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अफगानिस्तान का गुनहगार कौन? ट्रंप, बाइडेन, सेना या फिर अशरफ गनी?

Afghanistan की इस हालत का जिम्मेदार कौन है?

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अफगानिस्तान (Afghanistan) पर तालिबान (Taliban) का कब्जा हो चुका है. काबुल (Kabul) स्थित राष्ट्रपति भवन अब तालिबान के कब्जे में है. देश के जितने इलाके पर 1996-2001 के दौर में संगठन का शासन था, मौजूदा समय में उसके नियंत्रण वाला इलाका उससे भी ज्यादा है. आने वाले दिनों में तालिबानी सरकार बनेगी. लेकिन उससे पहले जरूरी सवाल पूछने का समय है. जिस अफगान सेना को करोड़ों डॉलर की मदद दी गई थी, वो जीतना तो छोड़ो लड़ी क्यों नहीं? अफगानिस्तान की इस हालत का जिम्मेदार कौन है?

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इस बार का तालिबान सैन्य अभियान आज से 20 साल पहले के मुकाबले में ज्यादा प्रभावी और असरदार दिखा. जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए था. अमेरिका 2001 के बाद से अफगान सेना को तैयार कर रहा था, उसमें निवेश कर रहा था.

अमेरिका ने पिछले 20 सालों में अफगान सेना को हथियार, गोला-बारूद और ट्रेनिंग की शक्ल में 8300 करोड़ डॉलर दिए हैं. बराक ओबामा प्रशासन में अफगान सेना को देश की सुरक्षा के लिए तैयार करना अहम लक्ष्य था.

लेकिन अब साफ हो गया है कि एक आधुनिक अफगान सेना बनाने की अमेरिका की कोशिश नाकाम हो चुकी है. तालिबान बिना किसी लड़ाई के कंधार जीत गया. हेरात और मजार-ए-शरीफ जैसे बड़े शहर मामूली लड़ाई के बाद तालिबानी नियंत्रण में चले गए. ऐसा कैसे हो गया?

महीनों पहले दिख गया था-नहीं टिकेगी सेना

अफगान सेना के बेसर होने के सबूत महीनों पहले कई ग्रामीण इलाकों में मिल रहे थे. अमेरिकी मीडिया रिपोर्ट कर रहा था कि भूखे और बिना हथियार के सैनिक और पुलिसकर्मी ग्रामीण आउटपोस्ट छोड़ रहे हैं. तालिबान इन आउटपोस्ट पर कब्जा कर रहा था.

कई जगहों पर बड़ी संख्या में सरेंडर की खबरें आई थीं. तालिबान के लिए रास्ता बनना वहीं से शुरू हो गया था. ग्रामीण आउटपोस्ट्स का सरेंडर धीरे-धीरे शहरों का नियंत्रण खोने में तब्दील हो गया. सैनिकों के पास कोई एयर सपोर्ट नहीं था. उनके पास जरूरत का सामान जैसे कि खाना और हथियारों की पर्याप्त सप्लाई तक नहीं थी.
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सरकार पर भरोसा और लड़ने की प्रेरणा नहीं

जंग में सिपाही अपने सेनापति या नेता के लिए जान देने को तभी तैयार होता है, जब या तो प्रेरित हो या फिर वो उस जंग की जरूरत में विश्वास रखता हो. अफगान सेना में ये दोनों ही नहीं था. सेना का बड़ा हिस्सा अशरफ गनी सरकार के प्रति नाराज रहता था.

अशरफ गनी सरकार ने कभी भी सेना को ताकतवर बनाने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया था. इसका जिम्मा हमेशा से अमेरिका पर रहा. सैनिकों की आधिकारिक और जमीनी तादाद में भी अंतर बताया जाता है. काबुल से सैंकड़ों किलोमीटर दूर क्या हो रहा है, इसका गनी सरकार से कोई मतलब नहीं हुआ करता था.

