ADVERTISEMENTREMOVE AD

अमेरिका,सोवियत,ब्रिटिश...अफगानिस्तान में हमेशा क्यों हारती हैं महाशक्तियां-5 वजह

अफगानिस्तान को साम्राज्यों का कब्रिस्तान क्यों कहा जाता है

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

अफगानिस्तान (Afghanistan) इस वक्त तालिबान के कब्जे में है. अमेरिका (America) 20 साल तक तालिबान से लड़ा पर अंत में उसने तालिबान से ही समझौता कर अपनी सेना वापस बुला ली. अमेरिकी सेना के वापस लौटने के चंद दिनों बाद ही तालिबान (Taliban) अफगानिस्तान पर काबिज हो गया. भले ही अमेरिकी राष्ट्रपति कह रहे हों कि अफगानी खुद तालिबान से लड़ना नहीं चाहते. लेकिन, अफगानिस्तान की जटिल परिस्थितियों का इतना आसान जवाब नहीं हो सकता. सच्चाई ये है कि अफगानिस्तान को साम्राज्यों का कब्रिस्तान कहा जाता है. हां कभी कोई महाशक्ति कामयाब नहीं हुई.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

लंबी लड़ाई लड़ने के बाद भी अमेरिकी सेना वापस क्यों लौटी ये तो बड़ा सवाल है ही. लेकिन, इस सवाल का जवाब खोजने से पहले ये जानना जरूरी है कि ये पहला मौका नहीं है जब कोई महाशक्ति 2 दशकों तक अफगानिस्तान में रहने के बाद वापस लौटी है, वो भी खाली हाथ.

चाहे वो अमेरिका हो, ब्रिटेन या फिर सोवियत संघ, सबने अफगानी सत्ता का न सिर्फ ख्वाब देखा बल्कि इसे पाने के लिए दशकों जंग लड़ी. लेकिन, अफगानिस्तान पर स्थाई रूप से शासन कोई नहीं कर सका.

ब्रिटिश का अफगानी सत्ता का ख्वाब, रूस की असुरक्षा ने तोड़ा

1839 से लेकर 1919 तक ब्रिटिश साम्राज्य ने अफगानिस्तान में तीन युद्ध लड़े. इनमें से कोई भी युद्ध ऐसा नहीं था जो चंद महीनों या फिर एक साल से कम वक्त में खत्म हो गया हो.

19वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में काबिज होने की कोशिश में था. पंजाब को वो अपने कब्जे में कर चुका था और अफगानिस्तान अगला लक्ष्य था. उस समय के सियासी भूगोल के मुताबिक पंजाब और अफगानिस्तान की सीमाएं मिलती थीं.

लेकिन, ब्रिटेन के लिए अफगानिस्तान पर अपना साम्राज्य स्थापित करना आसान नहीं था. वजह थी रूस. ब्रिटेन के अफगानिस्तान की और बढ़ने से रूस को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा महसूस होने लगा. अब रूस का मकसद था ब्रिटेन को रोकना. नतीजा ये हुआ कि अफगानिस्तान में तीन युद्ध लड़ने के बाद भी ब्रिटेन अफगानिस्तान पर कभी भी स्थाई रूप से काबिज नहीं हो सका.

दक्षिण एशिया से ब्रिटिश साम्राज्य का खात्मा होते ही अफगानिस्तान स्वतंत्र हुआ और मोहम्मद जहीर शाह अफगानिस्तान के शासक बने.

0

विश्वयुद्ध-2 के बाद सोवियत संघ ने देखा अफगानी सत्ता का ख्वाब

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा था. अफगानिस्तान से लगे हुए उज्बेकिस्तान, उर्कमेनिस्तान और तजेकिस्तान उस वक्त सोवियत संघ का ही हिस्सा थे. अपने साम्राज्य को विस्तार देने के लिए सोवियत का अगला लक्ष्य अफगानिस्तान था. साल था 1978, अफगानिस्तान के शासक जहीर शाह का तख्तापलट करने वाले दाऊद का शासन भी खत्म हो गया. सत्ता में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (PDPA) थी, जिसे अस्थिर सरकार माना जा रहा था. सोवियत संघ ने इसे स्वर्णिम अवसर मानते हुए 1979 में अपनी सेना अफगानिस्तान भेज दी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अमेरिका ने मुजाहिदों से मिलकर खत्म किया अफगानिस्तान में सोवियत शासन

