उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रदेश है. ये सबसे बड़ा प्रदेश कई बार देश की राजनीति के बदलावों को भी सबसे आगे बढ़कर रास्ता दिखाता रहा है. 2017 के विधानसभा चुनावों में भी एक ऐसा ही रास्ता दिख रहा है. वो रास्ता है जातिसंघर्ष से आगे बढ़कर जाति प्रतिस्पर्द्धा की राजनीतिक यात्रा के शुरू होने का.
बेहद कठिन जातीय खांचे में बंटे उत्तर प्रदेश में इस बार जातियों के वोट पाने के लिए राजनीतिक दलों को गजब की मशक्कत करनी पड़ रही है. कुल मिलाकर जातीय चेतना का चक्र पूरा हो चुका है.
दिसंबर 1989 में जब पहली बार मंडल की लहर पर सवार होकर मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, उस समय वो ऐसे गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन बंजर कर दी थी.
किसी एक जाति समूह को लेकर राजनीति की ऐसी मजबूत बुनियाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने ही तैयार की थी. उससे पहले तक अगड़ी जातियों के ही नेता सबके नेता होते थे. ये और बात है कि पिछले करीब 3 दशक में पिछड़ों से सिर्फ यादव और अब यादवों में भी परिवारी यादवों के नेता बनते मुलायम सिंह यादव नजर आ रहे हैं.
पिछड़ों की राजनीतिक चेतना जाग्रत होने के बाद उत्तर प्रदेश में दलितों को जाग्रत अवस्था तक पहुंचने में डेढ़ दशक से ज्यादा लग गए.
जून 1995 में पहली बार एक दलित मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचीं. मायावती जब मुख्यमंत्री बनीं, तो वो सिर्फ जाटव नेता नहीं थीं. मायावती दलित नेता बनकर उभरीं.
लेकिन, अपने उत्तराधिकारी के बारे में बात करते और जिलों में महत्वपूर्ण पदों पर दलितों में सबसे ज्यादा आबादी वाले जाटवों को कब उन्होंने इतना प्रश्रय दे दिया कि दूसरी दलित जातियां उनको नेता मानने से बिदकने लगीं, ये अंदाजा शायद उन्हें भी नहीं होगा.
मायावती और मुलायम सिंह यादव ही वो नेता हैं, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में मजबूती से एक जाति के वोटबैंक के आधार पर सत्ता हासिल की.
पिछड़े और दलित के करीब 20% के इस पक्के वाले वोटबैंक में बीजेपी के विरोध में जाने वाला 18-19% मुसलमान जुड़कर जीत की गारंटी देता रहा.
कांग्रेस मंडल और कमंडल में उत्तर प्रदेश से एकदम गायब सी हो गई. बीएसपी, एसपी और बीजेपी के स्थानीय समीकरणों में होने वाली गड़बड़ के आधार पर कहीं भूले-बिसरे कांग्रेस के प्रत्याशी भी विधानसभा तक पहुंचते रहे. लेकिन, मोटे तौर पर देश के सबसे बड़े सूबे में कांग्रेस लगभग गायब ही रही.
MY व DM समीकरण से तय होती रही चुनाव की दिशा
इस वजह से भी एमवाई और डीएम समीकरण उत्तर प्रदेश की दशा-दिशा तय करता रहा. इस दौरान राममंदिर आंदोलन का असर खत्म होने के बाद बीजेपी पर पूरी तरह से ब्राह्मण-बनिया पार्टी की छवि चस्पा रही. लेकिन, 2007 में मायावती ने सतीश मिश्रा को चेहरा बनाकर 14% ब्राह्मणों को सम्मान का सफलतापूर्वक अहसास दिला दिया और पहली बार पूर्ण बहुमत की सत्ता हासिल कर ली.
अगर उत्तर प्रदेश की राजनीति में आए जातिगत बदलावों की बात करें, तो 1989 पिछड़ों के राजनीतिक उभार, 1991 हिन्दू राजनीति के उभार, 1995 दलित राजनीति के बढ़ता प्रभाव और 2007 हिन्दू समाज के सबसे ऊपर और नीचे के पायदान पर खड़ी मानी जाने वाली जातियों के गठजोड़ के तौर पर जाना जाएगा. लेकिन, 2014 का लोकसभा चुनाव इन सबसे हटकर रहा.
उत्तर प्रदेश में जातियां और जातियों के नेता गायब हो गए. गुजरात के एक नेता नरेंद्र मोदी के प्रभाव में उत्तर प्रदेश ने चमत्कारिक जनादेश दे दिया. उसी से आगे बढ़ते अब जब उत्तर प्रदेश की 17वीं विधानसभा चुनने के लिए 2017 में चुनाव होना है, तो लग रहा है कि ये पहला चुनाव है जिसमें किसी जाति को ये नहीं पता है कि उसकी पार्टी कौन सी है.
इस चुनाव में भी जात-पांत का बोलबाला
हर जाति राजनीतिक दलों को तौल रही है. किसी दल के साथ बंध रहने की छवि टूटी तो पार्टियों की बीच आपसी प्रतिस्पर्द्धा से हर जाति का सम्मान बढ़ा है. चुनाव नजदीक आते जातियों और पार्टियों के बीच विद्वेष बढ़ जाता था.
इस बार का चुनाव ऐसा दिख रहा है कि चुनाव नजदीक आते हर जाति एक दूसरे से मुकाबले में है. हर जाति चुनावी बाजार में बेहतर से बेहतर बोली आजमा रही है. और ये कहना बहुत गलत नहीं होगा कि इसी वजह से इस चुनाव में जातियों के बीच झगड़ा कम है. जातीय संघर्ष की खबरें भी नहीं हैं. ये उत्तर प्रदेश में हवा में उड़ते वोटों का चुनाव दिख रहा है. जिस राजनीतिक दल में हवा में उड़ते इन वोटों को साधने की बेहतर क्षमता होगी, वो चुनाव जीतने के ज्यादा नजदीक पहुंच जाएगा.
हर जाति जाग्रत अवस्था में है. हर जाति अपनी ताकत समझ रही है. लोकतंत्र मजबूत हो रहा है. इतना कि बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार मुसलमानों के बीच प्रोग्रेस पंचायत कर रही है.
उत्तर प्रदेश के चुनाव में संवाद महत्वपूर्ण हो गया है. चुनाव नजदीक आते हर राजनीतिक दल, हर जाति-संप्रदाय के लोगों तक पहुंच जाना चाहता है. ताकि, सनद रहे. हम भी आए थे. जाने कौन सा मिलन चुनावी गठजोड़ में बदल जाए.
(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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