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यूपी में विकास के चैंपियन नेता रोजगार की बात करते क्यों डरते हैं?

अगर रोजगार को चुनावी मुद्दा बना दिया जाए तो शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी ठसके के साथ चुनावी मैदान में टिक पाएगी.

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सुनिए तो ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश मानो सचमुच उत्तम प्रदेश बन गया हो. अखिलेश यादव चुनौती देते से नजर आते हैं कि दम है तो विकास पर चुनाव लड़ो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह भी सिर्फ विकास पर ही चुनाव लड़ने को आतुर नजर आते हैं. यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती भी कहती हैं कि सर्वजन समाज का विकास करना है तो बीएसपी को सत्ता में लाना पड़ेगा.

उत्तर प्रदेश में त्रिकोणीय लड़ाई में दिखने वाली हर पार्टी यूपी के विकास की ही बात कर रही है. लंबे समय से सत्ता से बाहर कांग्रेस भी 27 साल यूपी बेहाल नारे के साथ ही चुनाव में है. अगर सिर्फ इन नेताओं के भाषण से देखा जाए तो लगता है कि भगवान राम की अयोध्या वाले उत्तर प्रदेश में सचमुच रामराज आ गया है. लेकिन, इसी विकास को हटाकर अगर रोजगार को चुनावी मुद्दा बना दिया जाए तो शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी ठसके के साथ चुनावी मैदान में टिक पाएगी.

MBA से लेकर इंजीनियर तक बनना चाह रहे चपरासी

बदल रहा है उत्तर प्रदेश का नारा समाजवादी पार्टी खूब प्रचारित कर रही है. अब जरा बानगी देखिए. अखिलेश यादव के उत्तर प्रदेश में 2015 में चपरासी की नियुक्ति के लिए आए आवेदनों से बेरोजगारी का खतरा साफ दिख जाता है. 368 पदों के लिए 23 लाख लोग कतार में थे. इसमें से डेढ़ लाख के पास ग्रैजुएशन की डिग्री और करीब 25 हजार के पास पोस्ट ग्रैजुएशन की डिग्री है. ढेर सारे डॉक्टरेट भी हैं. यानी उत्तर प्रदेश के करीब 2 लाख नौजवान एमए, बीए की डिग्री लेकर चपरासी बनना चाहते हैं. ये उत्तर प्रदेश के नौजवानों की निराशा और हताशा साफ दिखाता है.

नौजवानों को नौकरी देना चुनौती

2017 में नई सरकार बन जाएगी. और उस सरकार के सामने बेरोजगारी की समस्या कितनी बड़ी होगी, इसे समझिए. नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन का आंकड़ा बता रहा है कि 2017 तक 1 करोड़ नए बेरोजगार होंगे. ये 5 साल यानी 2012-2017 के बीच नौकरी के लिए कतार में आने वाले नए बेरोजगार हैं.

यही 5 साल हैं जब प्रदेश का मुख्यमंत्री विकास पर अपनी सरकार के काम गिनाते नहीं थक रहा है. और इस एक करोड़ में पुराने करीब 42 लाख बेरोजगार जोड़ दें तो उत्तर प्रदेश में जो भी नई सरकार आएगी. उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती इन्हीं 1.5 करोड़ नौजवानों को नौकरी देना होगा.

अगर रोजगार को चुनावी मुद्दा बना दिया जाए तो शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी ठसके के साथ चुनावी मैदान में टिक पाएगी.
(फोटो: क्विंट हिंदी)
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एजेंडे में रोजगार क्यों नहीं?

नौकरी के लिए कतार में लगे 1.5 करोड़ नौजवानों के बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनावों में रोजगार मुद्दा नहीं है. क्योंकि, सरकारें रोजगार देने की स्थिति में नहीं हैं. लंबे समय से प्रदेश के किसी हिस्से में कोई नया, बड़ा निवेश नहीं हुआ है. देश में निजीकरण की नीतियों को उत्तर प्रदेश की सरकारें राज्य के लिहाज से तब्दील करने में बुरी तरह नाकाम रहीं. नोएडा-ग्रेटर नोएडा में नाममात्र का ही नया निवेश हुआ. उसमें भी कोई बड़ी संख्या में रोजगार देने वाली कंपनी नहीं आई.