जाहिर है सोवियत संघ का विरोधी अमेरिका अफगानिस्तान से उसका शासन खत्म करना चाहता था. लेकिन, सिर्फ अमेरिका ही सोवियत का इकलौता दुश्मन नहीं था. अफगानिस्तान में कई 'मुजाहिद्दीन' समूह सरकार और सेना के खिलाफ लड़ रहे थे. अमेरिका ने इन समूहों का समर्थन किया इसमें अमेरिका को पाकिस्तान की भी मदद मिली. जाहिर है सोवियत संघ विरोधी ताकतें मिलकर धीरे-धीरे हावी होने लगीं. फरवरी 1989 तक सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव के आदेश पर सेना अफगानिस्तान से वापस लौट गई.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इन वजहों से दूसरे देशों के लिए मुश्किल है अफगानिस्तान पर कब्जा

1. अफगानिस्तान 6 देशों की सीमाओं से घिरा है

अफगानिस्तान पर शासन करना महाशक्तियों के लिए भी लगभग असंभव क्यों है ? इसका जवाब अफगानिस्तानान का नक्शा देखकर ही मिलता है. अफगानिस्तान 6 देशों से घिरा है चीन, पाकिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान. अब जिस देश की सीमा 6 देशों से लगी हो वहां आप सीधा धावा बोलकर कब्जा नहीं कर सकते. इन 6 देशों में से कम से कम किसी एक का पूरी तरह समर्थन होना बेहद जरूरी है. क्योंकि सड़क के रास्ते अफगानिस्तान पहुंचने के लिए इनमें से किसी एक देश से आक्रमण करने वाली सेना को गुजरना होता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

2.अफगानिस्तान का 75% हिस्सा पहाड़ी, बाहरी सेना के लिए ये बड़ी मुश्किल

अफगानिस्तान दुनिया के उन चंद देशों में से एक है, जिनका अधिकतर हिस्सा पहाड़ी है. 800 किलोमीटर लंबी हिंदू कुश पर्वत श्रृंखला अफगानिस्तान के बीचोंबीच से होकर गुजरती है. अफगानिस्तान का 75% हिस्सा पहाड़ी है. यही नहीं पहाड़ों के बीच दर्जनों ऊंची-नीची घाटियां हैं और उलझे रास्ते हैं जो सेना और हथियारों के मूवमेंट को मुश्किल बनाते हैं. खासकर तब जब सेना किसी दूसरे देश की हो.

3.काबुल पर शासन का मतलब अफगानिस्तान पर शासन करना नहीं है

एक सामान्य भूगोल वाले देश में राजधानी पर कब्जा करने का मतलब यही समझा जाता है कि अब पूरे देश पर कब्जा हो गया, लेकिन अफगानिस्तान इस मामले में अपवाद है. एक सेंटर पावर बनकर राज करना यहां मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. कई किलोमीटर लंबे पहाड़ अफगानिस्तान को कई हिस्सों में बांटते हैं. यानी सेना का एक बेस बनाकर पूरे देश को कंट्रोल नहीं किया जा सकता. पहाड़ों की वजह से एक हिस्सा दूसरे हिस्से से बिल्कुल कटा होता है. ऐसे में अफगानिस्तान पर नियंत्रण पाने के लिए इस हर हिस्से तक सेना और हथियार पहुंचाना जरूरी है, जो कि न सिर्फ बहुत खर्चीला है और आसान भी नहीं है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

4.सिर्फ तालिबान नहीं, अफगानिस्तान में कई विद्रोही

सिर्फ तालिबान ही नहीं अफगानिस्तान में कई विद्रोही समूह हैं, जो सेना की मुश्किलें बढ़ाते हैं. इन समूहों को सीमा पार से पैसा और लड़के सप्लाई किए जाते हैं, जिन्हें रोकना मुश्किल है. क्योंकि ये सप्लाई किसी एक रास्ते से नहीं होती. पहाड़ों के बीच से सप्लाई पहुंचाने के इतना रास्ते हैं कि हर रास्ते को ट्रैक कर पाना आसान नहीं है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

5.अफगानिस्तान की विविधता

अफगानिस्तान के संविधान में 14 जातीय समूहों को संवैधानिक दर्जा प्राप्त है. इसके अलावा कई जनजातियां हैं. मतलब साफ है कि किसी अन्य देश की तरह एक जैसी आबादी नहीं है जिसपर सेना कंट्रोल कर ले. अफगानिस्तान पर कंट्रोल करने के लिए सेना को इन सभी समूहों तक पहुंचना होता है जो आसान नहीं है. इन समूहों को एक राष्ट्र का जो विचार पश्चिम में है उससे सहमत करना भी चुनौतीपूर्ण है. क्योंकि हर समूह अपनी स्वायत्ता पर कोई हस्तक्षेप नहीं चाहता.

कोई बाहरी शक्ति अगर राजधानी वाले इलाके पर काबिज गुट को काबू कर ले या समझौता कर ले तो बाकी गुट भी काबू में आए जाएं, ये जरूरी नहीं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×