महिला वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित करने का महा मुकाबला शुरू हो चुका है. अभी इस मुकाबले पर लोगों का पूरा ध्यान नहीं गया है. विजयादशमी के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो बड़े पत्ते खोले थे. सुर्खियों में रही रामायण को आतंक के खिलाफ नए नजरिए से देखने की कोशिश.
महिला वोट बैंक पर नजर?
दूसरी बड़ी बात, जो बड़ी सुर्खी नहीं बनी, वो थी लड़कियों की रक्षा की. पहली बार मोदीजी ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ और ‘सेल्फी विद डॉटर्स’ के स्लोगन और उससे जुड़ी बातों को सार्वजनिक मंच पर जोरदार ढंग से पेश करते दिखे. इससे पहले ‘मन की बात’ में इसकी चर्चा होती रही है.
जो मोदी जी को जानते हैं, वो समझ गए होंगे कि वो वैसे ही कुछ नहीं बोलते. इसीलिए इस मुद्दे पर राजनीति के पंडितों को गौर फरमाना जरूरी है.
2019 के चुनाव में महिला वोटों का रोल पहले से ज्यादा बड़ा होगा. डेमोग्राफिक डिविडेंड की बात करते वक्त हम ये नजरअंदाज करते हैं कि प्रतिशत के हिसाब से महिलाएं अब पहले से ज्यादा वोट कर रही हैं. उनको अपील करने वाला सबसे ताकतवर मुद्दा है- शराबबंदी. ये मुद्दा हर धर्म, जाति, क्षेत्र, उम्र और आय की महिलाओं को समान रूप से आंदोलित करता है और जोड़ता है.
विपक्ष में इस मुद्दे को पूरी तरह से किसी ने पकड़ा है, तो वो हैं नीतीश कुमार. उनकी जिद सामने है. विकास और गवर्नेंस के विषेशज्ञों ने नीतीश कुमार की कड़ी आलोचना की है. कहा जा रहा है कि ये एकांगी और सीमित मुद्दा है, पता नहीं क्यों नीतीश इसे अपनी रणनीति के केन्द्र में रख रहे हैं!
हालांकि मोदीजी और बीजेपी 2019 के चुनाव को चुनौतीविहीन मानते हैं- ये एक आम धारणा है. लेकिन वास्तव में मोदीजी विपक्ष की राजनीति को अंडर एस्टिमेट करनेवाले नेताओं में से नहीं हैं. हर संभावित जोखिम का तोड़ पहले से ढूंढना उनकी फितरत में है. इसीलिए मोदीजी के लिए ये जरूरी है कि शराबबंदी के मुद्दे की काट ढूंढी जाए और ऐसे मुद्दे जल्दी से हथिया लिए जाएं, जो व्यापक हों, समावेशी हों.
चुनावी घोषणापत्रों में यूं तो सब कुछ होता है, लेकिन चुनावों में आजकल मुद्दे वे चमकते हैं, जो किसी न किसी को आंदोलित करते हों, ध्रुवीकृत करते हों.
शराबबंदी में एक ऐसा मुद्दा बनने के सारे तत्व मौजूद हैं. महिलाओं की बराबरी, तालीम और सशक्तिकरण समाज में शराफत बढ़ाते हैं और हमें एक बेहतर देश बनाने को तत्पर करता है. यानी मुद्दे में दम है.
विपक्ष तो टूटा-बिखरा पड़ा है और इस मुद्दे को भुनाएगा कौन?
ये सवाल गलत है. भारत का लोकतंत्र लाजवाब है, जब नेता और पार्टियां चूकते हैं और हमें सन्नाटा दिखता है, हम टीना फैक्टर की बात करते हैं, लेकिन भारत का चुप रहने वाला वोटर कहां से क्या विकल्प खड़ा करता है, हमें इसका पूर्वाभास हो ही नहीं सकता. 'फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट' के खेल में हार-जीत एक अलग विषय है.
विकल्प का चेहरा कौन होगा? व्यक्तित्व के बल पर राहुल गांधी, नीतीश कुमार, मायावती और केजरीवाल के बीच अभी बहस खुली हुई है. नीतीश की दावेदारी का आधार सिर्फ उनकी छवि है, न सीट बल, न पार्टी बल.
अपनी दावेदारी मजबूत करने के लिए नीतीश को 10 जनपथ के साथ अच्छा समीकरण बनाना होगा. बिहार में तो ऐसा ही हुआ, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा हो, यह मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं.
इसी संभावना के खिलाफ मोदीजी को अपना तानाबाना बनाना है. ग्रामीण महिलाओं को (अब तक 80 लाख) एलपीजी सिलेंडर, 'स्वच्छ भारत अभियान' के तहत शौचालय, भ्रूण हत्या की रोकथाम और महिला सशक्तिकरण की स्कीमें- इन सबका मकसद एक ही है. मोदीजी हर रक्षाबंधन पर महिलाओं से राखी बंधवाने से लेकर अपनी माताजी से मुलाकात को सार्वजनिक तौर पर प्रबलता से दर्ज कराते रहे हैं, तो इन सबका कुल योग एक ही है- महिला वोटर को प्रभावित करना.
इस मसले पर फिलहाल एक तरफ 'नमो' और दूसरी तरफ 'नीकु' दिख रहे हैं. कई अप्रत्याशित दावेदार भी खड़े हो सकते हैं. और मुद्दे ने दम पकड़ा, तो ध्रुवीकरण की शुरुआत घर से ही हो सकती है. ऐसे में इसका चुनाव के परिणाम पर असर होना तय है.
इसलिए मोदीजी कोई चांस नहीं लेना चाहते हैं और लखनऊ में उन्होंने इसका संकेत भी दे दिया. क्या यहां ट्रिपल तलाक का मुद्दा उसी संकेत को आगे नहीं बढ़ाता है?
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