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मोदी जी, सरकारी मशीनरी का तो आपको अंदाजा था ही

क्या मोदी सरकार को ये अंदाजा नहीं था कि सरकारी मशीनरी नोटबैन के अचानक फैसले के लिए तैयार नहीं थी?

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(बाबा रामदेव कालाधन के खिलाफ लड़ाई के बड़े पैरोकार रहे हैं. प्रधानमंत्री के नोटबंदी के ऐलान का उन्होंने जमकर स्वागत किया था. लेकिन नोटबंदी लागू होने के एक महीने बाद इसके तौर-तरीके पर कई सवाल उठ रहे हैं. बाबा रामदेव बैंकिंग सिस्टम में गड़बड़ियों की खबरों की वजह से यह कह रहे हैं कि यह एक घोटाला हो सकता है.

ऐसे में क्‍व‍िंट हिंदी 16 नवंबर को प्रकाशित आलेख को अपने पाठकों के लिए फिर से पेश कर रहा है, जो आज की तिथि में एकदम प्रासंगिक है.)

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क्या मोदी सरकार को ये अंदाजा नहीं था कि सरकारी मशीनरी नोटबैन के अचानक फैसले के लिए तैयार नहीं थी?

जैसे-जैसे नोट बैन की कहानियां उजागर हो रही हैं, वैसे-वैसे देश की भयावह तस्वीर सामने आ रही है. कहा जा सकता है कि ये एक रैडिकल आइडिया था जिसे ठीक से लागू नहीं किया गया. या ये सिस्टम को साफ करने के लिए एक अभूतपूर्व फैसला है और हमें देशभक्त होने के नाते थोड़ा धैर्य दिखाना चाहिए.

कौन नहीं जानता कि हमारी सरकारी मशीनरी बहुत बुरी हालत में है, जो किसी साधारण काम को भी ठीक से अंजाम तक नहीं पहुंचा पाती. 15 लाख करोड़ रुपए को पहले सिस्टम से निकालना और फिर नए नोटों को वापिस डालने जैसे बड़े काम को करने के लिए सरकार को अपनी क्षमताओं के प्रति ज्यादा सजग रहना चाहिए था.

प्लानिंग की कमी

क्या मोदी सरकार को ये अंदाजा नहीं था कि सरकारी मशीनरी नोटबैन के अचानक फैसले के लिए तैयार नहीं थी?
बैंकों के बाहर लंबी कतार. (फोटो: IANS)

नोट बैन लागू किए जाने के बाद सरकार की ओर से बनाए जा रहे बहानों और नई नई तरकीबों को देखकर लगता है कि प्लानिंग की कमी है. कैश लिमिट रोजाना बदली जा रही हैं,पुराने नोटों के चलन के लिए रोजाना नई छूट दी जा रही है. और अब आई है स्याही लगाने की बात.

इन सबसे योजना की तैयारियों की खामी स्पष्ट नजर आती है. टैक्स अधिकारियों को समझना चाहिए था कि लोग कालेधन को बचाने का रास्ता निकालेंगे. अब अधिकारी इस बात का रोना रो रहे हैं कि जन-धन योजना के अकाउंट्स का गलत इस्तेमाल हो रहा है. वे कहते हैं कि लोग पैसे जमा करने और निकालने के लिए बड़े पैमाने पर अपने नाम और पहचान के साथ-साथ टैक्स फ्री रूट्स का भी गलत इस्तेमाल कर रहे हैं.

अमिट स्याही को अब समाधान के रूप में लाया गया है. इससे बचने के लिए कालेधन के मालिकों को बस कुछ ज्यादा लोग ही तो ढूंढ निकालने हैं, भारत जैसे देश में बेरोजगारों की भारी तादाद है वहां ये काम कोई मुश्किल नहीं है.

दरअसल इस कदम के पीछे असली वजह नोट की मांग को कम करना है क्योंकि मांग के अनुसार नए नोटों की सप्लाई नहीं हो रही है. और सवाल है कि स्याही देश के सभी इलाकों में कब तक पहुंचेगी.