अफगान सरकार में भ्रष्टाचार बहुत बड़ी समस्या है. सेना पर इसका असर काफी बड़ा और विनाशकारी साबित हुआ. अमेरिका और बाकी देशों से मिलने वाला पैसा तनख्वाह और हथियारों की सप्लाई में नहीं बदला. नतीजा था कि जब तालिबान के सैन्य अभियान में तेजी आई तो अफगान सेना ने अशरफ गनी सरकार के लिए मरने से बेहतर सरेंडर करना समझा.
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तालिबान ने अपनाई साथ मिलाने की रणनीति

अफगानिस्तान सरकार के गिरने के पीछे तालिबान की बदली हुई रणनीति का भी बड़ा हाथ है. तालिबान ने कई प्रांतों में हिंसक संघर्ष किए हैं लेकिन कई शहर बिना गोली चलाए तक अपने नियंत्रण में लिए हैं.

20 सालों में अफगान सेना कितना बदली, ये अब पता चला गया है लेकिन तालिबान ने अपने रवैये में बड़ा बदलाव किया है. अब वो अमेरिका या अशरफ गनी सरकार के साथ काम करने वालों को मार नहीं रहा था, बल्कि उन्हें साथ मिला रहा था.
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अफगानिस्तान के बड़े वारलॉर्ड में शुमार इस्माइल खान का हेरात में सरेंडर इसका सबसे बड़ा उदाहरण था. देश का तीसरा सबसे बड़ा शहर हेरात बगैर किसी बड़ी लड़ाई के तालिबान की झोली में गिर गया था. वजह थी हेरात के गवर्नर इस्माइल खान, प्रांत के डिप्टी आंतरिक मंत्री, सुरक्षा चीफ का सरेंडर कर देना. तालिबान ने दावा किया कि ये सभी लोग संगठन में शामिल हो गए हैं.

तालिबान के लिए भी इसमें फायदा ही फायदा था. जब काम बिना लड़े बन जाए तो आदमी और संसाधन क्यों खर्च करना. अफगान पत्रकार बिलाल सरवरी ने ट्विटर पर पाला बदलने की एक और कहानी साझा की है.

सरवरी ने डिप्टी स्पीकर और अशरफ गनी के पूर्व सहयोगी हुमायूं हुमायूं की एक वीडियो शेयर करते हुए बताया कि तालिबान ने काबुल पर हमले से पहले ही उन्हें पुलिस चीफ नियुक्त कर दिया था.

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सरकार के पास नहीं थी कोई योजना

अफगान सेना को अमेरिकी सेना की तरह काम करने के लिए ढाला गया था. ग्राउंड ऑपरेशन को एयर सपोर्ट देना, दूरदराज आउटपोस्ट्स तक हवाई रास्ते से सप्लाई पहुंचाना, सर्विलांस और दुश्मन की टोह लेना. अमेरिकी सेना की मौजूदगी के दौरान अफगान सेना ने भी ऐसा ही करने की कोशिश की.

लेकिन जब जो बाइडेन ने सेना वापसी का ऐलान कर दिया तो अमेरिकी सेना ने अपना एयर सपोर्ट, इंटेलिजेंस और कॉन्ट्रैक्टर वापस बुला लिए. यही कॉन्ट्रैक्टर अफगान सेना के लिए विमानों की देखरेख करते थे. अफगानिस्तान के पास अमेरिकी गैरमौजूदगी में ऑपरेट करने की कोई योजना ही नहीं थी.

हालांकि, फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच हुए दोहा समझौते के बाद भी अशरफ गनी के पास सैन्य योजना बनाने का काफी समय था. लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया. अमेरिकी की मौजूदगी में अफगान सेना दूरदराज तक फैल गई थी लेकिन जब उनकी वापसी हुई तो अगानिस्तान नई सच्चाई के मुताबिक नहीं संभल पाया.

हाल के महीनों में अफगान सेना की सप्लाई तनाव में थी. दूर प्रांतों में खाने और हथियारों की आपूर्ति कम होती गई. गनी सरकार ने न दूर तैनात सैनिकों तक मदद पहुंचाई और न ही उन्हें किसी रणनीति के तहत तैनात किया. नतीजा तालिबान के लिए चीजें आसान होती गईं.

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अफगान संकट का जिम्मेदार कौन?

