श्रीलंका में भीषण आर्थिक संकट (Sri Lanka Crisis) के चलते सरकार को अंतत: झुकना ही पड़ा. लाखों की संख्या में जब प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए तो अंत में प्रधानमंत्री को भी इस्तीफे की घोषणा करनी पड़ी, लेकिन ये सब अचानक नहीं हुआ, इसमें वहीं के कुछ आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं की बड़ी भूमिका है.
श्रीलंका के विरोध आंदोलन को फिर से जिंदा करने के लिए कुछ कार्यकर्ताओं जून में घंटों मीटिंग करते रहे. इसके लिए कोलंबो में समुद्र किनारे एक तंबू शिविर में ये लोग मुलाकात करते थे. इन लोगों के समूह में एक कैथोलिक पादरी, एक डिजिटल रणनीतिकार और एक लोकप्रिय नाटककार शामिल था.
इस समूह की रणनीति सचमें रंग लाई और राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और उनके प्रधान मंत्री को पद छोड़ने का वादा करना पड़ा. इसी समूह में से एक डिजिटल रणनीतिकार चमीरा डेडुवेज ने कहा,
"मैं अभी भी इसे जारी रखने की कोशिश कर रहा हूं...इसमें 50 प्रतिशत हमारी प्लानिंग थी, 30 प्रतिशत लोगों की इच्छा और 20 प्रतिशत भाग्य था."
'अरागलया' आंदोलन से कुर्सी छोड़ने को मजबूर
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार इसी समूह में शामिल एक शख्स ने छोटे से इंटरव्यू के दौरान बताया कि कैसे उन्होंने सिंहल में "अरागलया" (संघर्ष) नाम से चर्चित इस आंदोलन में जान फूंकने की कोशिश की.
इस आंदोलन की शुरुआत मार्च में हुई थी, जब हजारों लोग लंबी बिजली कटौती और बढ़ती कीमतों पर अपना गुस्सा निकालने के लिए सड़कों पर उतर आए और पिछले 20 सालों से देश की राजनीति पर हावी राजपक्षे परिवार से सत्ता छोड़ने का आह्वान किया था. 9 मई को, राजपक्षे के बड़े भाई महिंदा (उस समय प्रधान मंत्री के रूप में कार्यरत) ने पद छोड़ दिया था. 9 जून को छोटे भाई तुलसी ने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया था. इसलिए, अरागलया के कार्यकर्ताओं ने 9 जुलाई का दिन चुना, इसी दिन वे राष्ट्रपति को बेदखल करने की उम्मीद कर रहे थे.
समूह के लोगों के अनुसार, इसमें ऑनलाइन आंदोलन, राजनीतिक दलों, श्रमिक संघों और छात्र समूहों के साथ बैठकें और घर-घर प्रचार अभियान की याजनाएं बनाई गईं.
श्रीलंका की अर्थव्यवस्था लगातार खराब हो रही थी, लेकिन राष्ट्रपति की तरफ से कोई जरूरी कदम न उठाते देख लोगों में उबाल आना शुरू हो गया. 9 जुलाई को ट्रेनों, बसों, लॉरी और साइकिल पर सवार होकर या पैदल चलते हुए को कोलंबो में भारी भीड़ जमा हो गई. इस भीड़ में लोग एक ही नारा लगा रहे थे- "घर जाना होगा!" राष्ट्रपति कार्यालय के एक हिस्से पर धावा बोलने और 2.5 किमी दूर प्रधानमंत्री के आधिकारिक निवास में प्रवेश करने से पहले, वे राष्ट्रपति के औपनिवेशिक युग के घर में घुस चुके थे.
इसके बाद राजपक्षे और प्रधान मंत्री रानिल विक्रमसिंघे को अज्ञात सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया और इसके कुछ घंटों के भीतर उन्होंने अलग से घोषणा की कि वे इस्तीफा दे देंगे. यदि वे बुधवार को वादे के अनुसार इस्तीफा देते हैं, तो राजपक्षे पद छोड़ने वाले पहले श्रीलंकाई राष्ट्रपति बन जाएंगे. अरगलया कार्यकर्ताओं के मुख्य समूह का हिस्सा रुवंती डी चिकेरा ने कहा, "मुझे लगता है कि इस देश में इससे पहले ऐसी भीड़ कभी नहीं देखी गई.."
हर कोई साथ आ गया
डिजिटल रणनीतिकार, डेडुवेगे ने कहा कि "श्रीलंका में लगभग 5 मिलियन घर और 8 मिलियन सक्रिय फेसबुक खाते हैं, इससे प्रदर्शनकारियों तक ऑनलाइन पहुंच बेहद प्रभावी रही और आसान भी. इसके जरिए हम व्यावहारिक रूप से देश के हर कोने तक बिना किसी कीमत के पहुंच सकते हैं."
