अफगानिस्तान (Afghanistan) में हजारों करोड़ के निवेश के बावजूद भारत ने कभी तालिबान (Taliban) से बातचीत नहीं की. ऐतिहासिक रूप से तालिबान के कट्टर विरोधी नॉर्दर्न अलायन्स के सहयोगी रहे भारत ने समय के साथ अपना रुख नहीं बदला. तब भी नहीं जब दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका ने समझ लिया था कि तालिबान से बात किए बिना अफगान मुद्दे का हल संभव नहीं है. अब तालिबान का अफगानिस्तान पर कब्जा हो चुका है और खबर आई है कि उसने ट्रेड रूट बंद कर दिया है जिससे भारत के साथ व्यापार रुक गया है. क्या अफगान मुद्दे से मुंह फेरे रहने का भारत को नुकसान उठाना पड़ेगा?
फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन (FIEO) के डीजी अजय सहाय ने न्यूज एजेंसी एएनआई से बातचीत में बताया कि 'तालिबान ने पाकिस्तान के ट्रांजिट रूट से होने वाली सभी कार्गो मूवमेंट पर रोक लगा दी है. जिससे इंपोर्ट पूरी तरह से बंद हो चुका है.'
डीजी ने बताया कि भारत अफगानिस्तान को चीनी, फार्मास्यूटिकल्स, चाय, कॉफी, मसाले और अन्य चीजें एक्सपोर्ट करता है. ये चीजें बड़ी मात्रा में एक्सपोर्ट की जाती हैं. वहीं अफगानिस्तान से ड्राइ फ्रूट्स और प्याज जैसी चीजें इंपोर्ट होती हैं.
तालिबान ने सीधे भारत के साथ व्यापार बंद न करके पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर दो महत्वपूर्ण टर्मिनल बंद कर दिए हैं, जिससे सामान का यातायात बंद हो गया है. हालांकि, दुबई के जरिए होने वाला व्यापार प्रभावित नहीं हुआ है.
तालिबान का रवैया भारत के कदम से तय होगा
भारत ने तालिबान से कभी सीधे बात नहीं की है. भारत सरकार अफगानिस्तान की अशरफ गनी सरकार की बड़ी सहयोगी थी. भारत ने देश के इंफ्रास्ट्रक्चर में काफी निवेश किया है, लेकिन अफगान मुद्दे में अहम किरदार तालिबान से हमेशा किनारा किया. काबुल पर तालिबान का कब्जा होने के बाद भारत ने अपना दूतावास खाली कर दिया और अपने नागरिकों को अफगानिस्तान से सुरक्षित निकाल रहा है.
भारत के लिए आगे की राह मुश्किल होगी क्योंकि वो अशरफ गनी सरकार के करीब रहा है और अफगानिस्तान में संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थानों की स्थापना में उसकी भूमिका रही है. अब तालिबान के साथ डील करना आसान नहीं होगा. वो भी ये जानते हुए कि पाकिस्तान तालिबान का कितना बड़ा संरक्षक है.
दोहा में कुछ समय पहले हुई एक कॉन्फ्रेंस में भारत ने नौ देशों के साथ एक बयान दिया था, जो स्थिति को और जटिल बनाएगा. इन देशों ने कहा था कि अफगानिस्तान में 'ताकत के दम पर बनाई गई सरकार' को मान्यता नहीं दी जाएगी. तालिबान काबुल पर बिना किसी लड़ाई और खूनखराबे के नियंत्रण कर चुका है. अशरफ गनी देश छोड़ चुके थे. क्या इस सूरत में भारत मान्यता देगा?
भारत आगे क्या करेगा इस पर ही तालिबान का रवैया निर्भर करेगा. तालिबान की भारत के साथ कोई दुश्मनी नहीं रही है. पाकिस्तान का एंगल है लेकिन भारत 20 साल पहले की पोजिशन पर नहीं चल सकता है. ये दक्षिण एशिया में कूटनीतिक बदलावों का समय है और भारत को तालिबान से बात करनी पड़ सकती है. भारत को अफगान एयर स्पेस, व्यापार का रास्ता और अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए तालिबान से सीधे वार्ता करने की जरूरत पड़ सकती है.
चीन, पाकिस्तान से पीछे रह गया भारत
भारत ने हमेशा तालिबान से बात करने में हिचक दिखाई है. दुनिया जानती है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI का पश्तून-बहुल तालिबान पर कितना प्रभाव है. इसके बावजूद अफगान शांति प्रक्रिया के एक अहम स्टेकहोल्डर से बात करने में भारत ने कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई.
वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे ने क्विंट से अप्रैल में एक बातचीत में कहा था, "भारत सरकार अफगान शांति प्रक्रिया में बिना दिलचस्पी के बनी हुई है. अफगानिस्तान में स्थिरता भारत के लिए अच्छी बात है. हालांकि, हमें आगे बढ़कर बात करनी चाहिए. भारत पूरा मामला अशरफ गनी पर छोड़ देता है. भारत ने अच्छा-खासा निवेश किया है और आगे भी करना चाहिए, लेकिन बात भी करनी होगी."