खेती से लोगों का मोहभंग

खेती से तेजी से उत्तर प्रदेश के लोगों का मोहभंग हुआ है. इसकी सबसे बड़ी वजह खेती से कई बार लागत का भी न निकल पाना है. अखिलेश सरकार के इन 5 सालों में ही 49 लाख लोग खेती से बाहर हुए हैं. खेती में उत्तर प्रदेश में अब 53% से भी कम लोग लगे हैं. जबकि, उत्तर प्रदेश में पहले 78% लोग खेती से जुड़े थे. बेहतर जीवनस्तर के लिए खेती पर कम लोगों की निर्भरता अच्छी खबर हो सकती थी. लेकिन, खेती से बाहर हो रहे इन लोगों के पास रोजगार का कोई दूसरा मौका नहीं बन सका. खेती से बाहर हुए लोगों में से 10% लोगों को ही दूसरा बेहतर काम मिल सका है.

कारोबार की कमी

एक समय में उत्तर प्रदेश का कानपुर देश के बड़े कारोबारी शहरों में से एक था. कोलकाता और कानपुर दोनों के उद्योग की देश में बड़ी पहचान थी. दोनों ही शहरों में उद्योगों में ट्रेड यूनियन ने बुरा हाल कर दिया. लगभग यही हाल उत्तर प्रदेश के हर औद्योगिक क्षेत्र का है. फिर वो इलाहाबाद का मशहूर नैनी औद्योगिक क्षेत्र हो जौनपुर का सतहरिया हो या फिर गोरखपुर का गीडा. कहने को तो उत्तर प्रदेश के लगभग हर बड़े शहर के बाहर एक औद्योगिक क्षेत्र है. लेकिन, खराब बुनियादी सुविधाओं और कानून व्यवस्था के बुरे हाल की वजह से उद्योगपति आने को तैयार नहीं हैं. और ये सच भी है कि कानपुर को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश के बने नए औद्योगिक क्षेत्रों की ताकत निजी कंपनियां नहीं थीं.

दरअसल सरकारी कंपनियों की वजह से ही इन औद्योगिक क्षेत्रों की पहचान थी. लेकिन, जब 90 के दशक में देश के दूसरे राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक निजी निवेश के लिए हरसंभव कोशिश करने में जुट गए थे. तब उत्तर प्रदेश 5 प्रधानमंत्री देने के अपने दंभ में डूबा हुआ था. हां, ये जरूर हुआ कि ढेर सारे निजी इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेज खुल गए. बीए, एमए, बीएड की डिग्री थोक में बांटने वाले निजी संस्थान भी खुल गए. लेकिन, यहां से डिग्री लेकर निकलने वालों को रोजगार देने का कोई इंतजाम सरकारें नहीं कर सकीं. नतीजा ये कि कोई भी बड़ी निजी कंपनी उत्तर प्रदेश में अपना कारोबार लगाने नहीं आई.

दिल्ली से लगे होने की वजह से नोएडा-ग्रेटर नोएडा में भले कुछ कंपनियां आईं हों लेकिन, वो ज्यादातर बीपीओ और आईटी क्षेत्र की कंपनियां थीं या फिर शिक्षा के बड़े ब्रांड. इनमें उतना रोजगार संभव नहीं था जो, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के नौजवानों की क्षमता का इस्तेमाल कर पाता.

दुख की बात ये है कि उत्तर प्रदेश के नौजवानों के लिए सबसे बड़ा रोजगार का जरिया किसी राजनीतिक दल से जुड़ना ही रह गया है. और उससे भी बड़े दुख का विषय ये कि 2017 के चुनाव में भी किसी राजनीतिक दल के लिए रोजगार मुद्दा नहीं है.

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