जुलाई की शुरुआत में, समूह के सोशल मीडिया संदेशों को प्राप्त करने वालों में से एक चरित अमरतुंगे थे, जो कोलंबो से लगभग 20 किमी दूर मोरातुवा में रहने वाले एक मार्केटिंग पेशेवर थे. इन्होंने इससे पहले के सरकार विरोधी प्रदर्शनों में भी भाग लिया था. इन्हें 2 जुलाई को व्हाट्सएप के के जरिए एक पोस्टर मिला, जिसमें सिंहल में "द कंट्री टू कोलंबो, 9 जुलाई" लिखा था और उन्होंने इसे अपने निजी फेसबुक पेज पर अपलोड भी किया.
इस व्यक्ति ने उस रात एक कैंपेन तैयार करना शुरू किया, जिसमें कोलंबों की तरफ होने वाले मार्च में हजारों लोगों को शामिल करने का लक्ष्य रखा गया था. डेडुवेगे के अनुसार, अरागलया सदस्य सीधे विपक्षी राजनीतिक दलों, ट्रेड यूनियनों और प्रभावशाली इंटर यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स फेडरेशन (आईयूएसएफ) सहित छात्र संघों के पास पहुंचे, ताकि समर्थन हासिल किया जा सके.
श्रीलंका के सबसे बड़े छात्र समूहों में से एक, IUSF अपने राजनीतिक आंदोलन के लिए जाना जाता है और हाल के विरोध प्रदर्शनों के दौरान सुरक्षा बलों से इनके टकराव की खबरें भी खूब सामने आईं. अरगलया समूह ने मुख्य विरोध स्थल से पैदल दूरी के भीतर ही, स्वयंसेवकों को कोलंबो के कुछ हिस्सों में हजारों घरों का दौरा करने के लिए भी कहा.
शहर के बाहर से लोगों को लाने के लिए, कार्यकर्ताओं ने 30 से अधिक "गोटा गो विलेज" साइटों से संपर्क किया. 8 जुलाई की देर रात, पुलिस ने कोलंबो के आसपास के कई जिलों में कर्फ्यू की घोषणा कर दी थी. कार्यकर्ताओं ने कहा कि इसका उद्देश्य नियोजित विरोध को रोकना था, जबकि पुलिस ने कहा कि यह कदम सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए उठाया गया था.
कुछ कोर ग्रुप के सदस्य गिरफ्तारी के डर से तेजी से सुरक्षित जगहों पर चले गए थे. एक कैथोलिक पादरी (जो कार्यकर्ता समूह का हिस्सा है), जीवनंत पीरिस को चिंता थी कि प्रतिबंधों के कारण अगले दिन केवल कुछ हजार लोग ही आएंगे. ईंधन की कमी के चलते परिवहन के साधन कम ही थे.
"हमें ईमानदारी से इन सभी प्रतिबंधों और धमकियों के साथ केवल 10,000 लोगों के आने की उम्मीद थी...हमने 5000 से 10,000 के बीच सोचा था."
लोग हार नहीं मानना चाहते थे
9 जुलाई की शुरुआत में, मार्केटिंग पेशेवर अमारातुंगे ने कहा कि उन्होंने लगभग 2,000 साथी प्रदर्शनकारियों के साथ मोरातुवा से पैदल शुरुआत की. इसके लिए उन्होंने फेसबुक और व्हाट्सएप पर पोस्ट किए थे.
अमरतुंगे ने 9 जुलाई को फेसबुक लाइवस्ट्रीम किया जिसमें भी कई सौ लोगों को कोलंबो की मुख्य सड़क पर टहलते हुए देखा गया, इनमें से कुछ झंडा पकड़े हुए थे. अमरतुंगे के अनुमान के अनुसार, अंततः दसियों हजार लोग उस मार्च में शामिल हुए. नाम न छापने की शर्त पर बात करने वाले एक पुलिस अधिकारी ने बताया कि, वहां भीड़ कम से कम 2 लाख लोगों तक पहुंच गई थी.
डेडुवेगे ने कहा कि आयोजकों ने मोटे तौर पर अनुमान लगाया था कि राष्ट्रपति के घर के चारों गेट पर सुरक्षाकर्मियों को काबू करने में लगभग 10,000 लोग लगेंगे.
भारी संख्या में पहुंचे प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति के घर की रखवाली करने वाले ऊंचे फाटकों को तोड़ दिया और सुरक्षा बलों की एक बड़ी तैनाती को भी असफल करने में कामयाब रहे. रात तक, राजपक्षे और विक्रमसिंघे के आधिकारिक आवासों पर प्रदर्शनकारियों ने कब्जा कर लिया. विक्रमसिंघे के निजी आवास पर हमला किया गया और उसका एक हिस्सा आग के हवाले कर दिया गया.
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