कोई बता सकता है कि नए नोट की माप बदलने, जिससे सभी एटीएम कई हफ्तों के लिए बंद हो गए, के पीछे क्या तर्क है? सरकार और आरबीआई नोटों में सुरक्षा के नए उपाय कर सकती थी. हमें बताया गया है कि कोई नया उपाय नहीं किया गया है. और यह जिद क्यों कि नए नोट को डॉलर की तरह दिखना चाहिए!

अगर कुछ समझदारी से नए नोटों को बनाया गया होता तो वो एटीएम में फिक्स हो सकते थे. इससे कई हफ्तों की दिक्कत टल सकती थी.

क्या लागत-फायदे का विश्लेषण किया गया?

सबसे ज्यादा घाटा इकोनॉमी को हुआ है. रिपोर्ट्स के मुताबिक बिजनेस को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, खासकर उन्हें जो बाजार के पिरामिड में सबसे निचले स्तर पर हैं. छोटी दुकानें, खुदरा व्यापारी और रेस्टारेंट्स के राजस्व में तकरीबन 50% की कमी आई है. आटा मिलें किसानों को उनके अनाज के बदले पैसे नहीं दे रही हैं. साथ ही रोजाना इस्तेमाल के सामानों की बिक्री को भी धक्का लगा है.

एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी की मंडियों में कारोबार में 40-50% गिरावट आई है. खराब होने वाली चीजों के लिए ये स्थिति और दुखदायी है क्योंकि किसान इन्हें बेचने के लिए आतुर हैं. उधार देने वाला ढांचा टूट चुका है. अनौपचारिक ऋण बाजार में सबसे ज्यादा स्थिति खराब हो रही है वहां उधार लेने वाले वापिस नहीं कर पा रहे हैं. इसकी वजह से पैसे की कमी हो गई है जिससे ब्याज दरें काफी ऊंची हो गई हैं. माइक्रों फायनेंस मार्केट भी बुरी तरह प्रभावित है. एफएमसीजी चैनल टूट रहा है.

कुल 6 करोड़ रजिस्टर्ड बिजनेस हैं. इनमें अनरजिस्टर्ड छोटे विक्रेताओं को नहीं जोड़ा गया है. इनकी संख्या दो से तीन करोड़ के बीच हो सकती है. एक अनुमान के मुताबिक देश के करीब 5 करोड़ लोग जो आर्थिक गतिविधियों में जुटे हैं उन्हें अचानक तेज झटका लगा है.

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फायनेंस एंड पॉलिसी के अजय शाह ने लिखा है, अब जब एक अच्छे मानसून के बाद इकोनॉमी उछाल पर थी ऐसे में नोट बैन से पैदा हुई रुकावटों से जीडीपी में 3% तक की गिरावट हो सकती है.

शाह के अनुमान के मुताबिक ‘’3.65 दिन में जीडीपी का 1% हिस्सा बनता है. इसकी कीमत लगभग 1,20,000 करोड़ होती है. अगर उत्पादन में25% की भी कमी आई है तो 3.65 दिन में इकोनॉमी में 30,000 करोड़ का नुकसान होता है. अगर यह रुकावट 15 दिन तक भी जारी रहती है तो इससे करीब 1,20,000 करोड़ का नुकसान हो जाएगा.’’

अजय शाह को लगता है इस रुकावट से आर्थिक मंदी आ सकती है. बिगड़े हुए बाजार को संभलने में वक्त लगेगा. कालेधन को खत्म करने का यह फैसला राजनीतिक लगता है, अर्थनीति का इनपुट काफी कम है. कम से कम लगता ऐसा ही है.

आने वाले दिन दुख भरे हो सकते हैं

अगर कालेधन पर इस रैडिकल सर्जिकल स्ट्राइक का वजन 3.5 लाख रुपये के बराबर हो भी जाता है तो भी जश्न मनाने का वक्त नहीं है. इसकी स्ट्राइक की कीमत जीडीपी का 3% है, जो अनुमानित फायदे के बराबर का होगा. खतरा है कि इन सब की वजह से जीएसटी को लागू करने की तैयारियों में भी देरी हो सकती है.

स्टॉक मार्केट को नजरअंदाज करने का फैशन है लेकिन ये व्यवहारिक और वास्तविक संकेत होते हैं. शेयर बाजार चीख चीखकर बता रहा है कि आने वाले दिन दुख भरे हो सकते हैं.

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