सस्ती बिजली और पानी और तुलनात्मक रूप से सस्ता श्रम. लेकिन, अगर आपके पास पेशकश करने के लिए बहुत कुछ नहीं है, तो धमकियों का सामना करने के लिए कठिन बात करना आवश्यक हो जाता है. यूरोपीय संघ के नेताओं के साथ-साथ ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और जापान के नेता भारत को रूस के प्रति एक आलोचनात्मक रुख अपनाने के लिए बाध्य करने की कोशिश कर रहे हैं. भारत टस से मस नहीं हो रहा है, जो अच्छे के लिए है.

यह स्पष्ट है कि भारत-सोवियत संबंधों के इतिहास के कारण भारत रूस विरोधी रुख नहीं अपना सका. सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर के मुद्दे पर लगातार वीटो का इस्तेमाल किया.

अफगानिस्तान पर जयशंकर की टिप्पणी गुस्से और हताशा की अभिव्यक्ति के रूप में भी प्रतीत होती है, क्योंकि तालिबान की वापसी ने अफगानिस्तान में भारत के कट्टर पाकिस्तान की स्थिति को मजबूत किया है. भारत ने अफगानिस्तान में आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए जो अरबों डॉलर का निवेश किया था, उसका सफाया हो गया है.

भारत-तालिबान संबंध अभी भी असहज हैं. यह आश्चर्य की बात है कि भारत 2001 से 2021 तक तालिबान के बाद के अफगानिस्तान में एक निष्क्रिय भागीदार था. भारत ने शायद अमेरिका और नाटो की उपस्थिति को हल्के में लिया था और माना था कि काबुल में पश्चिम समर्थित शासन काफी स्थिर था. कहीं न कहीं भारतीय खुफिया ने स्थिति का आकलन करने में असाधारण उदासीनता दिखाई.

क्या भारत को अफगानिस्तान से अमेरिकियों के अचानक बाहर निकलने का अनुमान था? एक आक्रामक और मुखर भारत या तो आने वाले तालिबान के साथ अच्छा संबंध बनाता या अन्य समूहों का समर्थन करता. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तहत विदेश नीति के मामलों में वास्तविक राजनीति सम्मान का बिल्ला बन गया है, भारत ने अफगानिस्तान में अपने पत्ते खेले हैं. अफगानिस्तान पर जयशंकर की गुस्से भरी टिप्पणी में हम जो महसूस करते हैं, वह उस देश में भारत की असहाय स्थिति पर निराशा है.

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भारतीय विदेश मंत्री यूरोप से परे चुनौतीपूर्ण मुद्दों का भी जिक्र करते रहे हैं. वहां एक अंतर है. भारत-प्रशांत क्षेत्र में उतना युद्ध नहीं हुआ है, जितना यूक्रेन में हुआ है. चीन ने ताइवान पर हमला नहीं किया है, और दक्षिण चीन सागर में चीन और फिलीपींस या चीन और वियतनाम के बीच कोई शत्रुता नहीं हुई है. बेशक, रिश्ते तनावपूर्ण हैं, लेकिन युद्ध नहीं है.

हालांकि, ये जरूर है कि 15 जून 2020 को जब भारत ने चीन के सैनिकों के साथ हुए एक झगड़े में एक कप्तान सहित 20 सैनिकों को एक संघर्ष में खो दिया था. चीनी पक्ष ने भी जान गंवाई, हालांकि उसने निश्चित संख्या की घोषणा नहीं की. इस मसले को सुलझाने के लिए दोनों पक्ष बैठकें कर रहे हैं. इसलिए, जयशंकर के लिए यह शिकायत करना कि यूक्रेन के अलावा अन्य हॉटस्पॉट हैं, सटीक नहीं हो सकता है.

भारत को अगर पश्चिम का समर्थन चाहिए तो उसे पश्चिमी चिंताओं का समर्थन करते हुए देखा जाना भी चाहिए

यह जरूर है कि यूक्रेन में युद्ध एक यूरोपीय मामला है और भारत को इससे दूर रहने का अधिकार है. लेकिन अगर भारत पश्चिम का समर्थन चाहता है, तो उसे पश्चिमी चिंताओं का समर्थन करते हुए देखा जाना चाहिए. भारत के गैर-प्रतिबद्ध रवैये से उसे कोई सहयोगी नहीं जीत सकता. बेशक, भारत को लगता है कि वह पाकिस्तान या चीन के साथ तीसरे पक्ष की मध्यस्थता नहीं चाहता है और दायित्वों के बंधन में बंधना नहीं चाहता है.

भारत अपनी 'रणनीतिक स्वायत्तता' बनाए रखना चाहता है, यह प्रशंसनीय है, और यह जयशंकर की टिप्पणियों से लगता है कि नई दिल्ली अन्य देशों की पक्षपातपूर्ण मूर्खताओं का न्याय करने के लिए अपनी तटस्थ स्थिति का उपयोग करना चाहती है.
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1956 में हंगरी और 1968 में चेकोस्लोवाकिया के रूसी आक्रमणों के दौरान भारत यही कर रहा था, और जयशंकर की पार्टी, तब भारतीय जनसंघ ने कांग्रेस सरकारों के रूस समर्थक पूर्वाग्रह का आह्वान किया था.

जयशंकर कांग्रेस के खिलाफ, देश की सुरक्षा क्षमताओं पर ध्यान देने में विफलता और वर्षों से बुनियादी ढांचे में सुधार नहीं कर रहे हैं. लेकिन, उन्हें जल्द ही एहसास होगा कि प्रधानमंत्री मोदी के तहत भारत पिछली सरकारों की तुलना में अधिक नुकसान में है क्योंकि हिंदुत्व की मानसिकता भारत को उन बड़ी वैज्ञानिक और तकनीकी सफलताओं को बनाने से रोकेगी जो इसे कुछ सैन्य लाभ दे सकती हैं.

कोई निश्चित रूप से यह जरूर बताएगा कि 1920 और 1930 के दशक में जर्मनी और जापान ने उग्र राष्ट्रवाद के बावजूद प्रभावशाली सैन्य शस्त्रागार बनाए थे. सैन्य शक्ति का वैज्ञानिक आधार वैज्ञानिक ज्ञान की मौजूदा ताकत पर बनाया गया था, जो सार्वभौमिक था.

भारत के पास करने के लिए बहुत कुछ है. पश्चिम पर पलटवार करना, जैसा कि जयशंकर ने किया है, और वीके कृष्ण मेनन ने भी 1950 के दशक में जो किया था, वह अच्छा है, लेकिन पर्याप्त नहीं है.

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