उनका कोई नेता नहीं है, वे खुद अपना नेतृत्व कर रहे हैं. उन्होंने आज के नेताओं से दूरी बनाई हुई है (उम्मीद है कि नेताओं ने इसका नोटिस लिया होगा) और खुद को किसी राजनीतिक पार्टी की स्टूडेंट विंग से भी नहीं बंधने दिया है. विरोध की नई चिंगारी तमिलनाडु में जल्लीकट्टू को लेकर भड़की है. क्या इसकी वजह खुली सोच या उदारवाद के खिलाफ राज्य के नौजवानों की नाराजगी है?
मरीना बीच से लेकर तमिलनाडु के दूरदराज के इलाकों में हो रहे विरोध का अगर आप यह मतलब निकाल रहे हैं तो आप गलत हैं. आज का युवा कुछ करने के लिए बेचैन है, लेकिन उसे इसका मौका नहीं मिल रहा. तमिलनाडु में जल्लीकट्टू मामले में विरोध जताकर शायद ये नौजवान बेरोजगारी और अपनी लाचारी का इजहार कर रहे हैं. राज्य भीषण सूखे का भी सामना कर रहा है और जयललिता की मौत के बाद यहां के भावुक लोग एक राजनीतिक खालीपन से भी जूझ रहे हैं. तमिलनाडु में पांच दशक से एआईएडीएमके और डीएमके का राज चलता आया है लेकिन आज दोनों ही पार्टियां बदलाव के दौर से गुजर रही हैं, जिससे लोगों की बेचैनी बढ़ी है.
पिछले साल बलात्कार की एक घटना से मराठा विरोध शुरू हुआ था, लेकिन उस आंदोलन से महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों की बेबसी और बेरोजगारी भी सामने आई थी. मराठा और जल्लीकट्टू विरोध अचानक और बिना किसी लीडरशिप के शुरू हुए. इसके बावजूद इन आंदोलनों के दौरान कहीं हिंसा नहीं दिखी. वहीं गुजरात के पाटीदार आंदोलन में शायद कुछ राजनीतिक रंग था. इन सभी आंदोलनों में एक बात कॉमन रही है और वह है सामाजिक विद्रोह.
यह सामाजिक विद्रोह जॉबलेस ग्रोथ और असुरक्षित भविष्य का नतीजा है. देश के नौजवान जानते हैं कि अगर राजनीतिक वर्ग पर जल्द दबाव नहीं बनाया गया तो हम नौजवानों की श्रम शक्ति का फायदा नहीं उठा पाएंगे और इससे देश बर्बादी के रास्ते पर आगे बढ़ेगा.
वहीं जो लोग जल्लीकट्टू मामले में हो रहे विरोध के बहाने उदार भारत का मजाक उड़ा रहे हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत, ब्रिटेन के लोगों के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के फैसले और यूरोप के कुछ इलाकों में दूसरे कंजर्वेटिव ट्रेंड के बहाने भारत का मिजाज बदलने का दावा कर रहे हैं, वे शायद गलत हैं.
इस देश के लोगों के पॉलिटिकल सेंस का कोई जवाब नहीं है. उनकी कथित खामोशी (नोटबंदी का मामला) और दूसरे मामलों पर उनके विरोध को बंधे-बंधाए फॉर्मूले से नहीं समझा जा सकता. हम पहले भी एक के बाद एक हुए चुनावों में देख चुके हैं कि देश के गरीब वोटरों ने राजनीतिक सिद्धांतों और भविष्यवाणियों को गलत साबित किया है.
आज दुनिया में नव-रूढ़िवाद, खुद को अलग-थलग करने और वैश्वीकरण के विरोध की एक नई लहर शुरू हुई है. क्या भारत भी इसका हिस्सा है? यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत को भी लोगों के बदलते मिजाज से जोड़कर देखा गया था. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लिबरल वोटरों की वजह से मोदी को शानदार जीत मिली थी, जिनका मानना था कि बीजेपी से होने के बावजूद वह उदार और आधुनिक भारत का निर्माण करना चाहते हैं. लिबरल वोटरों को बीजेपी के पारंपरिक वोटबैंक से जोड़ना गलती होगी. मोदी की लोकप्रियता में अभी भी कमी नहीं आई है, लेकिन देखना यह है कि क्या देश और उदार हो रहा है या रूढ़िवादी?
तमिलनाडु और महाराष्ट्र के विरोध प्रदर्शनों ने हमें एक ताकतवर उप-राष्ट्रवाद का अहसास कराया है. कुछ समय से इस पर चर्चा भी हो रही थी. यह उप-राष्ट्रवाद ऐसा सच है, जिससे मुंह नहीं चुराया जा सकता. आंध्र प्रदेश का बंटवारा और जाट आंदोलन को भी इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए. आपको उत्तर प्रदेश पर भी नजर रखनी चाहिए. यह ऐसा राज्य है, जो नई पहचान तलाशने में पीछे छूट गया है.
हमें नहीं पता कि यहां होने जा रहे चुनाव का नतीजा क्या होगा, लेकिन अखिलेश यादव कुछ वैसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं, जैसा दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रीय नेता पहले कर चुके हैं. उनकी प्रतिद्वंद्वी मायावती भी जातिगत पहचान को नए लेवल पर ले गई थीं. अखिलेश के चुनाव कैंपेन में खुलकर यह बात नहीं कही जा रही है, लेकिन वह भी शायद उप-राष्ट्रवाद को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में युवाओं की बड़ी संख्या है और यहां की सियासत जातिगत पहचान से कुछ आगे निकल गई है. 2014 लोकसभा चुनाव में यूपी में मोदी की जीत से यह बात साबित हो चुकी है. लेकिन मोदी राष्ट्रवादी सोच के प्रतीक हैं, जहां उप-राष्ट्रवादी चाहतों के लिए जगह नहीं है. आज हमें एक ऐसी नई सोच की जरूरत है, जिसमें ना सिर्फ इस उप-राष्ट्रवाद को जगह मिले बल्कि उन ख्वाहिशों का सम्मान किया जाए, जिनसे यह देश बन रहा है.
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