अफगानिस्तान को मौजूदा परिस्थिति तक पहुंचाने में अशरफ गनी, जो बाइडेन, तालिबान और डोनाल्ड ट्रंप का हाथ है. अफगानिस्तान में युद्ध शुरू करने वाले जॉर्ज बुश और फिर उसे जारी रखने वाले बराक ओबामा की भी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन अभी के संकट के लिए इन चार लोगों पर बात करनी जरूरी है.

अशरफ गनी - गनी ने काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद 15 अगस्त को अफगानिस्तान छोड़ दिया. 2014 में पहली बार राष्ट्रपति बने गनी ने अफगानिस्तान की बागडोर हामिद करजाई से ली थी. अशरफ गनी ने युद्ध खत्म करने को अपनी प्राथमिकता तो बनाया लेकिन ऐसा कर नहीं पाए.

2020 में जब कतर की राजधानी दोहा में शांति प्रक्रिया शुरू हुई, तो वो तालिबान से बातचीत करने में संकोच कर रहे थे. गनी को उनके बदलते मूड के लिए जाना जाता है. उनके इन्हीं मूड की वजह से तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सीधे तालिबान के साथ समझौता कर लिया था.

गनी को भी करजाई की तरह कई अफगान भ्रष्ट मानते हैं. उनका और पश्चिम देशों का रिश्ता बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता था. अमेरिकी सेना की वापसी का फैसला होने के बाद भी गनी के पास चीजे संभालने का काफी समय था. गनी तालिबान से समझौता नहीं करना चाहते थे और तालिबान उन्हें राष्ट्रपति पद पर नहीं देखना चाहता था. गनी ने देश को बचाने के लिए प्रभावी रूप से ज्यादा कुछ किया नहीं और उनका देश छोड़कर चले जाना अब आलोचना का मुद्दा बन गया है.
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जो बाइडेन - बाइडेन ने ट्रंप के दोहा समझौते को बरकरार रखते हुए अमेरिकी सेना की वापसी का फैसला किया. बाइडेन ने सिर्फ डेडलाइन मई से बढ़ाकर अगस्त कर दी थी. राष्ट्रपति के कई सैन्य सलाहकारों ने उन्हें पूर्व वापसी के खिलाफ चेताया था लेकिन वो अड़े रहे.

बाइडेन पहले भी अफगानिस्तान में सेना रखने के कभी पक्षधर नहीं रहे हैं. उनका कहना रहा है कि अफगान नेताओं को आपस में गतिरोध खत्म करके देश का भविष्य बनाना होगा. लेकिन सलाहकारों की बात न मानना और इंटेलिजेंस एजेंसियों के गलत आकलन का नतीजा आज अफगानिस्तान भुगत रहा है.

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डोनाल्ड ट्रंप - ट्रंप ने ही तालिबान के साथ बातचीत शुरू की थी. यहां तक कि उन्होंने तालिबानी नेताओं को कैंप डेविड में आमंत्रित कर लिया था. डोनाल्ड ट्रंप के इस कदम से अशरफ गनी सरकार नाराज हुई थी.

डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान को कुछ छूट देने के चक्कर में 6000 तालिबानियों को रिहा करा दिया था. उन्होंने तालिबान से कहा कि वो अमेरिकी सेना पर हमला नहीं करें और सेना क्रिसमस 2020 तक वापस आ जाएगी. अमेरिका के तालिबान से सीधे बात करने, ट्रंप के उन्हें कैंप डेविड बुलाने और तालिबान को रियायत मिलने से अफगान लोगों को हैरानी हुई थी.

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तालिबान - संगठन ने दोहा में अफगान शांति प्रक्रिया पर बातचीत करते हुए भी देश में अपना सैन्य अभियान जारी रखा. ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र कब्जा कर तालिबान का मकसद सरकार के साथ बेहतर सौदा करने का था. अमेरिकी सेना की वापसी ने तालिबान को अभियान तेज करने का मौका दे दिया था.

तालिबान ने अमेरिकी बलों पर हमला न करके ट्रंप से अपना वादा निभाया और एक के बाद एक शहर अपने नियंत्रण में लेते गए. तालिबान ने आम लोगों के बीच अपनी छवि सुधारने के लिए कोई कदम नहीं उठाया और बस वादों और बयानों के दम पर सत्ता पर काबिज होने निकल पड़ा.

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