भारत हिचक और देर करता रह गया, और चीन मौका मार गया. काबुल पर कब्जे से कुछ दिन पहले ही तालिबान का एक डेलीगेशन चीन के विदेश मंत्री से मिला था. कब्जे के बाद चीन ने कह दिया कि वो तालिबान से 'दोस्ताना संबंध' चाहता है. पाकिस्तान और तालिबान का समीकरण जगजाहिर है. एशिया में दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक चीन समय के साथ अच्छे कूटनीतिक फैसलों की वजह से अपना रुतबा बढ़ाता गया, और एक तरफ भारत अपने पड़ोसियों तक को साथ नहीं रख पाया.
चीन और अफगानिस्तान एक बहुत छोटी सीमा साझा करते हैं लेकिन चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) के लिहाज से ये महत्वपूर्ण है. चीन के सरकारी मीडिया में अफगानिस्तान के 'पुनर्निर्माण' की बात हो रही है. चीन अमेरिका की वापसी का भरपूर फायदा उठाएगा और काबुल का एशिया में एक महत्वपूर्ण और ताकतवर सहयोगी बनेगा.
अमेरिका से बिगड़ते रिश्तों के बीच पाकिस्तान ने चीन के साथ अहम साझेदारी स्थापित की है. चीन कई मौकों पर पाकिस्तान को बड़ी वित्तीय मदद दे चुका है. CPEC के जरिए चीन पाकिस्तान और अफगानिस्तान में भारी निवेश करने की योजना में है. तालिबान से दूरी बनाकर भारत को कुछ हासिल नहीं हुआ है. और अगर ये नीति नहीं बदली जाती है तो आगे नुकसान होने की आशंका ज्यादा है.
अफगानिस्तान में भारत का कितना निवेश है?
भारत अब तक अफगानिस्तान में 3 बिलियन डॉलर से ज्यादा का निवेश कर चुका है. ये निवेश ज्यादातर इंफ्रास्ट्रक्टर प्रोजेक्ट्स में हैं. भारत ने अफगानिस्तान में सड़कें, डैम, स्कूल, लाइब्रेरी और यहां तक कि संसद बनाने में मदद की है. 2015 में पीएम नरेंद्र मोदी ने 90 मिलियन डॉलर की लागत से बनी अफगान संसद का उदघाटन किया था.
भारत के कुछ अहम प्रोजेक्ट्स में ये शामिल हैं:
जारंज-डेलाराम हाईवे: 218 किलोमीटर के इस हाईवे को करीब 150 मिलियन डॉलर की लागत से बनाया गया है. इसे भारत के बॉर्डर रोड्स ऑर्गेनाइजेशन (BRO) में ईरान के साथ अफगानिस्तान की सीमा के करीब बनाया है. ये सड़क भारत के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ये ईरान के चाबहार पोर्ट तक अफगानिस्तान के जरिए पहुंचने का रास्ता है.
स्टोर महल: 2016 में भारत ने काबुल में 19वीं सदी की इमारत स्टोर महल की हालत सुधारने का काम किया था. ये इमारत 1965 तक अफगान विदेश मंत्रालय का ऑफिस हुआ करती थी.
सलमा डैम: इसे भारत-अफगान दोस्ती डैम प्रोजेक्ट भी कहा जाता है. ये हेरात प्रांत में स्थित है और इसे तालिबानी हमलों के बीच 275 मिलियन डॉलर की लागत से पूरा किया था. इसका उदघाटन 2016 में हुआ है.
पावर इंफ्रास्ट्रक्चर: भारत ने अफगानिस्तान में पावर इंफ्रास्ट्रक्चर को भी सुधारा है. इसमें काबुल के उत्तर से लेकर बगलान तक की हाई-वोल्टेज डायरेक्ट लाइन शामिल है.
यातायात: विदेश मंत्रालय के मुताबिक, भारत ने अफगानिस्तान को शहरी यातायात के लिए 400 बसें और 200 मिनी-बसें, म्युनिसिपेलिटी को 105 यूटिलिटी वाहन, अफगान नेशनल आर्मी को 285 सैन्य वाहन और पांच शहरों में पब्लिक अस्पतालों के लिए 10 एम्बुलेंस गिफ्ट की हैं. भारत ने अफगान राष्ट्रीय एयरलाइन Ariana को तीन एयर इंडिया एयरक्राफ्ट भी दिए थे.
अफगानिस्तान के साथ भारत का व्यापार 2017 में एयर फ्राइट कॉरिडोर बनने के बाद तेजी से बढ़ा है. 2019-20 में द्विपक्षीय व्यापार 1.3 बिलियन डॉलर से ज्यादा है. भारत ने अफगानिस्तान को 900 मिलियन डॉलर का एक्सपोर्ट किया है, तो वहीं भारत में 500 मिलियन डॉलर का एक्सपोर्ट हुआ है.
तालिबान के दो अफगानिस्तान-पाकिस्तानी सीमा टर्मिनल बंद करने से ये व्यापार बाधित होगा. ये सवाल उठ सकता है कि अगर भारत ने तालिबान से बातचीत की होती या दिलचस्पी भी दिखाई होती तो क्या तस्वीर अलग होती? 'विश्व गुरु' का दंभ भरने वाला भारत भू-राजनीति और कूटनीति को समझने में इतना पीछे कैसे रह सकता है? भारत को इन सभी सवालों के जवाब तलाशने होंगे और चीजों को बदलना होगा.
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