अफगानिस्तान (Afghanistan) पर कब्जा करने के दो दिन बाद तालिबान (Taliban) ने पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया- 'हम किसी को अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी दूसरे पर हमला करने के लिए नहीं करने देंगे.' 26 अगस्त को ISIS-K ने काबुल एयरपोर्ट के बाहर दो बम ब्लास्ट (Kabul Attacks) किए, जिसमें 160 से ज्यादा मौतें हो गईं. पिछले साल द हिंदू अखबार से बातचीत के दौरान तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने ISIS-K से लड़ने पर कहा था, "हम ISIS से लड़ने में किसी का साथ नहीं देंगे." इन बयानों को साथ देखें तो समझ नहीं आता कि तालिबान सच में आतंकी समूहों को नियंत्रण में रख पाएगा या अफगानिस्तान फिर आतंकवाद का हॉटस्पॉट बन जाएगा.
अफगानिस्तान से वापस जाते हुए अमेरिका दावा कर रहा है कि 'आतंकवाद पर युद्ध' खत्म हो चुका है. उसका इशारा अल-कायदा की तरफ है. ओसामा बिन-लादेन मर चुका है, अयमान अल-जवाहिरी को सालों में किसी ने देखा नहीं है. लेकिन क्या अल-कायदा के शांत होने से आतंकवाद खत्म हो गया?
26 अगस्त के हमले से पहले इंटेलिजेंस एजेंसियां साफ चेतावनी दे रही थीं कि ISIS काबुल एयरपोर्ट पर हमला कर सकता है. चेतावनी सच साबित हुई. जो बाइडेन ने 'फॉरएवर वॉर' तो खत्म कर दिया लेकिन दक्षिण एशिया में आतंकवाद को शायद तालिबानी शासन के रूप में उपजाऊ जमीन मिल गई है.
ISIS-K क्या है?
2014 में ISIS ने इराक और सीरिया में अपनी खिलाफत घोषित की थी. इसके कुछ ही महीनों बाद पाकिस्तानी तालिबान के कई आतंकियों ने उमर खालिद खोरासानी के नेतृत्व में इस्लामिक स्टेट्स के लीडर अबु बक्र अल-बगदादी के प्रति निष्ठां घोषित कर दी थी. इन आतंकियों ने अफगानिस्तान में ISIS का एक चैप्टर शुरू किया, जिसे आज ISIS-K के नाम से जाना जाता है.
K का मतलब खोरासन है. आज के पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान और केंद्रीय एशिया के लिए ऐतिहासिक शब्द खोरासन इस्तेमाल किया जाता था.
2015 में ISIS के केंद्रीय नेतृत्व ने इस चैप्टर को आधिकारिक मान्यता दी थी. ISIS-K उत्तरपूर्वी अफगानिस्तान के कुनार, नंगरहार और नूरिस्तान प्रांतों में ज्यादा फैला हुआ है. यूनाइटेड नेशंस मॉनिटर का कहना है कि संगठन ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कई हिस्सों में अपने स्लीपर सेल बना रखे हैं.
ISIS-K अफगानिस्तान में बहुत मजबूत नहीं है. UN सुरक्षा परिषद की पिछले महीने आई रिपोर्ट के मुताबिक, इसके कुल आतंकियों की तादाद कुछ हजार से लेकर महज 500 के बीच हो सकती है.
अल-कायदा नहीं है ISIS-K
जो लोग अल-कायदा के बारे में जानते हैं, वो उसे आतंकी संगठन कहने की बजाय आतंकी नेटवर्क या सिंडिकेट कहना ज्यादा सही समझते हैं. लादेन के समय में अल-कायदा आतंकी हमलों के अलावा दूसरे आतंकी संगठनों की वित्तीय मदद या उग्रवादी संगठनों को लॉजिस्टिक से लेकर ऑपरेशनल मदद तक देता था.
2001 के 9/11 हमलों के समय लादेन और अल-कायदा की पूरी लीडरशिप अफगानिस्तान में थी. अमेरिका के हमले के बाद अल-कायदा के आतंकी या तो पाकिस्तान भाग गए या तोरा-बोरा की पहाड़ियों में छुप गए. सालों तक लादेन और जवाहिरी अमेरिका से छुपते रहे तो इसका श्रेय तालिबान को जाता है, जिसने लादेन को न अमेरिका को सौंपा और पूरा समर्थन भी दिया.
लेकिन इस्लामिक स्टेट और अल-कायदा में अंतर है. ISIS किसी भी आतंकी संगठन से ज्यादा क्रूर और कट्टर है. तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद लगभग सभी जिहादी समूहों ने उन्हें मुबारकबाद दी, लेकिन ISIS ने ऐसा नहीं किया.
कतर के दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच पिछले साल हुआ समझौता भी ISIS के निशाने पर रहता है. ISIS ने तालिबान पर जिहाद छोड़ने का आरोप लगाया था. 20 अगस्त को इस्लामिक स्टेट ने अपने अखबार अल-नभा में काबुल पर तालिबान के कब्जे को 'मुल्ला ब्रेडली' प्रोजेक्ट बताया था.
ISIS का इशारा तालिबान और अमेरिका की डील पर था. अखबार में तालिबान पर 'इस्लाम की आड़' लेकर इस्लामिक स्टेट को कमजोर करने का आरोप लगाया गया था. साथ ही पूछा गया था कि क्या तालिबान अफगानिस्तान में शरिया लागू करेगा.
आतंकवाद का खतरा टला नहीं है
तालिबान ने अपने सहयोगी अल-कायदा के साथ रिश्ते तोड़ने से हमेशा इनकार किया है. दोहा समझौते में तालिबान ने किसी आतंकी संगठन को अफगानिस्तान की जमीन इस्तेमाल न करने देने का वादा तो किया है, लेकिन उसमे अल-कायदा से दूरी बनाने का कोई जिक्र नहीं है.
जून में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट का कहना था कि 'तालिबान और अल-कायदा अभी भी करीब हैं और रिश्ते टूटने के कोई संकेत नहीं हैं.' कई जानकरों का मानना है कि अल-कायदा अगले तीन से छह महीनों में फिर से फल-फूल सकता है.
रिपोर्ट के मुताबिक, अल-कायदा अभी भी कम से कम 15 अफगान प्रांतों में मौजूद है. संगठन की सबसे ज्यादा मौजूदगी पूर्वी, दक्षिणी और दक्षिणपूर्वी प्रांतों में है. UN रिपोर्ट कहती है कि 'अल-कायदा ने तालिबान लीडरशिप के साथ संपर्क कम किया है, जिससे वो दोहा समझौते के संबंध में तालिबान की राजनयिक स्थिति को मुश्किल में न आ जाए.'
इस्लामिक स्टेट भी कम ही सही लेकिन अफगानिस्तान में पैर जमाए बैठा है. तालिबान उससे कैसे निपटेगा इसका कोई उदाहरण या तरीका दुनिया के सामने नहीं है. ISIS को अल-कायदा समझने की भूल करना तालिबान के लिए बड़ी गलती साबित हो सकता है. मिडिल ईस्ट और अफगानिस्तान की परिस्थितियों में बहुत अंतर है. फिर भी ISIS के खतरे को छोटा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए.
जून में सांसदों ने अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन और जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ के चेयरमैन जनरल मार्क माइली से अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों के दोबारा प्रभावी होने की संभावनाएं पूछी थीं. ऑस्टिन ने इसे 'मध्यम' बताया था और कहा कि 'ऐसा होने में दो साल तक लग सकते हैं.'
हालांकि, अमेरिकी सेना की पूर्ण वापसी के बाद इंटेलिजेंस जुटाने में बाइडेन प्रशासन को बहुत मुश्किल आने वाली है. अफगानिस्तान के जमीनी हालात के बारे में कितनी जानकारी व्हाइट हाउस तक पहुंचती है, ये तालिबान के साथ रिश्तों पर निर्भर करेगा.
तालिबान पर शक होना लाजिमी है
तालिबान ने पिछले 20 सालों में कुछ सीखा है तो वो ये कि संवाद और मीडिया से कितना कुछ बदला जा सकता है. काबुल पर कब्जे के बाद से तालिबान अपनी उदार और नर्म छवि पेश कर रहा है. 'सबको माफी', किसी को टारगेट न करने का वादा, महिलाओं के अधिकारों की बात जैसे अहम और प्रासंगिक मुद्दों पर जोर देकर तालिबान अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में अपनी बात रख रहा है.
लेकिन सच्चाई ये भी है कि अफगानिस्तान में महिलाएं घर में कैद हो गई हैं, लोगों के घरों की तलाशी की खबरें आई हैं, सैनिकों और पत्रकारों की हत्या हुई हैं. तालिबान की जीत पर खुश होने वालों में एक से एक कट्टर और खूनी आतंकी संगठन हैं. इनमें से एक को भारत अच्छे से जानता है. मौलाना मसूद अजहर.
ऐसी खबरें हैं कि अजहर ने 17 से 19 अगस्त तक कंधार में तालिबान नेताओं से बातचीत की है. जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख का एजेंडा भारत में आतंकवाद फैलाना और कश्मीर की 'आजादी' है और वो तालिबान से मदद चाहता है. तालिबान कश्मीर को भारत-पाकिस्तान का मसला बता चुका है पर बात वहीं खत्म नहीं होती है.
हाल ही में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी के एक नेता ने दावा किया कि 'तालिबान ने कश्मीर में उनकी मदद का वादा किया है.' इसे एक बयान मानकर छोड़ना ठीक नहीं होगा. तालिबान के सबसे हिंसक धड़े हक्कानी नेटवर्क का पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान क्षेत्र में खासा प्रभाव है. पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में सैन्य कार्रवाई करने में हमेशा आनाकानी की है.
हक्कानी नेटवर्क का अल-कायदा से करीबी रिश्ता है. नेटवर्क शुरू करने वाले जलालुद्दीन हक्कानी ने 80-90 के दशक में अब्दुल्लाह आजम और ओसामा बिन-लादेन जैसे मुजाहिदीनों को सोवियत रूस के खिलाफ 'जिहाद' में शामिल किया था. जलालुद्दीन का बेटा सिराजुद्दीन तालिबान का डिप्टी लीडर रह चुका है और नई अफगान सरकार में भी उसके शामिल होने की उम्मीद है. दूसरा बेटा अनस हक्कानी सरकार बनाने की बातचीत में शामिल है.
तालिबान और मसूद अजहर की बैठक हो या हक्कानी नेटवर्क का नई अफगान सरकार में वर्चस्व, अफगानिस्तान के चरमपंथ और आतंकवाद के दोबारा गढ़ बनने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है. काबुल हमला शायद इसी की शुरुआत थी.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)